Sunday, December 31, 2017

इस बरस...


खुद के लिए लम्हे चुराउंगी
बनूँगी थोड़ी और मुंहफट
जिंदगी को गले लगाकर खिलखिलाऊँगी
करुँगी खूब सारी यात्राएं
दोस्तों से और करुँगी झगड़े
बिखरे हुए घर को मुंह चिढ़ाऊंगी
नींदों से ख्वाब चुरा लूंगी
समंदर किनारे दौड़ लगाउंगी
नदी की बीच में धार में खड़े होकर
पुकारूंगी तुम्हारा नाम
इस बरस...

Wednesday, December 27, 2017

सिर्फ एक उदास शाम है..


शोर जितना घना होता है, ख़ामोशी उतनी ही सघन होती जाती है. इस ख़ामोशी में कोई अवसाद घुलता जाता है. उतरते सूरज की रंगत नीबू वाली चाय में घुलकर जीवन के खट्टेपन सी मालूम होती है. जब बाहर बहुत कुछ घट रहा होता है तब भीतर कितना कुछ ठहर जाता है. बहुत सारा घटा हुआ आसपास जमा होता जा रहा है. ढेर बढ़ता जा रहा है. कोई आये और सहेज दे ऐसी इच्छा होती है, कौन भला सहेजता है कुछ भी, अलबत्ता बिखेरने वाले जरूर होते हैं. उन बिखेरने वालों को सहेजने का काम भी बढ़ता जाता है.

सब भागता जा रहा है, बहुत तेज़ी से. उस तेज़ी की लय में मेरी भी कोई गति है शायद हालाँकि मैं कहीं ठहरी ही हुई हूँ. मुस्कुराहटों के ढेर के भीतर बमुश्किल अपनी उदासी को सहेजते हुए. वो उदासी मुझे प्रिय है, उसमें कोई बनावट नहीं, वो दिल के करीब है. ये गति मेरी जानी पहचानी नहीं, ये शोर अजनबी सा लगता है.

लम्हे उलझे हुए हैं, सुलझाने का वक़्त नहीं. वक़्त कहीं गुम गया लगता है. मैं भी कहीं गुम गयी हूँ शायद. वो जो भागती फिरती है सर्रर्र से वो कोई और है, वो जो मुस्कुराती है, खिलखिलाती है वो कोई और है, मैं उसे नहीं जानती, मैं शोर के दूसरे सिरे पर खड़ी उदासी को जानती हूँ.

अपने चेहरे में खुद को तलाशती हूँ, अपनी आवाज में अपनी आवाज को, अपने होने में अपने होने को. सब गड्डमगड्ड है. सिर्फ एक उदास शाम है जो बीतते शरद की टहनी से बस किसी भी वक़्त झरने को है कि वो शाम जो चौथ के चाँद से आँख लगाये बैठी है...

Tuesday, December 26, 2017

साहित्य, संस्कृति के ज़रिये शिक्षा की ओर

वो ऐसी ही कोई झरती ओस वाली शाम थी, जब मैं पापा के साथ एक जर्मन प्ले देखकर लौट रही थी. प्ले जर्मन कलाकारों द्वारा किया गया था लेकिन उसमें कोई संवाद नहीं थे. प्ले कितना समझ में आया था, कितना नहीं यह तो पता नहीं लेकिन शायद थियेटर के प्रति प्रेम और आस्था के बीज मन में पड़ गए थे. जाने कितनी ही फोटो, पेंटिंग, स्कल्पचर एक्ज़ीबिशन, सिनेमा, साहित्यिक गोष्ठियां, किताबों के मेले उस नन्ही उम्र के खाते में दर्ज है. पापा के साथ अपनी घुटनों तक की फ्रॉक में उछल कूद करते इन सब जगहों पर जाते वक़्त मेरे भीतर कोई ऐसा संसार जन्म ले रहा था, जिसने शायद मुझे सबसे ज्यादा गढ़ा. इसका नतीजा यह हुआ कि जो कुछ मैंने कलाओं, साहित्य और संस्कृतियों से सीखा, जाना, महसूस किया वो स्कूल की औपचारिक शिक्षा में संभव नहीं हुआ.

क्लासरूम में किताबें खुलती थीं तो जैसे कोई उकताहट खुलती थी. होमवर्क, असाइनमेंट और प्रोजेक्ट के इर्द-गिर्द घूमता स्कूल कॉलेजों का संसार. साहित्य का वही टुकड़ा जब स्कूल और सेलेबस से बाहर मिलता था तो उसके आगे सर झुकाकर घंटों बैठी रहती, शब्द-शब्द महसूसती रहती लेकिन जब वही कविता क्लासरूम में टेक्स्ट बुक में खुलती और संदर्भ सहित व्याख्या किये जाने के दबाव के साथ उससे गुजरना होता तो लगता गले में कोई फ़ांस अटकी हो.

स्कूल कॉलेजों के दिनों को याद करती हूँ तो कुछ दोस्त, कुछ सांस्कृतिक संध्याएँ ही याद आती हैं जिनमें एक जैसी लिपस्टिक और पाउडर पोतकर एक जैसे हाव भाव करने वाले सांस्कृतिक उत्सव शामिल नहीं हैं. उन दिनों ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता था (हालाँकि अब भी ज्यादा समझ में आता है ऐसा कोई भ्रम भी नहीं है )लेकिन यह जरूर लगता है कि अगर स्कूली शिक्षा ने कला, संस्कृति, साहित्य से दोस्ती की होती तो शायद यह आनंद और ऊब के बीच के फासले मिट गए होते. बाद में पता चला कि ऐसा ही कुछ शिक्षा की नीतियां बनाने वालों ने भी महसूस किया और इसी के चलते साहित्य, संस्कृति, कलाओं को, लोक की बोली भाषा को कक्षाओं से जोड़ने की पुरजोर वकालत की.

स्कूलों का माहौल बदलने लगा. कक्षाओं में अब ब्लैक बोर्ड, चाक और डस्टर के साथ ढोलक, ढफली की भी जगह बनने लगी. लाइब्रेरी स्कूल में होना आवश्यक हो गया. पढ़ाने के तरीकों में बदलाव होने लगे. शिक्षक महान गुरु की पदवी छोड़ दोस्त हों इसकी जरूरत महसूस की जाने लगी, कुछ हद तक कवायद भी शुरू हुई लेकिन अभी भी एक लम्बा रास्ता तय किया जाना बाकी है. यह जरूर महसूस होता है कि औपचारिक शिक्षा को अनौपचारिक शिक्षा के तमाम माध्यमों का हाथ थामना जरूरी है. सिर्फ स्कूल, कॉलेजों में जाकर, किताबें रटकर, रिपोर्टकार्ड में ढेर नम्बर भरकर बात नहीं बनेगी. विषय विशेषज्ञों की फ़ौज स्कूलों से, कॉलेजों से निकलते कई बरस हो गए लेकिन इन विशेषज्ञों के भीतर एक दूसरे के लिये धडकने वाला दिल कहाँ नदारद हो गया, किसी और के पाँव में चुभे कांटे की तकलीफ को महसूस करने वाली संवेदना कहाँ हैं, कहाँ है इन्सान को उसकी जाति, धर्म, लिंग, और आर्थिक अलगाव से परे देख पाने की ताकत. जो अब तक औपचारिक शिक्षा यह कर पाने में समर्थ हुई होती तो आंकड़ों में शिक्षा की दर बढ़ने के बावजूद यह समाज इस कदर हिंसा की चपेट में क्यों होता. इतनी नफरत कहाँ से लाते लोग कि राह चलते हर पल असुरक्षा का बोध होता. क्यों दर्द और आंसुओं का किसी खास मजहब से रिश्ता होता?

ऐसा लगता है कि हमें अब तरक्की के लिए आंकड़ों का मुंह देखना बंद करना चाहिए और अपने आसपास देखना शुरू करना चाहिए. तरक्की के हमारे मॉडल क्या हों इस पर सोचने की जरूरत है. शिक्षा के अपने मॉडल को भी फिर से टटोलने की जरूरत लगती है. शिक्षा यानी टीचर, स्कूल, कॉलेज, फीस, यूनिफॉर्म, रिपोर्ट कार्ड इस चक्र में उलझने से बचना भी ज़रूरी लगता है.

यह मामला सिर्फ स्कूलों, कॉलेजों के मत्थे मढने का नहीं है, स्कूल भेजकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का एहसास झूठा एहसास है, क्लासरूम में अपना सेलेबस पूरा कराने और बच्चों की याद करके इम्तिहान में जस का तस उगल देने की क्षमताओं का निर्माण शिक्षक की भूमिका नहीं है. अभिभावक के तौर पर, शिक्षक के तौर पर, शिक्षक शिक्षण के तौर पर भी सोचने का वक़्त है. कोई भी विषय अपनी संवेदना खोकर अधूरा ज्ञान निर्माण कर रहा है. मानवीय मूल्यों के बगैर जमा डिग्रियों का कोई मोल बाज़ार में तो हो सकता है लेकिन एक खूबसूरत भेदभाव रहित दुनिया के ख़्वाब की राह में वह बाधा ही है.

फिर से ओस झरती शामों का मौसम है. पुस्तक मेलों, थियेटर, पेंटिंग प्रदर्शनी, संगीत संध्याओं का मौसम है, हो सकता है इन कलाओं और संस्कृतियों पर भी बाज़ार की नजर हो, लेकिन इनमें जो नमी है, जो संवेदना है, जो किसी भी शिक्षा का पहला प्राप्य है उसे हम हासिल कर सकते हैं. हम किसी ढोलकी की थाप पर कबीरी धुन पर नाच सकते हैं, बच्चों के हाथों से बनी आड़ी टेढ़ी रेखाओं में आने वाले कल का सुंदर सपना देख सकते हैं. कला, साहित्य और संस्कृतियों के मिलन के अभाव में न कोई शिक्षा पूरी होगी न मानवीय संवेदनाओं पर आधारित दुनिया का सपना देखा जा सकता है.

कलाओं का, साहित्य का, संगीत का कोई मजहब नहीं, कोई देश नहीं कि वो दिल से दिल की राह तय करती हैं. कोर्स की किताबों में कुछ चैप्टर साहित्य या संस्कृति के टांक लेने से बात नहीं बनेगी. हम सबको इस ओर बढ़ना होगा एक साथ. शादी ब्याह, जनेऊ की पार्टी में जाने से ज्यादा जरूरी है साहित्य और संगीत के उत्सवों में जाना यह हमारे लिए और हमारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी है. जब भी बच्चों को अपने माँ पापा की ऊँगली पकड़कर उछल-कूद करते हुए ऐसे उत्सवों में शामिल होने को जाते देखती हूँ मालूम होता है एक सुंदर दुनिया का सपना देख रही हूँ.

Tuesday, December 19, 2017

प्रक्रिया


दृश्य का दृश्य होना
अदृश्य होने की प्रक्रिया है
जैसे करीब आना
दूर जाने का आरम्भ
और प्रेम में पड़ना
प्रेम से फासला बनने की शुरुआत.

चुप

चुप हैं पत्तियां
चुप हैं फूल
चुप हैं बिरवे और नीड़
चुप है नदी
चुप है आसमान
चुप है धरती
एक तुम्हारी 'चुप' सुनने को...

Sunday, December 17, 2017

सफ़ेद फूलों के बारे में



सफ़ेद फूलों के बारे में कुछ बातें ख़ास होती हैं
कि वो अँधेरों को रोशन करते हैं
उनकी खुशबू इतनी ताकतवर होती है
कि भीतर के तमाम कसैलेपन और कड़वाहट को
भुला सकती है कुछ पल को

सफ़ेद फूलों के संग नहीं पैबस्त होता
भावनाओं का कोई रंग
उदास मौसम में उम्मीद से खिलते हैं सफ़ेद फूल
जैसे वादियों में खिलती है झक्क सफ़ेद बर्फ

मांस जलने की गंध बहुत बढ़ने लगी है
इस बरस और सफेद फूल उगाने होंगे.

Thursday, December 7, 2017

समय था सपने भी थे-गीता गैरोला


वो सितम्बर के अन्त की कोई उलझी हुई सी शाम थी। दिन छोटे और रातें बड़ी होने ही तरफ जा रही थी। मौसम में ठण्ड की हल्की सी खुनकी अपने आने का अहसास दिला रही थी। कई बार ऐसे दिन उदास लगते हैं। मुझे पहाड़ों की खुद लगने लगी। खेतों में धान की बाली झूम—झूम के अपनी खुशबू लुटा रही होंगी। झंगोरे—मंडुवे की बाल गबार (पकने) बैठी होंगी। और बस तय किया कि अब तो ऑफिस के, घर के, मन के सारे झंझटों से निकलना ही है और तुरन्त बात कर कमल के साथ बस यूं ही आवारागर्दी की योजना बन गई। सोचा इस बार हर्षिल जायेंगे। वैसे ही कहीं पर पैदल, कहीं जो भी सवारी मिल जाये। इस बार कुछ अच्छा सा एक साथ बैठकर पढ़ने की योजना बनी— उपन्यास, कहानी, कविता। घर में कोई था नहीं जिसे कोई सफाई देती। ऑफिस के लोगाें को कहा छुट्टी लेनी है, मन ऊब रहा है। कमल देहरादून ही था और बस हम दोनों ने तय किया कि 8 बजे उत्तरकाशी रोडवेज वाली बस में मिलेंगे। मैंने अपने पिट्ठू में कुछ खाने—पीने का सामान साथ रख लिया।
ये दिन कमल के लिए मुश्किल दिन होते थे। बदलते मौसम में ट्टदमा’ उसे बहुत परेशान करता था। अब उसे दमे की रोकथाम के लिए स्टेराइड लेने जरूरी हो गये थे। मैंने अपने सामान के साथ कामायनी, नवीन जोशी की लिखी दावानल और अज्ञेय की नदी की हीप भी रख ली। दावानल नवीन जोशी ने चिपको आन्दोलन के बारे में लिखी है और मुझे इस उपन्यास ने बहुत प्रभावित किया था। रोडवेज स्टैण्ड में हमें बस के बदले शेयर टैक्सी मिल गई। चलो जल्दी उत्तरकाशी पहुँच जायेंगे ये सोचकर हमने टैक्सी में सीट घेर ली। हालांकि कमल को इस तरह ठुंस कर टैक्सी में बैठना पसन्द नहीं आता। और एक बात— उसके पास पत्रकार होने के नाते रोडवेज की बस में प्रQी सफर करने का पास हमेशा रहता था। फिर भी मेरा मन रखने को कमल टैक्सी में चलने को तैयार हो गया। टैक्सी सीट भरते ही चल दी। महिला होने के नाते मुझे खिड़की वाली सीट पर कब्जा करने का मौका मिल गया। इस बात से कमल को बहुत चिड़ लगती थी, कहता था तू हमेशा अपना औरतपना दिखा देती है, वैसे समानता की बात करेगी।

सबसे खुशी की बात तो ये थी कि टैक्सी मसूरी होते हुए जाती है, तो रास्ता खुशनुमा हरा—भरा दिखने वाला था। मैंने कमल की बात अनसुनी कर दी और खिड़की के बाहर देखने लगी। बरसात के बाद सारा आलम धुला—धुला, खिला—खिला गहरी हरियाली से भरा था। असामन में बादलों के चट्ठबच्चे अठखेलियाँ कर रहे थे। सूरज पूरी ताब से दमक रहा था। हवा में सितम्बर की खुनकी तैर रही थी। टैक्सी सुवाखोली पार करती रौंतू की बेली होते हुए अलमस पार करने लगी थी। यहाँ पर जंगलों का घनापन खत्म हो जाता है। बरसात के बाद पहाड़ों पर हरियाली बरकरार है पर पेड़ बहुत कम हैं। अलमस के बाद मौर्याणा के लिए चढ़ाई शुरू हो जाती है और बांज—बुरांश के जंगल शुरू हो जाते हैं। मैंने जोर से सांस भरी। खेत अनाजों के पकने की महक से गहमहा रहे थे। मौर्याणा से चढ़ाई खत्म और उतराई शुरू होते ही टिहरी झील दिखाई दी। ओह ये झील मुझे कितनी डरावनी लगती है। इसने कितने गाँव कितने खेत निगल लिए और आज भी लगातार गाँव खेतों को निगल रही है। मेरी आँखें भर आई और मैंने झील की तरफ से मुँह फेर लिया। टिहरी झील के प्रति मेरी भावनाओं को कमल अच्छी तरह समझता है। उसने धीरे से मेरा हाथ दबा कर मुझे ये बताया कि वो समझ रहा है। चिन्याली सौड़ के अधिकांश खेत मकानों की भेंट चढ़ गये और पूरा सौड़ (मैदान) जिसमें एक समय उड़द की दाल की इतनी फसल होती थी कि चिन्याली उड़द की दाल की मण्डी समझा जाता था, एयरपोर्ट की भेंट चढ़ गया। फिर भी सड़कों के दोनों तरफ खेत धान, झंगोरों से लहलहा रहे थे। 

हम सवा दो बजे के लगभग उत्तरकाशी पहुँच गये थे। वरुणावत पर्वत की लैण्ड स्लाइड होने के बाद उत्तरकाशी का मिजाज बहुत धूल भरा हो गया है। जरा सी भी बारिश हो जाने पर पूरा बाजार कीचड़ भरा हो जाता है। गनीमत हुई कि तब बारिश नहीं हुई। यहाँ पता चला कि भटवाड़ी से आगे जाने का रास्ता टूटा हुआ है पर वहाँ पर काम चल रहा है, शायद खुल गया हो। हमने तय किया जहाँ तक जाया जा सकता है जायेंगे। खाना खाने को लेकर हर बार कमल और मेरे बीच तनाव हो जाता था। वो केवल पीली दाल और रोटी खाना पसन्द करता था और मैं ककड़ी, दही की माँग भी कर देती थी या स्थानीय सब्जियों की भी। कमल का कहना था दाल फिर भी सही रहती है बाकी चीजों का कोई ठिकाना नहीं होता कि कैसे बनी है। ख्ौर, जब तक साथ रहेंगे तब तक ये झगड़ा चलने वाला था। यहाँ से भी हमने शेयर टैक्सी ले ली और 3 बजे करीब चल पड़े। कमल बोला आज तो शायद रास्ते में ही रुकना पड़ेगा। देखा जायेगा वाले मूड में मैंने सिर हिला दिया।
पहाड़ी लोग सफर में अक्सर उल्टी करते हैं। सो टैक्सी चलते ही दो महिलाएँ और बच्चे शुरू हो गये। टैक्सी गंगोरी होते हुए गणेशपुर का पुल पार करने लगी। मुझे 1991 के भूकम्प के बाद का बुरी तरह टूटा पुल याद आ गया। रास्ते में खेत फसलों से भरे लहलहा रहे थे। नदी पार कई गाड—गदेरे, झरने अपनी पूरी आन से झाग उंडेलते बह रहे थे। हम नैटाला हिना पार कर मनेरी पहुँच गये। डिडसारी गाँव देख कर मुझे फिर भूकम्प वाली स्थिति याद आई। मैंने कमल को याद दिलाया—याद है बेलक वाली ट्रैकिंग में हमें डिडसारी की महिलाएँ मिली थी। कमल का चेहरा यादों से मुस्कराने लगा। सैंज— लाता पार करते हुए मल्ला भड़वाली पहुँच गये। सूरज अपना रोज का रास्ता पार कर अपने घर जाने को तैयार था। धूप का पीलापन मध्यम हो रहा था। हल्की लालिमा लिए धूप धीरे—धीरे ढल रही थी। भटवाड़ी में हमें पता चला कि अभी रास्ता साफ नहीं हुआ। कमल टैक्सी ड्राइवर के पास जा कर बोला कि यार दोस्त जब तक रास्ता साफ होता है हम पैदल आगे निकल जाते हैं, जब तुम आगे मिलोगे तो हम फिर तुम्हारी गाड़ी में बैठ जायेंगे। टैक्सी को भुक्की तक ही जाना था। टैक्सी वाले को किराया देकर हम दोनों ने अपने पिट्ठू लादे और चल पड़े। कमल बोला इस बार जूते ठीक हैं न, मैं बस मुस्करा दी। ठण्डी हवा के झोकों के साथ पैदल चलने में बहुत मजा आ रहा था। हम बातें करते—करते उस जगह पहुँच गये जहाँ पर सड़क टूटी थी। गाड़ियों की लम्बी लाइन दोनों तरफ लगी थी। हमने सोचा जब तक हमारी टैक्सी वाला यहाँ तक आयेगा हम आगे निकल जायेंगे। हमने लगभग चार किलोमीटर का रास्ता पार कर लिया था। हालांकि मौसम में ठण्ड बढ़ रही थी पर हमें चलने से पसीना आने लगा। दूर गदेरों में सांझ उतरने लगी थी। पौन पंछी शोर मचाते अपने घरों की तरफ लौट रहे थे। तभी टैक्सी वाला आ गया, हमारी सीटें खाली ही थी। हम बैठ गये। ये तो तय था कि आज की रात हमें भुक्की में गुजारनी होगी।
भुक्की पहुँचते अंधेरा हो गया। वहाँ पर उस समय बिजली भी नहीं आ रही थी। हमने सबसे किनारे वाले छोटे से ढाबे में अपने पिट्ठू उतारे और चाय की फरमाइश लगा दी। ढाबे वाला प्रौढ़ सा व्यक्ति था (अब मुझे उसका नाम याद नहीं है) वो बड़े से चूल्हे में दो मोटे—मोटे लकड़ी के तने जलाकर अपने खाने की तैयारी कर रहा था। अब यहाँ पर बारी कमल की थी, अब तक कमल ढाबे वाले भ्ौया से चाय के साथ खाने की जुगत भी लगा चुका था। मैंने चारों तरफ मोमबत्ती की रोशनी में नजर घुमाई। ढाबे के अन्दर एक चारपाई और बिस्तर भी पड़ा था। यहाँ बिजली कब से नहीं आई? तीन दिन हो गये साब! उत्तराखण्ड बनने के ग्यारह साल बाद भी गंगोत्तरी जाने वाली मुख्य सड़क में दी जाने वाली सुविधाओं के ये हाल हैं। देख के निराशा होती है। गरमा—गरम चाय पीने के बाद कमल ने बातें बना कर अपने रहने का इन्तजाम भी वहीं कर दिया। ढाबे वाला बोला बिस्तर तो है नहीं साब, आप होटल में चले जाओ। कमल ने उसे आश्वस्त किया कि हमें बिस्तर की जरूरत नहीं, हमारे पास अपने स्लीपिंग बैग हैं। हम जब भी ऐसी यात्राओं पर होते होटल में रुकने को महत्व नहीं देते थे। स्थानीय लोगों के साथ मिलना—जुलना उनसे बातें करना, उनकी बातें सुनना यही हमारी यात्राओं का मूल था। ढाबे में रहने की बात सुन कर कमल को लगा कहीं मेरा पारा हाई तो नहीं हो रहा है। उसने मेरी तरफ देखा और सब सामान्य स्थिति देखते हुए अपनी आदत के अनुसार जोश में आकर दाहिनी हथेली पर बांयी हथेली को जोर से मारते हुए बोला डन— और उस दिन हम उसी ढाबे वाले के यहाँ जमीन पर बिछी चटाई के ऊपर अपने स्लीपिंग बैग तान कर सो गये। 

थकान और ठण्डा मौसम होने के कारण करीब सुबह सात बजे मेरी नींद खुली। हमें दूर जाना होता तो जोशी जी पाँच बजे से ही तिकतिकाने लगते पर हमें बस थोड़ी ही दूर जाना था। इसलिए सात बजे तक सोने के लिए माफी मिल गयी। ढाबे वाले भाई ने चाय बनाई और कमल ने अपना मनपसन्द फैन भी मांग लिया। करीब आठ बजे हम पिट्ठू उठा ही रहे थे कि एक 14—15 साल की लड़की के साथ एक प्रौढ़ व्यक्ति जिसकी आयु लगभग 35—40 साल तक रही होगी, ढाबे में चाय पीने आये। लड़की दुबली पतली सी साड़ी, कुर्ती और वास्केट पहने थी। उसके गले में लटका तिमणियां (तीन साने के गोलों की लाल दानों वाली माला) बता रहा था कि उसका ब्याह हो गया। मेरा उस बच्ची को देखकर पता नहीं क्यों दिल भर आया। मैंने पिट्ठू जमीन पर रख दिया और गौर से उसे देखने लगी। तभी मेरा दिल बड़ी जोर से धड़का अरे ये बच्ची तो कम से कम चार पाँच महीने की गर्भावस्था में लग रही है। मुझे यकीन नहीं हुआ और मैंने इशारे से उसे अपने पास बुलाया। उसके साथ वाला व्यक्ति कुछ काम से ऊपर बाजार की तरफ चला गया था। मुझे लगा उससे बात करने का ये अच्छा मौका है। यहाँ आ बेटा बैठ जा, कितने बरस की है तू? दिदी 15 बरस की— मैंने उसके पेट की तरफ इशारा किया ब्याह कब हुआ तेरा— दिदी तीन बरस हो गये। ओह तो 12 बरस में लड़की का सत्यानाश कर दिया था उसके माँ—बाप ने। मेरा दिल गुस्से और नाराजी से भर गया। अब कितने महीने हंै? चार पूरे होते हैं दिदी। ये तो मेरा दूसरा बच्चा है। पिछले साल एक बच्चा हो के मर गया। ओह हम तो अपनी 14—15 साल की बच्ची को माहवारी में पैड तक लगा कर देते हैं और एक ये बच्ची है 15 बरस की उम्र में दूसरे बच्चे की माँ बनने वाली है। साथ में तेरे पिताजी हैं क्या, मैंने सोचा आज उस आदमी का दिमाग जरा ठीक करती हूँ। नहीं दिदी वो मेरा आदमी है— हे माँ मैं जोर से बोली कैसा मरा तेरे बाप का, ये क्या किया उसने। दिदी हम बहुत गरीब हंै। मेरा बाबा भी क्या करता। वो धीरे से मेरे पास सरकी और हाथ की आड़ बनाकर कान में बोली— मैंने तो देखना भाग जाना है, रहना थोड़ी है मैंने इसके लिए। जब ये बच्चा हो जायेगा न तब इसे छोड़ कर भाग जाना है मुझे। कहाँ जायेगी! मैंने डर कर पूछा— जाऊंगी न देश। एक लड़का है वो मुझसे ब्याह करेगा। ओह अभी सपने देखने शुरू ही किये हैं इसने। तभी वो बोली मेरे आदमी ने दो ब्याह किये थे पर बच्चे नहीं हुए। तब मुझसे ब्याह किया। बहुत गन्दा है ये, बहुत परेशान करता है। मैंने रहना ही नहीं है इसके लिए। उसने अपने नन्हे सपनों को विश्वास से मुझे शेयर किया। तभी वो आदमी आता दिखा। मैंने उसका नाम पूछा— सुमली और वो अपने सपनों की पोटली मुझे थमा कर बस में बैठकर चल दी।
मैंने कमल से पूरी बात कही, वो भी द्रवित हो गया। मैं सोचती रही— कहाँ जायेगी ये भाग कर। कौन देगा इसका साथ। कहीं किसी ने बेच दी तो? और मेरी सांस अटकने लगी। इतनी प्यारी बच्ची, इतनी छोटी— ये है हमारे देश में औरतों की वास्तविक जगह कि बच्चा पैदा करने के लिए एक प्रौढ़ 12 साल की बच्ची को खरीद लेता है और अपनी गरीबी को दो—चार महीने दूर करने के लिए एक बाप 12 साल की बच्ची को बच्चे पैदा करने के लिए बेच देता है। कहाँ है हमारे महिला विकास के दावे। हम लगातार उस बच्ची और उसकी परिस्थितियाँ, उसके सपनों की बातें करते रहे और उसके भविष्य के लिए डरते भी रहे। हम हर्षिल पहुँच गये थे पर मेरा मन बहुत उदास था। हमने सोचा था दो दिन हम केवल कुछ लिखेंगे उसको एक दूसरे को पढ़ायेंगे, सुधारेंगे। किसी उपन्यास पर गहन बात विमर्श करेंगे और एक नई मानसिक ऊर्जा लेकर लौटेंगे। पर सुमली की स्थिति देख कर उदासी छा गई।
मुझे याद आया कि 16 जनवरी 1986 को मैं और कमल पहले भी हर्षिल आये थे। उस बार हम एस.पी.एफ. (स्पेशल पुलिस फोर्स) के मेहमान बने थे और विल्सन हाउस में रहे थे। मेरे पिताजी पी.ए.सी. में ही पोस्टेड थे इसलिए मैं एस.पी.एफ. के कैम्पस में गई और उनकी वी.आई.पी. मेहमान बनी थी। अब विल्सन हाउस जल गया है। दो बड़ी—बड़ी चट्टानें वैसे ही शान से खड़ी थी जैसे तब विल्सन हाउस के पास खड़ी थी। विल्सन ब्रिटिश आर्मी का भगोड़ा सिपाही था। वो हर्षिल आया और उसने पहली बार टिहरी के राजा से लीज पर देवदार के जंगलों का सौदा किया। भागीरथी में स्लीपर बहाकर उसने हजारों देवदार के पेड़ ब्रिटिश राज्य को बेचे। उसने हर्षिल गाँव की ही एक महिला लाली से शादी की। जंगल से हजारों की संख्या में मोनाल पक्षी मारे और उनके रंग—बिरंगें परों का अंग्रेजों को व्यापार कर अमीर बन गया। मोनाल के परों को अंग्रेज महिलाएँ अपने हैट में लगाया करती थी। विल्सन ने मसूरी में भी एक घर बनाया। हर्षिल में सेव के बगीचों की शुरूवात भी विल्सन ने ही की थी। स्थानीय लोग उसे हूल साब कह कर बुलाते थे। उसी विल्सन के देवदार की लकड़ी से बने आलीशान घर में हम 1986 में रह चुके थे। और ठीक 25 साल बाद मैं और कमल फिर हर्षिल में थे। तब हर्षिल छोटा सा हुआ करता था। अब काफी फैलाव हो गया है। यहाँ भी हमने एक छोटे से ढाबे जैसे होटल में अपने रहने का इन्तजाम किया और बसन्ती दीदी से जो हर्षिल में ही रहती है मिलने चल दिए। पता चला बसन्ती दीदी अभी घर पर नहीं है।
बसन्ती दीदी से मेरी पहचान उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान हुई थी। दीदी यहाँ की बहुत सक्रिय महिला हैं। वो गाँव की महिलाओं के संगठन की अध्यक्ष थी। उनके घर पर न मिलने के कारण हम बागोरी गाँव की तरफ चल दिये। यहाँ पर ठण्डा मौसम था। सेव की फसल टूट गई थी। हर्षिल बाजार में अधिकांश हरे सेबों की पैकिंग चल रही थी। यहाँ की मुख्य फसल राजमा से खेत लदे हुए थे। चौलाई की लाल—लाल बालें हरीतिमा के साथ गजब का मेल बना रही थी। तभी मेरेे कटे हुए बालों को देख कर एक लड़का हमसे आकर बातें करने लगा। मैडम जानती हंै यहाँ राम तेरी गंगा मैली की शूटिंग हुई थी। चलिए आपको उस लोकेशन पर ले जाता हूँ जिस झरने में मन्दाकिनी नहाई थी। मैंने मुस्करा कर मना कर दिया पर कमल तो चीज ही कुछ और है। उस लड़के के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला यार दोस्त जब मन्दाकिनी यहाँ आई थी तब तो तू पैदा भी नहीं हुआ होगा और हम यहीं के हंै दोस्त, परदेशी नहीं हैं। लड़का झेंप गया और बोला ठीक है भाई साहब फिर आप यहाँ क्या करने आये। दोस्त हम दोनों आवारा हैं और आवारागर्दी करने आये हैं। हमने छोटा सा लकड़ी का पुल पार कर बागोरी गाँव में प्रवेश किया। वहाँ पर लगे झण्डे बता रहे थे कि ये बुद्धिस्टों का गाँव है। यहाँ पर जाड़ लोग निवास करते हैं। 1962 से पूर्व इनके चीन और तिब्बत से व्यापारिक सम्बंध थे। ये अपनी लद्दू बकरियों पर सामान लाद कर व्यापार करते थे परन्तु अब कुछ नौकरी पेशा हैं, कुछ ऊन का काम करते हैं।
जाड़ों के दिनों में इस गाँव के अधिकांश लोग डुण्डा चले जाते हैं। इधर के सालों में इस गाँव के अधिकांश परिवार डुण्डा में ही बस गये हैं। या तो उन्होंने गाँव छोड़ दिया है या कभी—कभी बागोरी आते हैं। हम चलते—चलते गाँव के ऊपर एक समतल जगह में बैठ गये। कमल अपनी ट्रैकिंग वाली पानी की बोतल में पानी भर लाया। हमने बाजार से खरीदे सेव खाये। इसी बीच मैंने नवीन जोशी का लिखा उपन्यास दावानल निकाल लिया और कमल से बोली आज इस पर बात करेंगे। सबसे पहले कमल ने मोबाइल निकाल कर नेटवर्क देखा और तुरन्त नवीन जोशी को फोन लगाया। उन्हें बताया कि दावानल की बहुत बड़ी फैन मेरे पास बैठी है और आज हम दोनों इस पर विस्तृत बात करने वाले हैं। वास्तव में दावानल की स्थानीयता, चिपको आन्दोलन से जुड़े मेरे स्नेही परिचित पात्रों ने मुझे उपन्यास से सबसे अधिक आत्मीय बनाया। मैंने उपन्यास के कुछ अंश पढ़ कर सुनाये। दावानल की शुरूवात रतन सिंह रीठा गाड़ी द्वारा गाये एक लोक गीत भंवर उड़ाला बलि से होती है और उपन्यास का अन्त भी इसी गीत से होता है।

इस तरह प्रारम्भ और अन्त ने मेरे अन्तरमन को छू लिया था। हमने इस बात पर बहुत बहस की कि चिपको आन्दोलन कैसे विश्व राजनीति का हिस्सा बन कर केवल पर्यावरण का आन्दोलन बन कर रह गया। आन्दोलन की आत्मा में स्थानीय लोगों की स्थानीय संसाधनों पर निर्भर आजीविका का जो सवाल था वो बड़े—बड़े प्रश्नों के पीछे खो गया। उसके बाद जल—जंगल—जमीन से जुड़े हर आन्दोलन जिसमें स्थानीय लोगों की आवाज शामिल होती है वो ग्लोबलाइजेशन के पीछे खोते जा रहे हैं। ये हमारी चिन्ता का विषय था। कमल और मैं इसमें क्या कर सकते थे। ये हमने तय किया कि हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए जीने लायक स्थितियों को बनाने के लिए हर संघर्ष में साथ रहेंगे। उसके बाद मैंने कामायनी के दो सर्ग पढ़ कर सुनाये और कमल सुनता रहा। उसे दुख हुआ कि उसने अब तक कामायनी को गम्भीरता से क्यों नहीं पढ़ा। कमल ने कामायनी को अपनी लोकगाथाओं से जोड़ने की कोशिश की और गरूड़—गरूड़ी की लोक कथा सुनाई। हम कामायनी और गरूड़—गरूड़ी की कथा के जल—प्लावन का जोड़ बनाते रहे। इतिहास में मानव जन्म को ढूंढते रहे और सूरज ने कहा अब बस अपने ठिकाने लौट जाओ। एक बेहतर समाज में जीने लायक परिस्थितियाँ बनाने के सपने ले कर।

जारी...

और आखिरी बार भिलंगना- गीता गैरोला


जिन महिलाओं के साथ मैंने कई वर्षों तक काम किया, अपने दिन रात गुजारे, दुःख—सुख लगाया, उनके आँसुओं के साथ रोये और उनके सुखों के साथ हँसे। वो महिलाएँ जिन्हें लोग अशिक्षित, अनपढ़ गंवार बोलते हैं और जो मेरा असली स्कूल है। इन्हीं गंवार निरक्षर औरतों ने मुझे जीने का सलीका सिखाया। जीवन के असली अर्थों को मेरे सामने रखा। मुझे भिलंगना ब्लॉक की इन्हीं बहनों की बहुत याद आ रही थी। इन बहनों से अलग हुए मुझे पाँच साल हो रहे थे। महिला समाख्या कार्यक्रम ने 1995 में मुझे पौड़ी जिले में महिलाओं को संगठित करने की जिम्मेदारी दी थी। इसीलिए मैं अपने शुरूआती दौर के काम के दौरान जुड़ी इन बहनों से मिल नहीं पा रही थी।

ये अक्टूबर 1998 की बात हैं। मैं टिहरी के भिलंगना विकास खण्ड जाने के लिए साथ ढूंढ रही थी। गाँव को समझने, उसकी बदली परिस्थितियों को जानने के लिए कमल जोशी से अच्छा कोई साथी नहीं था। सो मैंने बीना के पास अपने बेटे गोलू को छोड़ा, घर की व्यवस्थाएँ की और कमल के साथ टिहरी की तरफ चल दी। ये वही समय था जब टिहरी बाँध को बनाने के लिए टिहरी को खाली किया जाना शुरू हो गया था। टिहरी को बार—बार देखना और वहाँ रह कर उस शहर को महसूस करने का लालच भी साथ ही बना हुआ था। हम कोटद्वार से चल कर ऋषिकेश पहुँचे और टिहरी जाने की बस में बैठ गये। सोचा थोड़ी देर टिहरी में रूक कर भिलंगना की बस मिल ही जायेगी। टिहरी पहुँच कर हमने पिट्ठू बस स्टैण्ड में एक प्रैस में रखे और विघासागर नौटियाल जी से मिलने चल दिये। इत्तेफाक से नौटियाल जी घर पर नहीं मिल पाये। हमने अपने आने का सन्देश पर्ची में लिख कर उनके घर में छोड़ा और बस स्टैण्ड आ गये। वहाँ पर घनसाली जाने के लिए बस लगी थी। ये तय था कि जहाँ तक भी जा सकेंगे, वहीं पर रात को रूक जायेंगे।
घनसाली से एक ट्रक सामान ले कर बूढ़ा केदार जा रहा था। कमल ने ट्रक वाले से बात की और वो हमें बूढ़ा केदार तक छोड़ने को तैयार हो गया। टिहरी से चलते ही बाँध का डूब क्षेत्र शुरू हो गया जो उन दिनों और आज भी हमारी संवेदनात्मक कमजोरी रही है। ये डूब क्षेत्र का पूरा इलाका टिहरी जिले का सबसे उपजाऊ खेती वाला इलाका था। गडोलिया के सेरे, गडोलिया से नीचे थुनगुली गाँव के सेरे सब डूब जायेंगे, सोच के दिल भर गया। नदी आर—पार के जंगल सब डूब जायेंगे। गडोलिया से लगे असेना गाँव की गाड से पत्थर निकालने के कारण पूरा वातावरण धूल से भरा था। पत्थर ढोते ट्रकों ने सड़क में इतने गड्ढे बना दिए थे कि घनसाली चमियाला जाते हुए हमारा ट्रक में बैठना मुश्किल हो रहा था। थाती पहुँचते हमें रात के 7ः30 बज गये। सरजू का घर तो अपना ठिकाना था ही, उसके अलावा बालमी दीदी या धर्मानन्द नौटियाल जी के घर भी आराम से रह सकते थे पर हमें रास्ते में सरजू मिल गई और हमने तय किया कि सरजू के घर ही रहेंगे।
अगले दिन से हमारी पैदल यात्रा शुरू होने वाली थी। सोचा सुबह नहा—धोकर निकल जायेंगे, तो बाकी दिन जैसे भी गुजरे। सरजू और मैं साथ ही काम करते थे। वो हरिजन परिवार की अविवाहित महिला है और पता नहीं क्यों उसने किसी साधू से दीक्षा लेकर सन्यास ले लिया था। उस इलाके में सरजू का बड़ा सम्मान है। ऐसे ही बालमी दीदी भी है जिन्होंने सन्यास ले लिया है। बालमी दीदी महिला समाख्या की सखी (गाँव की समन्वयक) थी। जैसे ही गाँव की महिलाओं को पता चला कि मैं आई हूँ, धीरे—धीरे सब मुलाकात के लिए आने लगी। पहाड़ के आम गाँवों में हरिजनों के घर पर ठाकुर, ब्राह्मण परिवार के लोग नहीं जाते पर इस गाँव की तो बात ही कुछ और है। यहाँ पर लोक जीवन विकास भारती नाम की संस्था काम करती हैं जिसको बिहारी लाल जी संचालित करते हैं। बिहारी लाल जी के पिताजी भरपूरू नागवान, धर्मानन्द नौटियाल जी और थाती के ही बहादर सिंह जी सर्वोदयी थे। भरपूरू नागवान, धर्मानन्द नौटियाल और बहादर सिंह जी ने थाती में एक सर्वोदय परिवार बनाया था। एक ठाकुर, एक ब्राह्मण और एक हरिजन परिवार एक साथ एक घर में रहते थे। बच्चे एक साथ खाते—पढ़ते, थाती गाँव उपजाऊ सेरे वाली खेती के लिए आज भी प्रसिद्ध है। तीनों परिवार की महिलाएँ एक साथ खेती करती, अनाज एक साथ रखा जाता। तीन परिवार एक चूल्हे में खाना बनाते—खाते। ये कहानी मुझे 1994 में असकोट—आराकोट अभियान के दौरान जब हम इसी क्षेत्र में पदयात्रा कर रहे थे तब कमल ने सुनाई थी।
अभियान के सभी यात्री उस समय भी इन तीनों परिवारों से मिल कर गये थे। तब तक ये सर्वोदय परिवार के लोग पुनः अपने—अपने परिवारों के साथ अलग रहने लगे थे। सर्वोदयी संस्था लोक जीवन विकास भारती के अध्यक्ष लस्याल गाँव के दिलीप सिंह जी थे। बूढ़ा केदार मन्दिर में हरिजन प्रवेश के लिए हुए सत्याग्रह में धर्मानन्द नौटियाल जी, बहादर सिंह जी और सुन्दरलाल बहुगुणा जी ने पुरोहितों की मार खाई थी। नौटियाल जी के सिर पर चोट आई थी। सर्वोदयी प्रभाव के कारण ही इस गाँव में हरिजन परिवार के घर में महिलाओं का आना—जाना होता रहता है।
सरजू की बहन और माँ हमारे लिए भोजन की व्यवस्था करने लगी। मैं और कमल तो महिलाओं के साथ बतियाने ही आये थे इसलिए खूब गप्पें लगने लगी। महिलाओं ने ट्टवैष्णव जन तो तैने कहिये’ गाया और साथ ही ट्टजब बन ही गया बहनों का संगठन’ भी गाया। 1989 से 1998 तक के समय अन्तराल के बाद महिलाओं के साथ बात करके बहुत मजा आ रहा था। हम सब लोगों ने मिल कर ट्टन काटा न काटा, त्यौं डाल्यूं न काटा’ गीत गाया। तभी बालमी दीदी हमारे लिए पिण्डालू के पत्तों के पत्यूड़ बना कर ले आई।
उस दिन पता नहीं कितने दिनों के बाद बहुत ही गहरी और चैन की नींद आई। कमल बोला ऐसे ही गाँवों में घूमते मौत आ जाये तो मेरी जिन्दगी सफल हो जायेगी। दूसरे दिन सुबह ही बालमी दीदी के साथ हम आगर की तरफ चल दिये। इन दिनों पहाड़ों में खेत फसलों से खाली हो जाते हैं। ककड़ी पीली—लाल हो कर सूखी बेलों से लटकती रहती है। छतों, खल्याणों(खलिहान) में धान—झंगोरा, मण्डुवा, दालें, मिर्चे सूखती रहती हैं। छतों की धुरपली में लाल कद्दू की कतारें लगी रहती हैं। महिलाएँ जाड़ों के लिए सूखा घास और लकड़ी काट कर जमा करती हैं। पहाड़ी गाँवों में काम हमेशा से जरा कम हो जाता है। घर—घर में पीले नींबू, नारंगी लगे दिखाई देते हैं। आगर गाँव में कमल हमारे साथ 1991 के भूकम्प में तथा 1994 में असकोट—आराकोट अभियान के दौरान भी आ चुका था। 1991 के भूकम्प में आगर गाँव में बहुत नुकसान हुआ था और प्रधान जी की किशोरी बेटी की मलबे में दबने से मृत्यु हो गई थी। उसी साल रामलीला में प्रधान जी की बेटी सीता बनी थी। उस इलाके में ये पहली बार हुआ था कि सीता की भूमिका एक लड़की ने निभाई थी। 1991 तक भिलंगना ब्लॉक के गाँवों में हमें साक्षरता शिविर चलाने के लिए आठवीं पास लड़की मिलनी मुश्किल थी। और प्रधान जी की बेटी नवीं में पढ़ती थी।
थाती से आगर तक की चढ़ाई चढ़ते कमल जोशी ने अपनी ट्रैकिंग की भरपूर योग्यता दिखाई और लमालम चढ़ाई चढ़ गये। बालमी दीदी भी आदी थी पर मैं हाँफती—कांपती धीरे—धीरे चढ़ती रही। पीठ में पिठ्ठू तो था ही। गाँव के नीचे ही कमल हमारा इन्तजार करता मिल गया। घास काटती महिलाएँ मुझे पहचानने की कोशिश कर रही थी। मैं सबसे नमस्ते बोलती जाती आओ दीदी घर आओ हमें भूख लगी हैं। खाना तुमने ही खिलाना है ट्टमैं मजाक करती पर वास्तव में ये मजाक नहीं होता’ हम अपने रात्रि निवास और भोजन की व्यवस्था के लिए माहौल बना रहे होते। प्रधान जी को अपना परिचय दिया तो वो पहचान गये। सात साल बीत जाने के बाद भी उनकी पत्नी मुझे और बालमी दीदी को देखते ही अपनी बेटी की याद में रो पड़ी। हमें देख कर गाँव के अन्य लोग भी प्रधान जी के घर में जमा हो गये। हमने भूकम्प कि बात करते हुए काम का जायजा लेने की कोशिश की। जो घर टूट गये थे वहाँ पर टीन की छत वाले घर खड़े थे। जिन घरों में दरारें छोटी थी मरम्मत के बाद भी दरारें चौड़ी दिखाई दे रही थी। लोग सरकार द्वारा किये गये राहत के कार्यों से बहुत असन्तुष्ट थे। गाँव के स्कूलों में लड़कियों की संख्या बढ़ गई थी। गाँव की युवा बहुएँ मुझे देख कर प्रभावित थी और बुजुर्ग महिलाओं को मैं आज भी पहले जैसे बेचारी लग रही थी। मुझे उनका खुद के लिए बेचारी शब्द कहना अन्दर तक गुदगुदा देता है। सच में उन कर्मठ महिलाओं के सामने हम शहरों में रहने वाली औरतें बेचारी तो हैं ही। कुछ घरों में छोटे बच्चे चुलू के ढेले (बीज) फोड़ रहे थे। चुलू की गिरी का तेल इस इलाके में खाने के काम भी लाते हैं। यहाँ चुलू के पेड़ों से जंगल भरे पड़े हैं। तेल के लिए ये बहुत अच्छा संसाधन हैं। गाँव में अभी लोगों का पलायन नहीं दिखाई दे रहा था। पुरुष, युवक नौकरी करने जाते हैं पर वापिस गाँव लौट आते हैं। इस पूरे इलाके में मुख्य दीवाली के ठीक एक महीने बाद वाली बग्वाल (जिसे रिख बग्वाल कहतें हैं) धूमधाम से मनाई जाती है। सारे गाँव के नौकरी पेशा उसी बग्वाल में घर आते हैं। बातचीत के दौरान कमल ने खाने की फरमाइश कर दी। मैंने आँख दिखाई तो बोला यार भूख लगी है तो माँगने में क्या बुराई है। प्रधान जी बोले सही बात है भ्ौजी।
हमारे लिए फौरन भोजन की व्यवस्था हो गई, दाल—भात के साथ घी से भरा कटोरा देख कर मेरे होश उड़ गये। इतना सारा घी खाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। उधर जोशी जी ने आधी कटोरी घी अपने भात पर पलट दी। अपने चिर परिचित अन्दाज में हाथ मलते हुए बोले यार खा ही लेता हूँ, आगे चलने के लिए ताकत बनी रहेगी। गाँव की बहनें बहुत जिद करने लगी कि आज की रात हम उनके गाँव में ही रुकें, पर हमें तो अगले गाँव भी जाना था सो सबसे गले मिल कर बहनों को भरी आँखों से विदा दी और चल दिए। कमल ने मुन्डी के साथ ही हाथ भी हिलाया और बोला यार दुनिया में औरतें ही हैं जो कहीं भी एक दूसरे से जुड़ जाती हंै और रो कर एक दूसरे को विदा करती हंै। इन्हीं के स्नेह और सम्वेदनाओं से दुनिया जिन्दा है। मैं और बालमी दीदी कमल के मुँह से एक सही बात सुनकर एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्करा दिये।

हमारी ये यात्रा लोगों के साथ मिलने—जुलने और अपने पहाड़ों को जीने के लिए थी इसलिए हम बिना कोई अतिरिक्त काम का बोझ लिए गाँवों के साथ, वहाँ के लोगों के स्नेह के साथ, जंगलों, खेतों, पहाड़ों के साथ खुल कर जी रहे थे। रास्ता कहीं उतार, कहीं चढ़ाई, कहीं सीधा था। जंगल में हरे पेड़ों के पत्ते हल्के पीले हो कर झड़ने को तैयार थे। घास कहीं हरी कहीं पिंगलाई मन को मोह रही थी। जहाँ धूप नहीं थी वहाँ पर पाले से गीला और ठण्डा भी था। बालमी दीदी ने मुझे तेजी से कदम बढ़ाने की सलाह दी। उनका कहना था कि हमें उजाले—उजाले गाँव में पहुँच जाना चाहिए। मेड़ मारवाड़ी और निबाव गाँव भिलंगना ब्लॉक के अन्तिम गाँव हैं। यहाँ के लोग गर्मी शुरू होते ही अपने जानवरों को लेकर छानों में चले जाते हैं और ठण्ड शुरू होते ही वापस गाँव लौट आते हैं। ठण्ड की शुरूवात हो रही थी इसलिए गाँवों में चहल—पहल मिल सकती थी। हमने तय किया कि आज टिहरी के अन्तिम गाँव मेड़ में रहेंगे। इस गाँव की अधिकांश छाने गंगोत्तरी से केदारनाथ जाने वाले पुराने पैदल मार्ग में पंगराणा तथा बेलक नामक जगहों में है। बेलक के एक तरफ टिहरी तथा दूसरी तरफ उत्तरकाशी जिलों के गाँव है। खेतों का काम खतम हो गया था। दिन ढलने को तैयार था इसलिए खेतों में महिलाएँ घर जाने की तैयारी में थी।

कमल ने रास्ते में चलती महिलाओं को नमस्कार दीदी बोला और गढ़वाली में बात करने लगा। पहाड़ों में हर पाँचवें किलोमीटर पर बोली का फर्क हो जाता है। यहाँ तो कमल चमोली में बोली जाने वाली गढ़वाली बोल रहा था। वो दोनों महिलाएँ हँसने लगी। उन्हें ये तो लगा कि ये अंग्रेज जैसा दिखाई देने वाला आदमी पहाड़ी बोल रहा है पर बोली समझ में नहीं आई। यही हाल मेरा भी था। मैं पौड़ी में बोली जाने वाली गढ़वाली बोलती हूँ। फिर भी टिहरी—पौड़ी की बोली मिलाकर समझाने लायक बात कर लेती थी। मैंने बोला दीदी आज रात को हम आपके घर रहेंगे। ये सुनकर एक महिला तो चुप हो गई पर दूसरी बहुत खुश हुई और बोली हाँ हाँ चलो—चलो। कमल को लगा चलो इतनी बातें बनाने के बाद रहने खाने की व्यवस्था हो गई तो खुश होकर लबर—लबर बातें बनाने लगा।
बालमी दीदी ने उस बहन से नाम पूछा तो बोली पुलमा नाम है मेरा। मुझे ये नाम बहुत ही अच्छा लगा, इत्तेफाक ऐसा हुआ कि हम जिस छेणी दीदी के घर रहने वाले थे ये महिला उनकी पड़ोसी निकली। छेणी देवी इस पूरे इलाके के महिला मंगल दलों की अध्यक्ष थी और उनका इलाके में बड़ा सम्मान था। लोक जीवन विकास भारती संस्था जो भी काम महिलाओं के साथ करती उसमें छेणी दीदी का ही नेतृत्व रहता था। एक बार दीदी ने इस पूरे इलाके में अखरोट के पेड़ों का रोपण करवाया था। गाँव तक पहुँचते—पहुँचते हम तीन से आठ हो गये। इतने लम्बे अन्तराल के बाद वो बहनें मुझे पहचान नहीं पाई थी और कमल तो हर जगह कौतुहल का विषय रहता ही है। चश्मे की दोनों कमानी पर लटकती डोरी, दाड़ी से भरा मुँह, गले में लटकता कैमरा पता नहीं कितनी जेबों वाली पैन्ट, जैकेट और पीठ पर पिट्ठू बाँधे दुबला—पतला सा लमा—लम लम्बे—लम्बे डग भरता पहाड़ों को चढ़ता ये अजूबा लोगों को बहुत आकर्षित करता, खास तौर पर महिलाओं और बच्चों को। जब वो कमल के मुँह से गढ़वाली सुनते तो उन्हें यकीन ही नहीं होता कि ये व्यक्ति गढ़वाली है।
रात गहराने से पहले झुटपुटे उजाले में हम मेड़ गाँव पहुँच गये। पूरे गाँव के घरों से उजाले की झिरियाँ झांक रही थी। बिजली के बारे में उतनी दूर दराज बात करने का कोई अर्थ नहीं था। घरों से धुएँ की लकीरों के साथ साग छौंकने की अलग—अलग खुशबुएँ आ रही थी, जो पूरे वातावरण को जीवन्त कर रही थी। कुत्ते भौंक कर अपने होने को सिद्ध कर रहे थे। बच्चों के रोने चिल्लाने की आवाजें अंधेरे के साथ घुल मिल रही थी। हम छेणी दीदी के घर पहुँचते इससे पहले ही उन तक सन्देशा पहुँच गया था कि कुछ देशी लोग आपके घर आ रहे हैं। कितनी अजीब बात है न आप पहाड़ों में कहीं भी चले जाइये आपको रहने खाने का ठिकाना आराम से मिल जायेगा और चार छह लोग बातचीत करने वाले हमेशा मिल जायेंगे। महिलाएँ और बच्चों के आकर्षण का केन्द्र अजनबी होते ही हैं।
ठण्ड बढ़ गई थी। हमें बाँज के कोयलों से दहकती अंगीठी के पास बैठने में मजा आ रहा था। होंठ को चिपकाने वाली चीनी डली चाय जिसमें पानी कम और दूध की बहुतायत थी, कमल को डरा रही थी। उसे कम चीनी वाली चाय पीने की आदत है। पर मुझे वो चाय अमृत की तरह लग रही थी सो मैंने सड़ासड़ पूरी गिलास चाय झट से पी ली। आस—पास के घराें से तीन लोग हमें देख कर बैठने आ गये। छेणी दीदी बुजुर्ग महिला थी पर मुझे एकदम पहचान गई और गले लगा कर प्यार किया। बालमी दीदी का तो वो इलाका अपना ही था। दीदी ने मेरे बेटे की खुश खबर ली। खूब बड़ा हो गया होगा न, तब तो छोटा सा था— कहा, और प्रताप नगर, जाखणीधार, जखोली की ढेर सारी बहनों के नाम लेकर, उनको याद करती रही। इसी बात की तो मुझे खुद लगी थी। यही लगाव मुझे खींचकर यहाँ लाया था। मैंने दीदी से कहा कि इस बार केवल आप लोगों से मिलने आ गई हूँ, आपकी याद आ रही थी। दीदी मेरा सिर सहला कर रोने लगी। कमल जोशी जी हमारा स्नेह लगाव और बात—बात पर आँसू ढरकाने को देखकर अभिभूत से बैठे थे। रात को ढेर सारी बातें होती रही अब मेड़ गाँव की लड़कियाँ स्कूल जाती हैं। स्कूल में दो मास्टर हंै पर स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के लिए रहते अब भी एक ही हैंं। एक महीने बहन जी रहती हैं और अगले महीने मास्टर जी। 1994 में भी यही बात कही थी गाँव वालों ने। टिहरी जिले के उस अन्तिम गाँव में आज भी शहर में रहने वाली औरतों के बारे में जानने की जिज्ञासा थी। आज भी वो मुझे ट्टहे राम तुम बेचारी त’ बोल कर गुदगुदा रही थी। रात, ठण्ड और थकान हमें सोने को उकसा रहे थे।

कमल ने इस बीच हुए पंचायत चुनावों के बारे में बात की और उसमें महिलाओं को मिले 33 प्रतिशत आरक्षण के फायदे पूछे। छेणी दीदी को इस बात की जानकारी थी पर बोली ट्टद भुला हमन तब भी यूँ बणूं म घास लाखड़ू काटी और गोर बाछरू धन चैन चराई’, अब भी वही कर रहे हैं। गाँव पलायन से बचा था। नौ लोग बाहर नौकरी करते थे पर बग्वाल में घर लौटने वाले थे। आजीविका भी खेती—पशु और जंगल पर आधारित थी। सड़क बन रही है ऐसा सुना जा रहा था पर कब बनेगी, कौन बनायेगा ये नहीं पता था। औरतों बच्चों का टीकाकरण (जिसे वो लोग धोक्का कह रही थी) करने एक देशी महिला आती हैं कभी चार छः महीनों बाद। जब कोई बहुत बीमार पड़ जाता है तो डॉक्टर उन्होंने घनसाली में ही देखा है। वो किसी बडूनी डॉक्टर की दुकान की बात कर रहे थे। दो दिन पहले ही गाँव में जोंक लगने (डिहाइड्रेशन) से एक छः महीने के बच्चे की मौत हुई थी। ढेर सारी बातें जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैं जब गाँव की महिलाओं के साथ बहुत प्यार और लगाव से बातें करती तो कमल मन्द—मन्द मुस्कराता रहता, और हमारी बातों का आनन्द लेता रहता। इस तरह की छोटी—छोटी बेमकसद की गई यात्रायें मुझे जीवनी शक्ति से भर देती हंै और मैं अपने रोज—रोज के कामों से हुई थकान और ऊब से निकल जाती हूँ। गाँवों के हालातों की वास्तविक तस्वीर भी पता चल जाती है। कमल हमेशा कहता— चाहे हम कुछ कर पायें या नहीं पर अपने लोगों तक पहुँचना और उनकी बात सुनना—समझना भी हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है।

दूसरे दिन हम वापस थाती आये और बूढ़ा केदार के प्राचीन ऐतिहासिक मन्दिर में भी गये। इसी मन्दिर में हरिजन प्रवेश करवाने के लिए ये गाँव, ये पत्थर, ये रास्ते, ये लोग एक बड़े आन्दोलन के गवाह रहे हैं। यहाँ पर सर्वोदय परिवार बना कर रहने वाले वो लोग आज भी मौजूद हंै जिन्होंने समाज—जात से बाहर किये जाने की त्रासदी झेली है। मैं इस गाँव की धरती को बड़े प्यार से छूती हूँ और मेरी आँखें भर आती हैं। लोगों के प्रयासों से समाज के अन्दर कोई परिवर्तन हुआ या नहीं ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है, पर प्रयास और जुनून हमेशा जारी रहना चाहिए जो आज भी मौजूद है और जुनून भी बना हुआ है। कमल जोशी गम्भीरता से कहते हैं। उस जुनून के साक्षी हम दोनों उन सभी लोगों को पलट—पलट के देखते हैं कि शायद फिर आना होगा भी या नहीं और लोक जीवन विकास भारती में बिहारी भाई जी से मिलने चल देते हैं और सचमुच वो हमारी भिलंगना ब्लॉक की अन्तिम यात्रा थी। भिलंगना का पानी तब भी पत्थरों से टकराता बह रहा था, आज भी बह रहा होगा। अब तो यात्राओं में कमल का साथ भी नहीं रहा।

हम अजनबियों के पैरों के निशान कहीं मिट्टी में दफन हो गये होंगे, पर हम कभी वहाँ गये थे उन रास्तों पर चले थे। हमने उन्हें जिया, यही हमारे जीवन की शाश्वत सच्चाई है। वहाँ के लोगों का प्यार आज भी आँखों को नम कर देता है.

- जारी 

Tuesday, December 5, 2017

जंगल और चमकीले तारों वाला आसमान-गीता गैरोला

फोटो- कमल जोशी 

गीता गैरोला दी ने अपने संस्मरण 'प्रतिभा की दुनिया' को नहीं दिए  असल में उन्होंने दिल दिया है प्रतिभा को. यह दिल कब चुपके से वो मुझे दे बैठीं और कब चुरा भी ले गयीं पता ही नहीं चला. अब हम पक्की गुइयाँ हैं. वो मुझसे डांट भी खाती हैं और प्यार वाली झप्पियाँ भी देती हैं. उनकी समूची वार्डरोब पर मेरा कब्ज़ा है, उनके वक़्त पर भी, उनके हर अच्छे बुरे लम्हे पर, और अब उनके लिखे पर भी. उनके इन संस्मरणों से गुजरना दिल के सबसे नाज़ुक हिस्सों को छू लेना है, एक कसक को थाम लेना है, त्वचा की सबसे अंदरूनी सतह में कुछ रेंगता हुआ महसूस करना है. इन संस्मरणों को पढ़ते हुए प्रिय मित्र कमल जोशी की यादों में डूब जाना भी है. शुक्रिया गीता दी- प्रतिभा 

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बरसात बीत रही थी। मौसम में ऊब तारी थी। कहीं दूर निकल जाने को दिल छटपटा रहा था। मैंने कमल को फोन किया, कमल दिल ऊब रहा है चलो कहीं चलते हैं पहाड़ों की तरफ। कमल सुनते ही उछल गया, हाँ हाँ क्यों नहीं। बता कब जाना है। मैं थोड़ी झिझक रही थी। जब एक मौसम से दूसरे मौसम में दिन बदलते हैं उसे अस्थमा का दौरा तेज हो जाता है। मैंने पूछा तुम ठीक हो गये क्या? मैं उन दिनों काठगोदाम में थी और कमल कोटद्वार में। बदलता मौसम उसके लिए बीमारी का मौसम होता। उसने मेरी पूरी बात नहीं सुनी और कब जाना है की रट लगा दी। शायद वो भी बीमारी से ऊब रहा था। वैसे भी पहाड़ों में घूमना उसके अस्थमा के दौरों से बाहर निकलने की अचूक दवा होती। हमने तय किया कि ये पैदल वाली ट्रैकिंग नहीं होगी। हम सुविधा अनुसार कभी गाड़ी और कभी पैदल चलेंगे।

हम राजजात जाने वाले रास्ते पर दुबारा जाना चाहते थे। नन्दा देवी राजजात बीते दो वर्ष हो गये थे। वही रास्ते, वही लोग, वही जगहें दोबारा देखने को मन था। जिन लोगों से राजजात के दौरान मुलाकात हुई उनसे दुबारा मिलना रोमांच पैदा कर रहा था और हम 20 सितम्बर 2002 को पहाड़ों से ऊर्जा लेने अपनी रूटीन जिन्दगी की ऊब खतम करने निकल पड़े। बारिश कम हो गई थी, रास्ते थोड़े कम टूटे होंगे ऐसा अनुमान था। कमल कोटद्वार से चल कर श्रीनगर पहुँचेगा और मैं देहरादून से श्रीनगर। क्योंकि ये जाने पहचाने रास्तों में गाँवों को पार करती ट्रैकिंग थी इसलिए पिट्ठू में स्लीपिंग बैग के अलावा कुछ जरूरी सामान रखे। जूतों का विशेष ध्यान रखा क्योंकि एक बार ट्रैकिंग के दौरान नये जूते मुझे परेशान कर चुके थे। करीब 2 बजे जब मैं श्रीनगर पहुँची तो कमल जोशी जी उमस और पसीने से लथपथ मेरा इंतजार कर रहे थे। हमने तय किया कि जहाँ तक की बस मिलेगी वहीं पर आज का बसेरा होगा। ठीक सामने ग्वालदम जाने वाली बस खड़ी थी। हम दोनों बिना कुछ सोचे बस में चढ़ गये। जगह भी मिल गई। पांच मिनट के अन्तराल के बाद बस चल पड़ी। गर्मी से बेहाल हमने चैन की सांस ली।
अब मैंने कमल की तरफ देखा। मेरा आशय समझ कर वो बोला कि ये बस हमें नारायण बगड़ में छोड़नी होगी। वास्तव में हम गलती से भ्रमवश नारायण बगड़ उतर गये थे। अब कुलसारी जाने के लिए कोई साधन मिल गया तो ठीक नहीं तो देखेंगे। जिस समय हम नारायण बगड़ पहुँचे शाम की परछाइयाँ गदेरों में पसर रही थी पर चोटियों में उजास बाकी था। दिन छोटे होने लगे थे, वहाँ उतर कर हमने एक दुकान में अपना परम्परागत खाजा बन और चाय ली। सामने दो ट्रक खड़े थे। ट्रक के ड्राइवर भी वहीं पर चाय पी रहे थे। देर शाम दो अजनबी लोगों को देख कर उन्हें जिज्ञासा होना स्वाभाविक था। एक ने कमल से पूछा भाई जी कहाँ से आये, कहाँ जाना है। कमल तो गप्पें मारने को हमेशा तत्पर रहता है बोला यार जाना तो कुलसारी था पर अब यहाँ से जाने के लिए क्या मिल सकता है। इत्तिफाक था कि वो ट्रक का कन्डक्टर था और वो लोग सामान लेकर थराली, चैपड़ों तक जाने वाले थे। मेरी तरफ सवालिया नजरों से देखते हुए कमल ने खुश होकर अपने दोनों हाथ जोर से रगड़े और बोला यार भुला तुम लोग अपने ट्रक में हमें कुलसारी तक ले जा सकते हो। ट्रक में जाने की बात को लेकर उसने सहमति के लिए मेरी तरफ देखकर सिर हलाया हाँ या ना। मैंने धीरे से सिर हलाकर अपनी सहमति जताई। हालांकि ट्रक ड्राइवर को देख कर मुझे लग रहा था कि बन्दा या तो अभी से मस्त है या रास्ते में हो जायेगा।
जब हम कुलसारी में उतरे तो शाम खूब गहरा गई थी। आसमान से तारों के झुण्ड अपनी रोशनी से हमें रास्ता दिखाने की कोशिश कर रहे थे। हमने तय किया कि हम कुलसारी नन्दा देवी मन्दिर से लगे मठ में रहने वाली माई जी के साथ रहेंगे। सन 2000 में राजजात जाते समय मैं माई जी के साथ रुकी थी। अंधेरे में अपने दरवाजे पर दो अजनबियों को इतनी रात खड़े देख माई जी जोर से बोली कौन है— मैंने कहा माई जी नमो नारायण, मैं हूँ राजजात के समय आप से मिली थी। आज रात आपका आसरा चाहिए। माई जी ने एक औरत की आवाज सुन कर दरवाजा खोला और पहचानने की कोशिश करने लगी। मैं फिर बोली माई जी बड़ी आस लेकर आये हैं आपके द्वार, अरे आ जा बेटा भीतर आ जा। जूते बाहर ही उतार कर हम अन्दर गये। भूख थी पर झिझक भी थी। सोचा रात गुजार देते हैं, माई जी को परेशान नहीं करेंगे। पर माई जी ने नमक डली मोटी—मोटी घी लगी रोटी और दूध का गिलास हम दोनों को दिया। माई जी ने मुझे अपने पास बुलाया और बातें करने लगी।
आज का पूरा दिन सफर की हड़बड़ी में ही गुजर गया। सुबह पाँच बजे चल देंगे यहाँ से, अंधेरे में कमल की आवाज आई। मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी, अभी तो माई जी से बात करनी बाकी थी। मैं सुबह की उजास होते ही पिन्डर में नहाने के लिए चली गई। आने पर जोशी जी मुँह फुलाये माई जी के पास बैठे चाय सुड़क रहे थे। कुलसारी में त्रिमुखी शिव और दक्षिण काली का मन्दिर है। काली का श्रीयंंत्र भूमिगत है। प्रत्येक राजजात में बलि देने के बाद श्रीयंत्र को निकाल कर पूजा करने का नियम है। पर दो हजार की राजजात में बलिप्रथा पर प्रतिबंध होने के कारण श्रीयंत्र को नहीं निकाला जा सका था।

माई जी अपने साफ सुथरे मठ में अपने आसन पर बैठी हमसे बातें करने लगी। मुझे पता था कि माई जी कहीं पौड़ी की रहने वाली हैं। मैं उनसे गढ़वाली में बात करने लगी। पता चला माई जी रिखणीखाल ब्लॉक की रहने वाली हैं। 1962 में 22 साल की उम्र में उन्होंने सन्यास ले लिया। चार साल भ्ौरवगढ़ी के मन्दिर में रहकर 1966 अप्रैल से कुलसारी में हैं। 22 साल की भरपूर यौवनावस्था में दीक्षा लेकर घर छोड़ने के पीछे कोई बड़ा कारण रहा तो होगा। पहाड़ों में युवा महिलाओं के पति की मृत्यु हो जाने पर महिलाओं की जोगिन बन जाने की घटनाएँ उस समय बहुत आम हुआ करती थी। मैंने माई जी को कुरेदने की कोशिश की। मैतो गौं कख च माई जी। अरे बाबा जोगी का कोई गाँव, कोई मैत, कोई घर नहीं होता। माई जी अपने गंजे सिर पर हाथ फिराते हंसते हुए बोली। मेरा सब यही कुटिया है। बात खतम करने के आशय से माई जी ने चाय के गिलास उठा लिए। कुछ तो बताइये अपनी कहानी माई जी मैंने बात बढ़ाई। अरे क्या बात अर क्य छ्वीं। बस जब औरतों के सारे सहारे खतम हो जाते हैं तो वो सन्यास न लें तो कहाँ जायें। मुझे माई जी की इस बात से सारी कहानी समझ में आ गई। कोई भी औरत स्वेच्छा से दुनियादारी क्यों छोड़ेगी, कुछ तो सामाजिक दुष्कारियां रही होंगी। हमारे समाज में औरतों की जगह ही कहाँ होती है। पता चला माई जी के पति चल बसे थे। ससुराल का दरवाजा बंद हुआ तो मायके आ गई। मायके पर बोझ बनी तो जोगन बन गई। औरतों की इतनी कम जगह होती है हमारे समाज में, कितनी बिडम्बना है।

माई जी अब तक तीन राजजात देख चुकी हैं। 1968, 1987 तथा 2000 की। कमल ने पूछा कि तीनों जातों में आपको क्या फर्क लगा। माई जी बोली 1968 की जात में ज्यादा से ज्यादा 200 लोग रहे होंगे। जात वही जाते थे जिनकी आस्था बलवान होती। 2000 की जात में लोगों के साथ सैलानियों की संख्या बढ़ गई, लगभग 3000 लोगों ने जात में भाग लिया। 1987 वाली जात में कमल भी भाग ले चुका था। उस समय उसने माई जी को नहीं देखा था पर 2000 की जात में जब मैं राजजात में गई तब हम माई जी से मिले थे, खूब बातें की थी। पहले पूरी जात लोक आधारित होती थी। 1987 से प्रशासन व्यवस्थाएं करने लगा है। 2000 की जात में तो स्थानीय प्रशासन ने यात्रियों के रहने की भी व्यवस्थाएँ की थी। हम माई को प्रणाम कर अपने पिट्ठू पीठ में लादे कुलसारी गाँव में आ गये। आसमान में बादलों की चहल कदमी के बीच धूप झांक रही थी। खेत धान—मक्के, ककड़ी और सब्जियों से लकदक थे। सड़क कुलसारी गाँव के बीच से निकलती है। पिण्डारी ग्लेशियर से निकल कर बड़े—बड़े पत्थरों से टकरा कर गरजती पिण्डर नदी के किनारों पर बसे गाँव जंगलों से भरपूर थे। महिलाओं के लिए घास—लकड़ी की समस्या नहीं होगी इन गाँवों में। गाँव के बीच मुझे दो महिलाएँ सड़क पर दिखाई दी। बड़ी उम्र की महिला को दीदी नमस्ते आदतन कहा। दोनों में एक महिला गंगा कुलसारी की बेटी थी और दूसरी उसकी भाभी थी। और उसका नाम नन्दा था। इस इलाके में हर तीसरी लड़की का नाम नन्दा होता है। गंगा का ससुराल ग्वालदम के पास किसी गाँव में था। गाँव में नन्दा देवी की पूजा थी इसलिए गंगा अपने मायके आई थी। मैंने संवाद बढ़ाया। दीदी इस पूरे इलाके में लड़कियों को स्कूल भेजते हैं कि नहीं भेजते। भुलू सब भेज रहे हैं। आठ पास स्कूल तो सब जगह नजदीक हो गये, तो आठ तो पढ़ा ही लेते हैं। बाकी तो जिसके पास साधन है आगे भी पढ़ा लेते हैं। और शादी कितने बरस में करते हैं? दोनों हंस पड़ी—ज्वान होकर, आजकल कौन करता है जल्दी शादी। सब ज्वान होकर करते हैं। इतने में उनकी गाड़ी आ गई और हम चैपड़ों की तरफ चल दिये। उन दोनों को इस बात का बहुत आश्चर्य था कि सड़क होते हम पैदल क्यों जा रहे हैं। शायद हमें बेवकूफ समझ रही होंगी।

जब मैं 2000 की राजजात में आई थी तब सड़क की स्थिति ठीक थी, डामर वाली सड़क थी। डामर अभी भी थी पर जगह—जगह गड्ढे बन गये थे। मुझे अपने शासन—प्रशासन की व्यवस्थाओं पर हँसी आई। कमल समझ गया और बोला अरे अगली जात तक सड़क बन जायेगी चिन्ता मत करो। गाँव से लगभग एक किलोमीटर के बाद हमें रास्ते में दो व्यक्ति मिले जो अपनी रिश्तेदारी में जा रहे थे। कमल ने नमस्कार जी जोर से बोला। वो लोग भी हमारी जोरदार नमस्कार सुन कर मुस्करा दिये। तभी पता चला कि वो तेरहवीं में जा रहे हैं। कमल ने अपने और मेरी राजजात में जाने की बात कही तो वो स्नेह दिखाने लगे। रास्ते में सड़क के किनारे एक लड़का छोटी सी दुकान लगाये चाय बना रहा था। हम चारों वहीं चाय पीने बैठ गये। इस बहाने बात भी होने लगी। चाय पीने के बाद हम पैसे देने लगे तो उनमें से एक व्यक्ति ने कान पर हाथ लगाते कहा— अजी तुम कैसी बात करते हो, हमारे मेहमान हो। घर पर मिलते तो खाना खिलाते, यहाँ पर चाय तो पिलाने दो। पैसे देकर हम पर पाप मत लगाओ। मुझे याद है जब हम जात में आये थे, तब छोटी से छोटी चीज को पैसा देकर लिया था हमने। ये फर्क है 
जब हम बाजार साथ लेकर चलते हैं और जब हम केवल पहाड़ी व्यक्ति बन कर पहाड़ों में जाते हैं।

दिन चढ़ने के साथ धूप ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिये। मैं सड़क किनारे छाया में बैठी दो लड़कियों के पास पिट्ठू खेत की मेड़ पर टिका कर खड़ी हो गई। दोनों स्कूल से घर लौट रही थी। दीना और सुरमा नाम थे उनके। धूप से दोनों के गाल लाल हो रहे थे। उन्हें अभी रास्ते में पड़ने वाले अपने खेत से घास काटकर ले जाना था। इसलिए शर्माती हुई जल्दी से चलने को तैयार हो रही थी। गर्मी से मुझे नीचे तेजी से शोर मचाती बहती नदी में नहाने का मन करने लगा था। अपने मन की बात उन पर थोपती बोली— तुम लोग तो खूब नहाती होंगी न नदी में। अब तक हम लोगों में जरा दोस्ती हो रही थी। उन्हें मेरे कटे हुए बाल और पीठ में लगा पिट्ठू आकर्षित कर रहा था। दीना मेरे पिट्ठू को छूते हुए बोली— अरे नहाने कौन जाता है दीदी— किसे फुर्सत है, हाँ कभी—कभी कोई औरत फाल देने जरूर चली जाती है। मेरा दिल जोर से धड़का। मैंने आश्चर्य से उसे देखा, नदी में कूद कर आत्महत्या करने की करुणा को कितनी सहजता से कह गई लड़की। इतना हरा—भरा घास, लकड़ी, जंगल, खेती, अनाज से सम्पन्न इलाका है, तब भी कौन से कारण हंै कि औरतें आत्महत्या कर लेती हंै। हमने पिण्डर नदी के ऊपर बना पुल पार किया और थराली बाजार पहुँच गये। थराली में काफी बाजार बन गया है। बरसात में आम तौर पर पहाड़ी कस्बों की गंदगी बह जाती है पर थराली के पूरे बाजार में गंदगी बिखरी पड़ी थी। हमने वहाँ से थोड़े सेब खरीदे और जल्दी जल्दी चैपड़ों की तरफ चल दिए।

लो भई चैपड़ो आ गया। हम दोनों ही थक रहे थे और भूख से भी बेहाल थे। राजजात के समय मैं गाँव में नारायण सिंह साह जी के नये बने घर में रुकी थी। हमने चैपड़ो के एक ढाबे में खूब मिर्ची वाली दाल और रोटी खाई। मैंने दही की माँग की तो जोशी लार टपकाते हुए मुझसे आधी दही मांगने लगे। सन् 2000 में जब मैं नारायण शाह जी से मिली थी तब उनके युवा पुत्र की मृत्यु हुई थी और वो लोग बहुत शोक विह्वल थे। इस बार गाँव में उनके घर जाने पर वो खुद तो नहीं मिले पर उनकी पत्नी से मुलाकात हुई, याद दिलाने पर मुझे पहचान भी गई। वो नाराज हुई कि हम होटल से खाना खा के क्यों आये। उन्होंने हमें चाय पिलाई और हम अगले पड़ाव के लिए निकल पड़े।
सड़क पर हमें एक छोटा ट्रक मिल गया जो सीधे मुन्दोली गाँव जा रहा था। ट्रक में हमारे अलावा खिलाफ सिंह भी बैठे थे। सड़कें जगह—जगह टूटी और गड्ढों से भरी थी। चारों तरफ बरसात की गहन हरियाली अपना आंचल फैलाये मन मोह रही थी। अब तक की यात्रा में कमल कम ही बोला था। अस्थमा की दवाइयाँ खाने के बाद बोलने में उसकी जीभ लटपटाती है और सांस भी विषम हो जाती है, वो बस सफर का मजा ले रहा था। बोलने—बात करने की जिम्मेदारी मुझ पर थी। मैंने घने जंगल देख के पूछा— भाई यहाँ पर जंगलों को बचाने के लिए वन पंचायतें भी हैं। खिलाफ सिंह ने बताया हाँ है न। केवल कोट गाँव में सात गाँवों की फोरेस्ट पंचायत है और ये वन पंचायत 1947 में बन गई थी। सन् 2000 के बाद वहाँ जे.एफ.एम. (ज्वाइन्ट मैनेजमेंट) लागू हो गया है, लोग जे.एफ.एम. के बारे में नहीं जानते पर उससे गाँव में पैसा आयेगा ये उन्हें पता है। मैंने सोचा बस अब इनके हाथ से जंगल गया। बातें करते हम मुन्डोली पहुँच गये। मुन्दोली समुद्र तट से 2050 मीटर की ऊंचाई पर बसा घने जंगलों से घिरा खूबसूरत गाँव है। यहाँ तक कच्ची सड़क बन पाई है। दो साल पहले राजजात में भी ये सड़क कच्ची ही थी। यहाँ पर हमें मिलिट्री से रिटायर सुबेदार जी के घर में बैठ चाय—पानी के बाद रात को रूकने का निमंत्रण भी मिल गया।

मुन्दोली से 2 किमी. चढ़ाई पर लोहाजंग गाँव है, पर हमें मुन्दोली में ही रूकना था। मुझे याद आया कि जब हम राजजात में इस गाँव में आये थे तब प्रशासन द्वारा खाने रहने के रेट तय किये गये थे पर गाँव के किसी भी व्यक्ति ने रहने का कोई पैसा नहीं लिया था। मुन्दोली घनी आबादी वाला साफ सुथरा गाँव है।

शाम ढल रही थी, मौसम खूब सुहाना और ठण्डा था। अजनबी लोग खास कर महिला देख कर कुछ महिलाएँ, लड़कियाँ, बच्चे भी आ गये। वो लोग जिस तरह की बोली बोल रहे थे उसमें गढ़वाली—कुमाउंनी दोनों मिक्स थी और मुझे अच्छी गढ़वाली आने के बावजूद समझने में परेशानी हो रही थी। फिर भी मैं सबसे गढ़वाली में ही बात करती रही। कमल को इस बात का एडवांटेज मिल रहा था कि वो चमोली का रहने वाला है। सुबेदार साहब के परिवार वाले बहुत स्नेही थे। मुन्दोली नन्दा देवी राजजात का पड़ाव है। यहाँ पर भूम्या जैपाल देवता का मन्दिर है जिसमें नन्दा देवी की कटार रखी हुई है। गाँव के सभी घरों में लोग रहते हैं। गाँव के कुछ लोग नौकरी करते हैं पर अभी प्रवास से बचा हुआ गाँव है। गाँव की चार महिलाएँ टीचर बन गई हैं? लड़कियाँ घर के कामकाज के साथ स्कूल भी जाती हैं। पर सामान्य तौर पर घर—खेती का काम सम्भालती है? गाँव की महिलाओं ने नन्दा देवी के जागर भी सुनाये। ये हमारी यात्रा का आखिरी पड़ाव था। रात को बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज बारिश शुरू हो गई, पर हम निश्चिन्त थे कि अब कल हमें वापिस जाना है।

(युगवाणी पत्रिका में प्रकाशित)

जारी...

Sunday, December 3, 2017

शेमलेस गर्ल्स



दरवाजा कुछ ज्यादा ही झटके से खुला था. यह बेटू के स्कूल से लौटने का समय था. झटके से दरवाजा खुलने का अर्थ होता है दिन मजेदार बीता। समथिंग एक्ससाइटिंग। उसका चेहरा देख मुस्कराती हूँ कि कानों को पता था कि इनमें कौन से शब्द गिरने वाले हैं. 'मम्मा, इट वाज़ सो एक्ससाइटिंग'. जूते निकालकर फेंके जाने लगते हैं. स्कूल बैग सोफे पर धप्प्प से गिर पड़ता है और उसकी बकबकिया एक्सप्रेस शुरू।

'आज पता क्या हुआ मम्मा, लाइब्रेरी पीरियड था और पढ़ने का बिलकुल मन नहीं था. तो हम सब दोस्त लाइब्रेरी में अपनी स्पेशल आवाजों वाला खेल खेलने लगे. खुसुर-पुसुर स्टाइल में। तुमको तो पता ही है हमारे सात लोगों के गैंग का. खरगोश, बिल्ली, सांप, मछली, चिड़िया, कुत्ता और सुअर की आवाजें. आवाजों के बारे में बताते हुए वो तरह तरह के मुंह बनाकर आवाजें बनाती भी जा रही थी. मेरा पेट हँसते हँसते फटने को था. 'सर को पता चल गयी हमारी शैतानी का। उन्होंने हम सबको लाइब्रेरी के बाहर निकाल दिया. हम कुछ देर बाहर खड़े रहे, सोचते रहे कि अब क्या किया जाए क्योंकि पनिशमेंट को ऐसे वेस्ट तो नहीं कर सकते न? आखिर हम सब बास्केट बॉल खेलने चले गए.'

'अरे वाह, ये तो सच में एक्साइटिंग था' उसके लिए खाना गर्म करते हुए मैंने कहा.

'असली मजा तो अभी आना बाकी है मम्मा। हम लोग धुंआधार खेल रहे थे तभी लाइब्रेरी वाले सर वहां से गुजरे, उन्हें लगा होगा हम पनिशमेंट में बाहर खड़े होंगे, लेकिन जब उन्होंने हमें खेलते देखा तो उनका मुंह ही उतर गया. गुस्से में बोले 'शेमलेस गर्ल्स' और झल्ला के चले गए. उनका वो शेमलेस गर्ल्स कहना अहा, सारा चार्म उसी का था.' वो खुश होकर बता रही थी.

'तुम लोग अपने टीचर्स को कितना तंग करते हो?' मैंने खाना निकालते हुए कहा.

'वो लोग भी कम तंग नहीं करते हमें। अगर हम मुंह बनाये खड़े होते तो उनका ईगो सैटिस्फाइड हो जाता। हम तो खेल रहे थे तो उनकी खल गयी. अब इसमें हम क्या कर सकते हैं. अब तुम ज्यादा ज्ञान मत दो. खाने में आज क्या है?'

मेरे कान में सुअर और सांप वाली आवाजें तैर रही हैं. और उसके चेहरे पर तैरता चार्म भी. पनिशमेंट को रिवार्ड बनाने लेने वाले इन बच्चों के साथ काश मैं भी पढ़ी होती.

हमारे ज़माने में तो क्लास में खड़ा भी कर दिया तो सारा दिन इंसल्टिंग फील होता रहता था. और इस चक्कर में जुटे रहते थे सब काम वक़्त पर निपटाने में. एक रोज मैंने उससे पूछा, 'जब तुमको पनिशमेंट मिलती है तो बुरा नहीं लगता?' उसने बेहद लापरवाही से कहा, 'नहीं, बुरा किस बात का लगना, सबको ही मिलती है पनिशमेंट तो. सब तो दोस्त हैं. आज मेरी बारी तो कल किसी और की. जिसको पनिशमेंट मिलती है बाकी बच्चे उसे लंच में स्पेशल कुछ खिलाते हैं.'

'कोई चिढ़ाता नहीं 'मैंने पूछा।

उसने चश्मे से बड़ी बड़ी आँखों से घूरते हुए कहा,' चिढ़ाता है? किसी को पिटना है क्या?'
उसने आगे जोड़ा, 'जब टीचर बिना गलती के डांटती हैं तब बुरा लगता है, और जब पढाई में लापरवाही होती है खुद से तो डांट न भी पड़े तो भी बुरा लगता है. शैतानी करना तो हम बच्चों का हक़ है न. चाइल्ड राइट उसके लिए पनिशमेंट मिलना तो अच्छी बात है न ?' हंस पड़ी थी वो कहते हुए.

उसका मछली की आवाज़ निकालता मुंह और आवाजें सारा दिन मुस्कुराहटों का सबब बनी रहीं. और उसका वो 'शेमलेस गर्ल्स' पर खिलखिलाना भी.

(किशोरी होती माँ की डायरी)


Friday, December 1, 2017

कोई वीरानगी ठहरती नहीं- देवयानी भारद्वाज


देवयानी का यह लेख (उन्हू लेख नहीं अपने समय को पूरी सच्चाई और ईमानदारी से जिए के साथ आइने के सामने उसका खड़ा होना) ही मेरा उससे प्रथम परिचय है. इस लिखे हुए का सारा जिया हुआ मेरे उससे परिचय से पहले का है. मैं उसके इस लिखे के जिए में से किसी भी लम्हे की गवाह नहीं हूँ. लेकिन उसके शब्दों की जीवन्तता, उसके जिए हुए का ताप और नमी को उसके लिखे हुए को पढ़ते हुए देह पर रेंगते हुए खूब महसूस किया है. इसे जब भी पढ़ा सिसकियों से खुद को बचा नहीं पायी. आज यह लेख देवयानी ने 'प्रतिभा की दुनिया' को देकर इस दुनिया को रोशन किया है. आज के दौर में भले ही हम कितने ही रैडिकल क्यों न हों प्रेम को शादी की ड्योढ़ी पर सर टिकाना ही पड़ता है. फिर कितनी ही आंधियां और तूफ़ान आयें, हम अपने रिश्ते को बचाने के लिए ऐसे-ऐसे जतन करते हैं, जिनके बारे में हमने खुद भी कभी नहीं सोचा था. लेकिन एक रोज जब सारी उम्मीदें चुक ही जायें और अपना ही  फैसला मुंह चिढ़ाने लगे तब क्या हो आखिर? ऐसे हालात में जहाँ एक बड़ा वर्ग घिसटता चला जाता है देवयानी ने अपने ही फैसले से खुद को आज़ाद करते हुए हुए अपना सम्मान भी बचाया और जीने की इच्छा भी. प्रेम के नाम पर अपनी अस्मिता की बलि कब तक दी जा सकती है आखिर. देवयानी भरद्वाज की डायरी के यह कुछ पन्ने जो 'बेदाद-ए-इश्क़, रुदाद-ए-शादी' नामक पुस्तक में संकलित हैं आज यहाँ साझा करते हुए खुश हूँ - प्रतिभा 

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जीवन जब अपेक्षाओं से कमतर मिलता है, तो उसे याद करके भी मन छोटा होता है। बहुत कुछ ऐसा है जिसे याद करना मन छोटा करता है, लेकिन ऐसा भी बहुत कुछ है जो अपेक्षा से ज्‍यादा उदात्‍त रहा। मैं जीवन के उन उदात्‍त पक्षों की बात करना चाहूंगी। बस इतनी सी बात है कि जिन रिश्‍तों में साथ और संरक्षण मिलने की अपेक्षा थी अधिकांश जीवन उन्‍हीं रिश्‍तों में अपने अधिकारों के लिए टकराते हुए बीता। जो लिखने जा रही हूं उसे लिखते हुए किसी के प्रति कोई गुस्‍ताखी नहीं करना चाहती। लेकिन अंदर जो इतना कुछ सुलगता रहता है उसे कहना भी एक तरह की मजबूरी ही है। यह शायद कोई प्रेम कहानी नहीं, बल्कि जीवन के प्रति प्रेम, बराबरी और आजादी के सपने के प्रति प्रेम, उसे पाने की जिद और उसमें टूटने बिखरने की कहानी है। कहने को प्रेम भी किया और जिससे प्रेम किया उसी से विवाह भी किया, उसी प्रेम के लिए घर से भाग कर गई और आखिर एक दिन उस प्रेम से भी भाग आई। लेकिन यह बार-बार का भागना किस बात से भागना था?

मैं कौन-  
पिता - लेखक। मां - गृहस्‍थन। एक बड़ा भाई और एक छोटी बहन । गांव से उठकर आए इस सामान्‍य नौकरीपेशा परिवार में छोटे शहरों में बच्‍चों की जैसी प‍रवरिश होती है उससे कुछ बेहतर ही वातावरण हमने पाया। लेखक पिता और घर में लेखकों-साहित्‍यकारों का आना-जाना और विभिन्‍न कार्यक्रमों में शामिल होना वे अवसर थे जो घर से इतर एक दुनिया की खिड़की हमारे लिए खोलते थे। न्‍याय और बराबरी ऐसे विचार थे जो मुझे इस दुनिया को देखने समझने का चश्‍मा देते थे। अपने इर्द-गिर्द हर छोटी-बड़ी लड़ाई बस उसी के लिए चलती रही। ख्‍वाब तो दुनिया को बदलने के थे, लेकिन जीवन अपनी ही जद्दोजहद में बीतता गया।

जब बारहवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान मेरे लिए आने वाले रिश्‍तों पर विचार किया जाने लगा तो मानो मेरे पांवों के नीचे से जमीन सरक गई थी। पहली बार अपने लड़की होने के नाते गैर बराबरी का प्रश्‍न इतने स्‍पष्‍ट रूप में सामने खड़ा था। मैं अपने जीवन में क्‍या करना चाहती हूं, उसके बारे में मेरी ही राय की कोई अहमियत नहीं थी। यहां तक कि मुझ से पूछा भी नहीं जा रहा था कि मैं अपने आने वाले जीवन के बारे में क्‍या सोचती हूं। क्‍या करना चाहती हूं? कैसा जीवन साथी चाहती हूं? कब शादी करना चाहूंगी? चाहूंगी भी या नहीं चाहूंगी? यह हालात तब थे जबकि बचपन से घर में प्रगतिशील वातावरण मिल रहा था। स्‍कूल में तमाम गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्‍सा लेती थी। मेरी सक्रियता छुपी हुई नहीं थी। पापा के साथ सीधा संवाद नहीं होता था। लेकिन अब ऐसे हालात सामने थे जब आमने-सामने बात करने और उनका प्रतिरोध करने की जरूरत महसूस होने लगी थी। इसका साहस जुटाने में काफी वक्‍त लगा और तब तक संयोग ने ही साथ दिया कि दो बार रिश्‍ते तय कर दिए जाने के बावजूद शादी के अंजाम तक जाने से बची रही। इस बीच कनु के साथ दोस्‍ती में मैंने जाना कि पिता-पुत्री के बीच रिश्‍ते कितने सहज और दोस्‍ताना भी हो सकते हैं। हालांकि अनुभव तो प्रज्ञा दीदी, संज्ञा और रमेश अंकल के रिश्‍तों को देखने का भी था, लेकिन उन्‍हें आमने-सामने देखने का मौका कम मिलता था। कनु को ज्‍यादा करीब से देखा और यह समझ आया कि अगर आपको कुछ अनुचित लगता है तो उस पर सवाल उठाना ही होता है।

तो एक तरफ आगे की पढ़ाई जारी रखने की इच्‍छा और दूसरी ओर यह आशंका कि ग्रेजुएशन पूरी होने तक तो शादी तय कर ही दी जाएगी। इस बीच इतना फर्क जरूर आ गया था कि जिन मसलों पर पापा के सामने मुंह नहीं खुलता था, उन पर अब उनसे बहस करने लगी थी। उस वक्‍त तो यही लगता था कि मेरे प्रगतिशील पिता मेरे जीवन के निर्णयों के बारे में उस तरह प्रगतिशील क्‍यों नहीं। आज लगता है कि उन्‍होंने धुर मरुस्‍थल के एक किसान परिवार से निकल, अपने बूते महानगरीय जीवन में खुद को स्‍थापित किया। उनके मन में उस वक्‍त तक बच्‍चों को लेकर आकांक्षाएं इतनी भर थीं कि उन्‍हें आधारभूत शिक्षा मिले और वे अपनी प्रदत्‍त भूमिकाओं का ठीक से निर्वाह करने लगें। मैं तो अपने परिवार की ऐसी पहली लड़की थी जिसने न सिर्फ स्‍कूल में दाखिला लिया बल्कि स्‍कूल-कालेज की पढ़ाई पूरी कर ली थी। उनके फ्रेमवर्क में वे पूरी जिम्‍मेदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे थे।

हालांकि उस उम्र में पापा के साथ कोई भी बहस भारी चुनौती सी लगती थी। मानो अपना समूचा अस्तित्‍व दांव पर लगा हो। लेकिन उन्‍होंने हमें बहस करने के भरपूर मौके दिए. उन्‍होंने हमें उनके निर्देशों को मानने का आदेश नहीं दिया बल्कि माना कि हम जो चाहते हैं उसमें गलत कुछ नहीं लेकिन उनका परिवेश और पृष्‍ठभूमि हमें अपने जीवन के निर्णय लेने की आजादी नहीं देता। उनकी आशंकाए निर्मूल नहीं थीं, लेकिन हमारे निर्णय भी गलत नहीं थे। वे स्‍वयं पितृसत्‍ता के प्रतिनिधि नहीं थे, लेकिन उसके दबावों से मुक्‍त भी नहीं थे। आखिर हमारी मन-पसंद शादियों की कीमत उन्‍होंने अपने परिवार से बहिष्‍कार स्‍वीकार कर चुकाई। वे अपनी मां और भाइयों के परिवारों के साथ उस सूत्र का टूटना नहीं चाहते थे। लेकिन उस व्‍यवस्‍था में सब एक-दूसरे के आगे विवश होते हैं। एक ऐसी व्‍यवस्‍था जिसके अंदर सब रिश्‍ते मजबूरी के होते हैं, और जो लोगों की असुरक्षा और अकेले छूट जाने के डर पर पलती है। वहां व्‍यक्ति की कोई स्‍वतंत्र सत्‍ता नहीं है तो सर्वजन हित की भी कोई संकल्‍पना नहीं है, बल्कि एक रूढ़ सामुहिकता का ही वर्चस्‍व उसमें बना रहता है। तो बस पिताजी को फतवे मिलने लगे थे, यदि बच्‍चों की शादियां जाति से बाहर हुई तो हुक्‍का पानी बंद। पापा की स्थिति दो पाटों के बीच फंसे व्‍यक्ति की सी थी. वे बच्‍चों के लिए जिन खिड़कियों को खोल आए थे, उन्‍हें बंद भी नहीं करना चाहते थे। वे दोनों तरफ समझाइश की कोशिश करते और इसी दुविधा की कीमत उन्‍होंने दोनों पक्षों के साथ एक तरह के अलगाव के रूप में चुकाई। आज भी उसकी परछाइयां पूरी तरह उनका पीछा छोडती नहीं हैं। खैर, पापा ने उस वक्‍त भरपूर विरोध जताया लेकिन जब भी मैंने दो-टूक निर्णय कर लिया तो मेरा साथ दिया। मम्‍मी ऐसे हर मोड पर अपेक्षाकृत ज्‍यादा उदारता के साथ नए को स्‍वीकारने के लिए तैयार नजर आई और जीवन की हर मुश्किल घड़ी में भावनात्‍मक संबल बनी रहीं, आज भी हैं।

आज पीछे मुड़ कर देखती हूं तो अफसोस इस बात का होता है कि जिस प्‍यार के लिए मैं इतना दूर निकल आई, उस प्‍यार को उस दूर तक निभाया नहीं जा सका। हमारा समाज और परिवार हमें यह मौका देता ही नहीं कि हम प्‍यार को समझ सकें। क्‍या स्‍त्री और पुरुष के बीच प्‍यार की स्‍वाभाविक परिणति शादी और बच्‍चे ही हो सकते हैं? दोस्‍ती, प्‍यार, रिश्‍ते इस सबके इतने रूढ़ दायरे हमने अपने आस-पास खड़े किए हैं जिनमें सांस लेने की गुंजाइश बहुत कम है। हम एक दायरे को तोड़ते हैं और एक नया दायरा अपने गिर्द खड़ा कर लेते हैं। स्‍तरीकरणों में बंटी सामंती पितृसत्‍तामक व्‍यवस्‍था हमारे सबकांशस पर इस कदर हावी है कि हर कदम पर खुद से ही सवाल करने की जरूरत है। जरा सी चूक और पीछे का बुना सारा ताना-बाना बिखर जाता है।

खुलते वातायन -
वे सर्दी के शुरुआत के दिन थे 1992 के। तब तक बाबरी मस्जिद गिराई नहीं गर्ह थी, लेकिन साम्‍प्रदायिकता का जहर हवाओं में घुलने लगा था। मैं बीकानेर के महारानी कालेज में कला संकाय में बीए तृतीय वर्ष में पढ़ रही थी। पापा-मम्‍मी शहर में नहीं थे इसलिए कभी-कभार हरीश भादानी ताउजी मेरी खोज खबर लेने कनु के घर आते थे। कनु मेरी सहेली जिसके घर में उस बरस मैं रह कर पढ़ाई कर रही थी। हम दोनों की सामाजिक राजनीतिक मसलों में दिलचस्‍पी देख वे अक्‍सर हमें वातायन के दफ्‍तर आने का भी बुलावा दे जाते। कनु विज्ञान की छात्रा थी और पढ़ाई के दबाव के चलते समय नही निकाल पाती, लेकिन मेरी अभिरुचियां मुझे वहां खींच ले जाने लगीं। वहीं मेरी मुलाकात शिवकुमार और मूलचंद नाम के दो युवाओं से हुई। मूलचंद पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे और साथ ही बड़ी-पापड़ के अपने कुटीर उद्योग को भी संभालते थे। शिवकुमार बीए के दूसरे साल में थे और पेंटिंग के भी छात्र थे। वे कविता भी लिखते। हम तीनों घंटों आपस में बहसों में उलझे रहते। शिवकुमार का सौम्‍य व्‍यक्तित्‍व जिस तरह की छवि रच रहा था मैं उसके मोह में बंधती जा रही थी। साथ बैठ कर वातायन के लिए रचनाएं चुनना, उन पर चर्चा करना, वातायन में आने वाले तमाम वरिष्‍ठ रचनाकारों से मिलना, हरीश जी की दी नई पुरानी किताबों को पढ़ना, किस्‍से सुनना इस सब के बीच जीवन की दिशा बदलने लगी।

इस बीच बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। शहर में सभाओं का माहौल था। बहसों का माहौल था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने राजनीति में धर्म के हस्‍तक्षेप पर बहस करवाई, जिसमें मैंने भागीदारी की। धर्म के दखल का पुरजोर विरोध किया और पहला पुरस्‍कार जीता। इसी बीच शिव ने शहर की इकलौती कला गैलरी में अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाई और शहर के तमाम संस्‍कृतिकर्मी इसे देखने पहुंचे। प्रदर्शनी पर मैने समीक्षा लिख कर यहां-वहां भेजी और वह कई जगह प्रकाशित भी हुई। हम दोनों ही अपनी पढ़ाई में मदद के लिए अक्‍सर मधुलिका दीदी के पास भी साथ-साथ जाने लगे। वे शिव के कालेज में व्‍याख्‍याता थी और मेरा उनके साथ परिचय पापा के जरिए पहले से था। वे भी वातायन में काम में सहयोग किया करती थीं। हम जब उनके घर में होते तब कई बार मधु दी हम दोनों को घर में अकेला छोड़ कालेज चली जातीं। पूरे घर में बस हम दोनो होते और अपने-अपने में सिमटे बैठे रहते। उस समय में एक-दूसरे से बात करने का साहस भी जाने कहां हवा हो जाता। बीच की असहजता को तोड़ने के लिए जबरन कुछ बात कर लेते और फिर चुप। लेकिन आस-पास उसकी उपस्थिति सुहाती थी। मधु दी आतीं तो हमारी बातों का सिलसिला फिर शुरू होता। हम दोनों वातायन के काम से सांखला प्रिंटर तो कभी डाकघर या रेल्‍वे स्‍टेशन भी साथ-साथ जाते। बीकानेर जैसे छोटे से कस्‍बे में हमारा यूं साथ घूमना कई लोगों ने नोटिस किया, लेकिन कोई कहे तो क्‍या कि हम डाक साथ डालने क्‍यों गए या प्रेस में किस काम से गए। यहां-वहां से दिल्‍ली में पापा-मम्‍मी के कानों तक भी बातें पहुंचने लगी थीं कि मेरा एक लड़के के साथ मेलजोल बढ़ रहा है। पर सीधे ऐतराज करने जैसा कहीं कुछ था ही नहीं तो कोई कहे भी तो क्‍या? फिर भी हमारी दोस्‍ती को लेकर घर में एक असहजता और चिंता है इसका पता मुझे भी चलने लगा था।

बीकानेर के उन दिनों हम दोनों ने मिल कर अपने स्‍तर पर एक पत्रिका निकालने का भी विचार बनाया। हरीश जी यह कहते कि तुम्‍हें अलग पत्रिका निकालने की क्‍या जरूरत। वातायन है तो सही, तुम उसमें जैसे चाहो वैसे काम करो, लेकिन ऐसा लगता कि कुछ ऐसा होना चा‍हिए जो हमारा अपना हो। युवाओं का हो। कैसा होगा, उसका कोई ठीक-ठाक स्‍वरूप तो मन में नहीं था। फिर शहर के युवा साथियों से रचनाओं का सहयोग मांगा तो उन्‍होंने अपना लिखा पूरा पुलिंदा ही हमें थमा दिया कि छांट लो। इधर परीक्षा भी सर पर थी और वह योजना ज्‍यादा दूर न जा सकी। मुझे परीक्षा के बाद दिल्‍ली लौटना था पापा-मम्‍मी के पास। मैं योजना बना रही थी कि शायद आगे की पढाई जेएनयू या डीयू में करने को मिले, इसी बीच पापा का तबादला जयपुर हो गया। मैं बीकानेर छोड जयपुर आई तो शिव भी स्‍टेशन छोडने आया और उसने अपने बनाए कई चित्र मुझे उपहार में दिए। पहले भी वह अपने कई चित्र मुझे भेंट कर चुका था। हम अच्‍छे दोस्‍त थे और एक-दूसरे को पसंद भी करते थे, अब तक इसके इतर रिश्‍ते या प्रेम की कोई बात हमारे बीच नहीं थीं। लेकिन मैं पसंद करती थी उसे और चाहती थी कि वह भी मुझे चाहे।

जयपुर में राजस्‍थान विश्‍वविदयालय में उसी हिंदी विभाग में पढ़ने के खयाल ने भी रोमां‍चित किया जिसमें खुद पापा ने पढ़ाई की थी। संयोग से हिमांशु और प्रभात जैसे उत्‍साही सहपाठी मिले और पता चला कि विभाग में ही नहीं विभिन्‍न विभागों में फैली एक दोस्‍त मंडली से मैं जुड़ती चली जा रही थी। हम लोग 'वितान' के नाम से विश्‍वविद्यालय में संगोष्ठियां करते, हस्‍तलिखित पत्रिका निकालते और सारे विभागों में घूम-घूम कर उसे लोगों तक पहुंचाते। शहर की अन्‍य गतिविधियों में भी भागीदारी करते। यहां की गतिविधियों के बारे में मैं शिव को पत्रों में लिखती और उसे जब भी जयपुर आने का अवसर मिलता वह यहां आता। मेरे दोस्‍त उसके भी दोस्‍त बनने लगे थे। उस जमाने में वेलेंटाइन डे का शोर नया-नया था। यह शायद 1994 का 14 फरवरी का दिन था। विश्‍वविद्यालय में साथ की लड़कियां वेलेंटाइन के बारे में बातें कर रही थीं और विभाग के बाहर सड़क पर मैं भी उनके ही बीच खड़ी थी। बस यूं ही पीछे नजर घुमाई और सड़क के छोर पर शिव आता हुआ नजर आया। ऐसा लगा जैसे वह शायद आज के दिन कुछ सोच कर ही आया था, लेकिन न उसने कोई फूल उपहार में दिया न उस तरह का कोई जेस्‍चर ही दिखाया। यह अलग बात है कि इस बीच वह मेरे प्रति अपने अनुराग को व्‍यक्‍त करने लगा था और मेरी सहमति का इंतजार करता था। इस बार वह दो-तीन दिन शहर में रहने वाला था और लगभग रोजाना ही हमें मिलना था। उस दिन दोपहर घर की बालकनी में बैठ हम घंटो बतियाते रहे। पास ही दादी बैठ अपनी पैनी निगाहों से हमें ताकती रहीं और उसी के बीच हमने पता नहीं कब कुछ ऐसा एक-दूसरे से कहा कि मेरा मन संभाले न संभलता था और उसके भी पांव जमीन पर न गिरते थे। इस तरह वह मुझ से विदा ले वापस जाने के लिए रवाना हुआ।

इसी साल बीए पूरी होने के साथ ही उसने भी राजस्‍थान विश्‍वविद्यालय के समाज-शास्‍त्र विभाग में एमए में दाखिला ले लिया। इस बीच मैं आकाशवाणी में 'युववाणी' कार्यक्रम की कम्‍पीयरिंग के लिए जाती थी। एमए फाइनल के बीच में ही राजस्‍थान पत्रिका में मेरा चयन बतौर प्रशिक्षु पत्रकार हो गया। घर में लड़कों से मेरी दोस्‍ती, अखबार की नौकरी और दफ्‍तर से देर तक घर लौटना और शादी के प्रसंगों को लेकर पर्याप्‍त तनाव रहने लगा था। इधर भाई ने भी घर में अपने प्रेम का ऐलान कर दिया। उसे कहा गया कि बहनों की शादी होने तक वह विजातीय शादी नहीं कर सकता। पर मैं कहां चुप रहने वाली थी। भाई का घर पर बहसों में ही नहीं कोर्ट और आर्यसमाज के मंदिर तक हर जगह साथ दिया। गांव से संदेश आया लड़के की शादी बाहर कर भी दोगे तो स्‍वीकार लेंगे, पर लड़कियों की शादी बाहर की तो समाज से बेदखल होना पड़ेगा। आखिर भाई की पसंद को परिवार की स्‍वीकृति मिली और उसकी शादी परिवार की सहमति से हुई। पर मेरी शादी को लेकर तनाव बढ़ता जा रहा था। विश्‍वविद्यालय जाने में मेरी रुचि शिव के साथ समय बिताने, दोस्‍तों के साथ होने वाली संगोष्ठियों में शामिल होने के लिए रहती। ‘वितान’ की ओर से नुक्‍कड नाटक होते तो मैं भीड़ में खड़े रहने के लिए भी पहुंच जाती। कोई भूमिका निभाना तो संभव होता ही न था, एक तरफ नौकरी और दूसरी ओर घर के हालात उसमें बस दोस्‍तों के साथ बनी रहती, इतना ही मेरा योगदान होता। जीवन कई दिशाओं में भाग रहा था। एक तरफ रचनात्‍मक अभिरुचियां अपने लिए जगह तलाशतीं। घर-दफ्‍तर-प्रेम-लेखन-समाजिक सक्रियता इस सबके बीच कोई संतुलन नहीं सधता था। जिन सार्वजनिक मंचों पर और लोगों के बीच मैं, शिव और हमारे दोस्‍त आते-जाते वही लोग और जगहें पापा के भी आने-जाने की जगहें होतीं। पापा मेरे लेखन, मेरी सक्रियता से खुश होते, लेकिन उनकी दुश्चिताएं और उनके साथ मेरा टकराव भी अपनी जगह बदस्‍तूर जारी रहे। तब ऐसा लगता था कि शादी होगी और सब ठीक हो जाएगा। हम खुल कर सभा संगोष्ठियों में भाग लेंगे, पढेंगे-लिखेंगे और अपने मन का काम करेंगे।

शादी यानि बगावत- 
मुझ से करीब डेढ़ साल बाद शिव की भी राजस्‍थान पत्रिका में नौकरी लगी और घर में बढ़ते तनावों के चलते 10 सितम्‍बर 1996 को हमने दोस्‍तों के बीच आर्यसमाज में शादी कर ली। कुंतल और कनु तक को शादी में शामिल न कर पाई और कुंतल इस बात से बेहद आहत भी हुई पर नहीं चाहती थी कि पापा एक साथ दोनों बेटियों की ओर से छला गया महसूस करें। हिमांशु और विश्‍वंभर हम दोनों के हाथों लिखी चिटठी लेकर पापा के पास गए। घर में तनाव अपने चरम पर था। संयोग से रामबक्ष जी पापा के पास आए हुए थे, उन्‍होंने पापा को सहारा दिया। हम दोनों दूसरे दिन पापा-मम्‍मी का आशीर्वाद लेने पहुंचे। घर में तनाव का माहौल था। पहली बार पापा ने हम दोनों को सामने बिठा कर बात की। मैं रोए जा रही थी। पापा ने पूछा क्‍यों रो रही है, क्‍या अपने किए का अफसोस है। मैंने कहा नहीं। आखिर तमाम गिले-शिकवों के बाद यह तय किया गया कि पापा-मम्‍मी रिसेप्‍शन कर मुझे विदा करेंगे तब तक मैं घर में ही रहूंगी। लेकिन उस वक्‍त हम दोनों को वापस साथ में विदा किया गया और यह तय किया गया कि अगले दिन शिव अपने मम्‍मी-पापा से बात करने जोधपुर जाएगा और मैं घर आ जाऊंगी। मम्‍मी ने मुझे पायल, बिछुए पहनाए, हाथों में मेंहदी लगा कर विदा किया। इस बीच भाई-भाभी की पहली बेटी के जन्‍म में बस कुछ ही दिन बाकी थे, इसलिए रिसेप्‍शन का समय बच्‍चे के जन्‍म के सप्‍ताह भर बाद 22 सितम्‍बर का दिन तय किया गया।

रिसेप्‍शन और उसके बाद तमाम घड़ि‍यों के अनेक छोटे-बड़े अच्‍छे और कठिन क्षण थे, लेकिन हमने जब सहजीवन शुरू किया तो वह दोस्‍तों ही नहीं दोनों परिवारों के बीच भी मिसाल था। हम दोनों मिल कर रसोई में काम करते और मिल कर ही दोस्तों के साथ गप्‍पबाजी में शामिल होते। शिव पत्रिका में साहित्‍य के पन्‍नों पर अच्‍छा काम कर रहा था, लेकिन उसकी संपादक के साथ गणित ठीक न थी और वह अक्‍सर परेशान होता कि संपादक उसके काम में दखलंदाजी चाहते हैं जबकि वह अपने ढंग से काम करना चाहता। उसकी दूसरी तकलीफ यह भी थी कि नौकरी के चलते वह चित्रकारी के लिए समय नहीं निकाल पाता। मैं कभी शादी के पहले भी उससे कहती रही थी कि कहां जरूरी है कि पुरुष कमाए और औरत घर में रहे। तुम चाहो तो अपने कला कर्म पर ज्‍यादा समय बिता सकते हो और घर चलाने के लिए पैसा तो मैं भी कमा सकती हूं। शादी के लगभग छह माह के बाद हम दोनों की सहमति से शिव ने नौकरी छोड़ दी। अब वह कभी-कभार मिलने वाली परियोजनाओं से जुड़ जाता, लेकिन दीर्घकालीन नौकरी का दबाव उस पर नहीं था। इसी बीच अब तक काले-सफेद रंगों में काम करने वाले शिव के चित्रों में रंगों का प्रवेश हुआ। उसने पेंसिल और क्रेयॉन से कुछ अच्‍छे रंगीन काम भी किए और जयपुर में जवाहर कला केंद्र में उसकी चित्र प्रदर्शनी आयोजित की गई।

कई लोग आए, काम देख कर गए, कुछ ने सराहा, कुछ ने नकारा लेकिन शिव का काम करना बदस्‍तूर जारी रहा। हमारा घर दोस्‍तों का अड्डा था जहां हम हर शनिवार शाम साथ बैठते, एक-दूसरे की कविताएं सुनते और उन पर जबरदस्‍त खिंचाई करते। लेकिन हम दोनों की कविता का मुहावरा भी बदल रहा था। धीरे-धीरे ऐसा भी होता जा रहा था कि दोस्‍तों के इतर सार्वजनिक जीवन में मेरी भागीदारी सिमटती जा रही थी। और शादी के दो-ढाई साल बीतने के बाद तक आते-आते मेरा कविता लिखना लगभग थम गया। शिव का भी लिखना लगभग बंद था। वह अक्‍सर बात-बेबात कहता ''लाइफ स्‍पॉइल हो गई।'' मुझे बुरा लगता, लेकिन धीरे-धीरे आदत हो गई और ऐसा लगने लगा कि वह यूं ही कहता है, दरअसल उसका वह मतलब नहीं है। अब लगता है कि शायद उस वक्‍त वह शादी के लिए तैयार नहीं था, लेकिन मेरी परिस्थितियों के दबाव के आगे शायद पीछे हट नहीं सका। शायद उसे तुरंत ही यह अहसास होने लगा था कि यह उसका इच्छित जीवन नहीं, लेकिन मुझे आहत नहीं करना चाहता था, इसलिए कभी कह न पाया हो। यह सब मेरे अनुमान हैं। वह क्‍या सोचता है यह तो साहचर्य के तमाम वर्षों के दौरान एक पहेली ही बना रहा था। हमने समाज निर्धारित भूमिकाओं से हट कर अपने लिए जीवन चुना तो लेकिन अपनी दुश्चिंताओं पर आपस में बात करने का स्‍पेस नहीं बना पाए। मैंने परिवार की आर्थिक जिम्‍मेदारी संभाली, लेकिन शिव के कुछ बरताव मुझे पसंद नहीं आते थे। मुझे ऐसा लगता कि मेरे प्रयासों को फॉर ग्रांटेड लिया जाता है, लेकिन मैं उससे कह नहीं पाती थी। डर लगता था कि यदि बदली हुई भूमिका को चुना है तो इसका अहसास या गिल्‍ट उसे न दूं कहीं। उसके अहम को ठेस न पहुंचे। आज सोचती हूं कि अहम और ठेस की चिंता में यदि उस वक्‍त टकरावों को टाला न होता तो शायद ज्‍यादा ईमानदार जीवन जीया होता। यहीं अपने प्रगतिशील और पितृसत्‍तात्‍मक संस्‍कारों, अपने कांशस और सबकांशस के बीच के टकराव को देख पाती हूं।

सार्वजनिक जीवन में अधिक सक्रियता की चाह रखती थी लेकिन नौकरी के अलावा मेरा जीवन घर की चहारदीवारी में सिमटता जा रहा था। शिव ने कभी प्रत्‍यक्ष मुझे कहीं भागीदारी करने से मना किया हो, ऐसा नहीं था। लेकिन उसने कभी बढ़ कर मुझसे साथ चलने का आग्रह भी नहीं किया। ऐसे कार्यक्रम अक्‍सर शाम में होते और वह मुझे कहता तुम दिनभर की थकी होगी, आराम करो मैं जा कर आता हूं। वैसे भी कार्यक्रम कुछ खास नहीं। सब दोस्‍त जा रहे हैं, इसलिए मैं भी जा रहा हूं। मैं सोचती, लेकिन दोस्‍त तो वे मेरे भी हैं। हर बार यह याद दिलाने का लेकिन मन नहीं करता था। और यह सच भी था कि दिन भर की थकी होती थी, लेकिन सार्वजनिक सक्रियता मुझे नहीं थकाती जिससे ज्‍यादा इस तरह के संवाद थकाते और इन पर बहस करने का इरादा थकाता था।

धीरे-धीरे दोस्‍तों की शनीवारीय बैठकें चाय की बजाय शराब की पार्टियों में बदलने लगीं और नियमितता भी जाती रही। हम दोनों की कविता का मुहावरा बदल रहा था। आज इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि हम दोनों कहीं अपने भीतर यह जान रहे थे कि कुछ गड़बड़ है, लेकिन उसे जिस वक्‍त समझना और सुलझाना चाहिए था उस वक्‍त व‍ह पता नहीं किन दूसरी बातों के बीच गुम होती चली गई। परस्‍पर संवाद का स्‍पेस लगभग नदारद था। सारी बातें दोस्‍तों के बीच ही होतीं। मैं दफ्‍तर से लौटती और वह घर से निकल जाता, सारे दिन घर में रहने की ऊब से थका-हारा। मैं प्रतिरोध नहीं कर पाती। मुझे समझ ही नहीं आता कि मैं उसके पर्सनल स्‍पेस में कैसे दखल दूं। यह भी नहीं समझ आता था कि मेरा स्‍पेस और मेरे च्‍वॉइसेज के साथ क्‍या हो रहा है। छोटी-छोटी बातों को जीवन के नमक की तरह स्‍वीकार कर लिया था। सारी जद्दोजहद इस बात की रहती कि वो जैसा है, उसे उस रूप में स्‍वीकारूं, लेकिन उस क्रम में मैं जैसी थी उससे बदल रही थी। अपने प्रति वैसे ही स्‍वीकार की जगह मैं नहीं बना पाई।

इस बीच शादी के तीन साल बाद अभिज्ञान का जन्‍म हुआ। एक बार हम दोनों फिर खिल गए। शिव अभिज्ञान को खाना खिलाने से लेकर उसकी नैपी बदलने तक कोई भी काम उसी सहजता के साथ करता जिसके साथ मैं करती थी। उसके इन व्‍यवहारों से ही मैं तो इतनी आच्‍छादित रहती थी कि मुझे कुछ और सूझता ही कहां था और सच कहें तो जो 'पितृसत्‍ता' हम दोनों के सबकांशस में जड़ें जमाए बैठी थी वह हमें परस्‍पर इन ऊपरी व्‍यवहारों के आगे नजर नहीं आती थी।

मैं अपने मातृत्‍व अवकाश के दौर में शिव के माता पिता के पास जोधपुर गई हुई थी। जब लौट कर आई तब एक दिन माफी मांगते हुए उसने बताया कि उसने वे सारे पत्र फाड दिए हैं जो शादी से पहले उसने मुझे लिखे थे। मैं बेहद आहत हुई। लेकिन वह तो माफी मांग चुका था। जब भी किए नए हर्ट पर उस घटना का जिक्र किया उसने कहा तुम मुझे इस बात का कितनी बार गिल्‍ट दोगी। मेरी तकलीफ यह थी कि उसी प्रकृति के दुख यदि बार बार जीवन में आते हैं तो यह कैसे न बताऊं कि यह उसी घटना का दोहराव है। मुझे लगता था पत्र मेरी वह संपत्ति थे, जिस पर किसी और का कोई अधिकार नहीं था।

अभिज्ञान के जन्‍म के कुछ दिन प‍हले से शिव 'दिगंतर' में बच्‍चों के लिए कला का शिक्षाक्रम विकसित करने पर काम करने लगा था। साल भर की परियेाजना थी यह भी। उसने दफ्‍तर में बात की कि उसे दोपहर तीन बजे तक घर लौटना होगा और मैंने बात की कि मैं शाम तीन बजे की शिफ्‍ट में काम करूं ताकि दोनों बच्‍चे को भी समय दे सकें और उसे किसी अन्‍य के भरोसे न छोड़ना पड़े। वह सुबह मेरे उठने तक दफ्‍तर के लिए निकल जाता और रात मैं 9 बजे के करीब घर लौटती तब तक वह सोने की तैयार में होता। साल भर य‍ह व्‍यवस्‍था चली और फिर उसकी परियोजना खत्‍म हो गई। अब फिर वह घर में और मैं दफ्‍तर में।

इन्‍हीं दिनों में अभिज्ञान का पहला जन्‍मदिन आया। उसका जन्‍म मेरे जन्‍मदिन से ठीक एक दिन पहले यानि 12 दिसंबर 1999 को हुआ था। जब उसका पहला जन्‍मदिन मनाया तो सब मेरे जन्‍मदिन के बारे में पूछ रहे थे और मैं कहती अब अभि के जन्‍मदिन में ही मेरा भी शामिल है। शादी के बाद के इन चार सालों में पहली बार मैं अपने जन्‍मदिन पर दफ्‍तर गई। रात को घर लौटी तो पूरा घर अंधेरे में डूबा था। घंटी बजाई तो शिव ने दरवाजा खोला और मुझे गोदी में उठा अंदर कमरे में ले आया। मैं जब तक कुछ समझ पाती घर में सब तरफ रोशनी जगमगा रही थी और घर दोस्‍तों से भरा था। हम सबने खूब देर तक नाच कर उस दिन को सेलिब्रेट किया। जीवन में ऐसे उत्‍सव के कई समय आए, लेकिन रोजमर्रा के जीवन का अपना एक ढर्रा भी होता है।

मैं बच्‍चे के साथ वक्‍त बिताने को तरसती, लेकिन काम करना भी मेरा ही चुनाव था। उसके पास बच्‍चे के साथ बिताने को भी भरपूर समय था और अपनी चित्रकला के लिए भी। लेकिन जल्‍दी ही बच्‍चे की देखभाल उसे थकाने लगी और डेढ साल के अभिज्ञान को हमने क्रेच भेजने का निर्णय किया। मैं ऑफिस जाते हुए उसे क्रेच छोड़ती और लौटते हुए लेकर आती। इसी बीच मुझे प्रेम भाटिया फैलोशिप मिली जिसके तहत मुझे गांवों से शहरों की ओर पलायन पर अध्‍ययन करना था। मैं अपना लिखा शिव के साथ पढ़ना और उस पर बात करना चाहती और वह मुझे कह देता तुम लिख कर रख दो मैं बाद में पढ़ लूंगा। मुझे उपेक्षा महसूस होती, मैं आहत होती, लेकिन उसे यह समझा नहीं पाती कि क्‍यों उसका उसे उस वक्‍त सुनना जरूरी है। मेरे लिए दिन भर की नौकरी से लौटने और रात में जाग-जाग कर बच्‍चे को संभालने के साथ यह अध्‍ययन जारी रखना विशेष श्रमसाध्य काम था और मुझे उसका सहयोग चाहिए था। ‘कम्‍पेनियनशिप’ की ‘स्पिरिट’ की कमी जो मुझे खटकती थी, उसे मैं पहचान नहीं पा रही थी और लगातार पीछे हटती जा रही थी। इस रिश्‍ते में अपने अधिकारों और कर्तव्‍यों को हमने ठीक से परिभाषित नहीं किया था और एक असंतुलन था जो लगातार बढ़ता जा रहा था। हम दोनों के बीच दोस्‍ती और बराबरी के समीकरण बिगड़ने लगे थे। परिवार के सह-जीवन में साझा और व्‍यक्तिगत स्‍पेस को भी हमने ठीक से परिभाषित नहीं किया, आर्थिक और भावनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍वों को भी ठीक से बांटा नहीं था।

हम दोनों का ही कविता लिखना लगभग छूट चुका था। अभिज्ञान के जन्‍म के बाद मेरा अखबार में फिल्‍मों पर लिखना बंद हो गया। छोटे बच्‍चे के साथ मेरे लिए यह संभव नहीं रह गया था। यहां तक कि अन्‍य फीचर लेखन भी लगभग छूट चुका था। उन दिनों मैंने अभिज्ञान के साथ खूब कहानियां पढीं और बुनी भी। छत पर टहलते हुए अंग्रेजी राइम्‍स को अंग्रेजी में गाने के साथ ही उनके हिंदी अनुवाद करके भी गाए। उसके साथ बतियाते हुए मैं अपना बचपन फिर से जी रही थी। जीवन मासूमियत, प्‍यार और ममता से लबरेज था। इस सबमें इतना सुख था कि वाकई कुछ छूटना महसूस नहीं होता था। यह वक्‍त फिर नहीं आएगा, बाकी सबकुछ आगे किया जा सकता था। शिव की पेंटिंग लगातार जारी थी। वह काले सफेद से रंगों पर आया। उसने पेंसिल, पेन, चारकोल और क्रेयॉन के बाद पेंसिल और एक्रेलिक रंगों से काम करना शुरू किया। फिर कैनवास पर काम करना शुरू किया। शुरू में कैनवास तैयार करना भी एक संघर्ष होता, लेकिन हर फार्म को अपनी तरह एक्‍सप्‍लोर करने की उसकी जिद ही उसे रास्‍ता भी दिखाती। फिल्‍म निर्माण में भी उसने हाथ आजमाया।

इसी बीच गिरिराज का जयपुर आना हुआ। शायद 2004 के आस-पास। उसने आग्रह कर मेरी कविताएं सुनने की जिद की, उन्‍हें सुना और सराहा भी। एक दिन पूछा ''आप खुद को एक पोएट के रूप में एसर्ट क्‍यों नहीं करतीं?'' मैंने कहा ''मैं अब कविता लिखती ही कहां हूं!'' उसने फिर पूछा ''क्‍यों नहीं लिखतीं?'' और मेरा जवाब था ''जीवन से शायद इतना संतुष्‍ट हो गई हूं कि लिखने की जरूरत नहीं रही।'' इस तरह ठहाके के साथ वह वार्तालाप तो खत्‍म हुआ, लेकिन गिरिराज के सवाल ने उस दिन से मन में एक बेचैनी को तो जगा दिया था। उसने बाद में मुझे आग्रह कर सहृदय सृजन संवाद से जोड़ा, लेकिन मैं कहीं कुछ भी योगदान कर ही नहीं पाती थी। इसलिए किसी भी मंच से जुडना निरर्थक लगता था। इसी बीच उसने जब प्रतिलिपि शुरू की तो वर्ष 2008 में आग्रह कर वितान के सभी साथियों की रचनाएं प्रकाशित कीं। मेरी कविताएं तब तक आखिरी बार 1998 में कथन में प्रकाशित हुई थीं। बीच के सालों में लिख भी रही थी, तो इस तरह फुटकर डायरियों के पन्‍नों में पडा रहता था, जिसकी ओर खुद मेरा भी ध्‍यान नहीं गया था। जब गिरिराज ने आग्रह कर रचनाएं मांगी और यह भी कहा कि आप बेशक पहले छपी हुई ही दीजिए, लेकिन वितान के सारे कवियों को एक साथ प्रकाशित करना है तो मैंने घर में बिखरी अपनी डायरियों को टटोलना शुरू किया। और मुझे यह देख कर हैरानी हुई कि इन सालों में भी मैं इक्‍का-दुक्‍का कविताएं यहां-‍वहां लिख कर छोड़ देती रही थी। दरअसल मैं उन्‍हें कविता मानती ही नहीं थी, इस बार पढ़ा तो उनमें कुछ खुद ही मुकम्‍मल कविता सी लगीं और मैंने उन्‍हें प्रतिलिपि में भेजा।

डायरियों को इस तरह खंगालने के दौरान मैंने देखा कि अपने फुटकर डायरी लेखन में मैं जगह जगह अपने अकेलेपन, अवसाद, संवादहीनता और टूटन को दर्ज कर रही थी। मैं हैरान थी कि शादी के ठीक बाद से मेरी यह महसूसियत गहराती जा रही थी और शिव की निर्लिप्‍तता बरकरार थी। मेरा लिखना फिर शुरू हुआ । बहुत सारा भावुक और सतही लिखा। ऐसे ही कभी गिरिराज से ही आग्रह किया कि मुझे ब्‍लॉग बनाना सिखाओ और बातों-बातों में मेरे नाम से ब्‍लॉग भी बना डाला। साल भर तक इस पर सिर्फ अधूरी पंक्ति का एक पोस्‍ट पडा रहा। धीरे-धीरे फिर लिखना शुरू हुआ तो उसे ब्‍लॉग पर पोस्‍ट करना भी शुरू किया तो लोगों ने पढ़ना और फॉलो करना भी शुरू कर दिया। इससे संबल मिलता गया और लिखने का सिलसिला फिर चल पड़ा। मेरे लिखने के प्रति शिव लगभग तटस्‍थ रहता। मैं थी कि उसे ही अपना पहला पाठक मानने पर आमादा रहती।

प्रमोद बीते तमाम सालों में बहुत निकट दोस्‍त बनता गया था। मैंने अपनी कविताएं उसे सुनाना शुरू किया और उसने उन पर संजीदगी के साथ बात की। उनकी स्‍ट्रेंथ को रेखांकित किया तो कहां कविता कमजोर होती है उस पर भी बात की। यही वह दौर भी था जब वह खुद भी कई सालों के बाद फिर से लिख रहा था। उसने बेहद सुंदर प्रेम कविताएं लिखी। उसने जिस तरह के बिंबों का इस्‍तेमाल किया वह दुर्लभ है। वैसे भी अब वे सारे दोस्‍त शहर में रहे नहीं थे, और वृहत्‍तर घेरे से मेरा तो संपर्क लगभग समाप्‍तप्राय ही था। ऐसे में कभी-कभार प्रमोद, प्रभात, रवि, कमल आदि दोस्‍तों के साथ कविता पाठ होता वर्ना अपना ब्‍लॉग था जहां अपना लिखा पोस्‍ट कर देती। जैसे-जैसे अपने जीवन पर खुद से प्रश्‍न करना शुरू किया, लिखना भी बढ़ता गया और कुछ हद तक बेहतर भी हु‍आ ही शायद।

लेकिन जीवन को जिस तरह साथ जीना चाहा, वह साथ छूटता जा रहा था। हम दोनों ही तो कुछ बेहतर, कुछ सृजनात्‍मक करते हुए जीना चाहते थे। लेकिन परस्‍पर संवाद का मुहावरा विकसित नहीं कर पाए। हम शायद एक-दूसरे को सुन नहीं पाएं, समझ नहीं पाए। बहुत बरस पहले एक बार हम दोनों ही लवलीन दी के साथ बैठे बातें कर रहे थे तब मैंने कहा था कई बार रात में सोते हुए जब शिव का हाथ थाम लेती हूं तो ऐसा लगता ही नहीं है कि इसके पीछे एक पूरा व्‍यक्ति भी मौजूद है, बस वह एक हाथ भर ही मेरे हाथ में है, ऐसा लगता है। शिव ऐसे रूपकों को सराह देता, लेकिन उसके पीछे की व्‍यथा को नहीं पढ़ पाता था। मैं उसके डिटैचमेंट को महसूस कर रही थी, कह भी रही थी, लेकिन सुना जाए इस तरह कहना मुझे नहीं आया। और शायद कहे गए को कैसे सुना जाए यह उसे भी नहीं आया। उसे लगता मैं शिकायत करती हूं, उसे गिल्‍ट देती हूं, लेकिन यदि मुझे कोई कमी महसूस होती है तो कहने के अलावा उसे व्‍यक्‍त करने का कोई और भी तरीका होता है यह मुझे आया ही नहीं। वह किसी बात के लिए जरा सा असंतोष व्‍यक्‍त कर देता और मैं उस परिस्थिति को बदलने में जुट जाती। मैं अपनी पूरी शिद्दत के साथ अपनी तकलीफ व्‍यक्‍त करती और अंत में इस अहसास के साथ छूट जाती कि मैं उसे गिल्‍ट देती हूं, शिकायत करती हूं, कमियां निकालती हूं। मैं धीरे-धीरे एक झगड़ालू औरत में तब्‍दील हो रही थी। अभिज्ञान से साढ़े आठ साल के बाद 21 मई 2008 को जब दूसरे बेटे अनि का जन्‍म हुआ तब तक हमारा रिश्‍ता पटरी से उतर चुका था।

अपनी बेड़ि‍यां, अपनी आजादी-
मैंने पाया कि मैं लगातार शिव को समझने की जद्दोजहद में अपने और बच्‍चों के जीवन के साथ प्रयोग किए चली जा रही हूं। हर प्रयोग में पूरे मनोयोग से खप जाती हूं, लेकिन उसका असंतोष मिटता नहीं है। मैंने कभी नहीं चाहा बच्‍चे को क्रेच में भेजूं, लेकिन अभिज्ञान को भेजना पड़ा। मेरी नौकरी यदि हमारे अपने ढंग से जीवन को खोजने में बाधा है तो नए सिरे से जीवन की तलाश की जाए, 2004 मैंने नौकरी छोड़ दी। सोचा अपनी तरह से काम करेंगे। स्‍कूली शिक्षा के प्रति असंतोष था इसलिए प्री-प्राइमरी के बाद अभिज्ञान को स्‍कूल से निकाल लिया, 'होम स्‍कूल' किया। कुछ बच्‍चों के साथ अपनी तरह का स्‍कूल बनाने की भी का‍ेशिश की। उम्‍मीद थी कि हम दोनों और कुछ दोस्‍त मिल कर मनचाहे काम और मनचाहे जीवन को जीने के लिए स्‍पेस बना पाएंगे। लेकिन इस दौर में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि मेरा धैर्य छूटने लगा था। बहुत थोडे ही दिनों में यह योजना कुछ कदम चल कर दफन हो गई। तमाम बने-बनाए ढांचों को तोड़ कर देखा, लेकिन जीवन था कि पटरी पर आता ही नहीं था। इस बीच 2008 में अनि का जन्‍म हुआ, और मेरा यह अहसास गहराता जा रहा था कि अब इस रिश्‍ते का निर्वाह संभव नहीं। हम एक ही छत के नीचे बहुत दूर जा चुके थे। मुझे यह समझ आने लगा कि आर्थिक कमान को फिर नियमित करना होगा, यदि खुद को और बच्‍चों को जिंदा रखना है तो उन तमाम व्‍यवस्‍थाओं में लौटना होगा, जिन्‍हें तोड़ कर इतना दूर तक आ गर्इ हूं। शिव से कहती कि मैं इतने छोटे बच्‍चे को छोड़ नौकरी में जाना नहीं चाहती तो जवाब मिलता ''तुम मुझ पर दबाव बना रही हो।'' वह रात को देर तक दोस्‍तों के बीच रहता और दोपहर देर तक सोया रहता। मैं अस्‍त-व्‍यस्‍त जीवन को सम्‍हालने का कोई सिरा नहीं पा रही थी। अभिज्ञान को फिर स्‍कूल में दाखिला कराया और मैं छोटे अनि को लेकर जोधपुर नौकरी करने चली गई। लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आया, बल्कि वे बदतर होते जा रहे थे।

टूटने का एक क्षण ऐसा था कि मैं एक पंडित के कहने पर कालसर्प की पूजा कर रही थी और उदयपुर के पास बेणेश्‍वर धाम में झील में पानी के बीच खडी हो चांदी के सांप बहा रही थी। मुझे सिर्फ इस बात का इंतजार था कि एक बार शिव हाथ थाम कर कहेगा कि ''डी, पागल हो गई हो। यह तुम क्‍या कर रही हो? तुम कब से इन बातों में यकीन करने लगीं?'' लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब पंडित ने चारों तरफ बैठे लोगों के बीच कहा कि ''यह तो यह आदमी है कि आपके जैसी महिला के साथ निबाह रहा है'' तो शिव ने जोर का ठहाका लगाया और मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। मैं बस इतना भर कह पाई कि यह बात ठीक नहीं है। पंडित अपने कहे पर शर्मिंदा हो गया, लेकिन शिव को अहसास नहीं हुआ कि मैं आहत हुई हूं।

मेरी शादी की कीमत मेरे माता-पिता ने अपने परिवार से बहिष्‍कृत हो कर चुकाई थी और उस शादी का विफल होना मेरे लिए एक बदलाव का विफल होना था, अपने पिता से नजर मिलाने का अधिकार खो देना था। मैं यह कैसे भूल सकती थी कि दादी की मौत पर उदास मेरे पिता को उनके भाइयों के बीच बैठने का अधिकार हासिल नहीं हो सका था। लेकिन जीवन है जिसके लिए पिता को छोड़ कर गई उसी के बरक्‍स फिर खड़े होने के लिए भी पिता ही थे, जो मेरे साथ खड़े थे।

अब मेरे लिए यह संभव नहीं बचा था कि दोनों बच्‍चों की जरूरतों को पूरा करने के साथ शिव के खर्चे भी उठा सकूं, मुझे मजबूरन उसे अपने लिए काम तलाशने के लिए मजबूर करना पड़ा। जब तक वह आर्थिक रूप से आत्‍मनिर्भर न हो जाए मैं उससे अलग नहीं हो सकती थी। वे तमाम अपमान जिनके खिलाफ मैं उसके और दुनिया के बीच खड़ी थी वे सारी बातें मैं खुद उससे कह रही थी और वह अपमान से आहत काम की तलाश में चला गया। उसने नौकरी करने के लिए अहमदाबाद शहर को चुना और मेरे जीवन में कभी लौट कर नहीं आया। मुझे उम्‍मीद थी कि शायद काम की जिम्‍मेदारी कोई बदलाव लाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह अपनी आय का बहुत छोटा सा हिस्‍सा घर भेजता और उसमें भी अनियमितता बनी रहती। मैं जब उससे जानना चाहती कि उसका बाकी वेतन कहां खर्च हो जाता है तो वह दो टूक कह देता ''यह जानना तुम्‍हारी गरिमा के अनुकूल नहीं।'' मैं हैरान; सोचती यह व्‍यक्ति जो पिछले पंद्रह बरस मेरे अकाउंट का एटीएम कार्ड अपनी जेब में लेकर घूमता रहा, यदि तब उसकी गरिमा के अनुकूल था तो आज यह पूछना मेरी गरिमा के प्रतिकूल कैसे हो सकता है? वह दो दिन के लिए भी घर आता तो शाम दोस्‍तों के साथ बिताना चाहता। यह जानने में उसकी रुचि न थी कि उसके पीछे दोनों बच्‍चों का और मेरा जीवन कैसे बीतता है। लगातार उपेक्षा, अपमान और गैर जिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के चलते उस रिश्‍ते में मेरी आस्‍था टूटती जा रही थी। मैं हर संभव वह रास्‍ता तलाश रही थी जो उसे परिवार और जिम्‍मेदारी का अहसास कराए।

अखबार की नौकरी के दौरान जो जमीन का एक छोटा सा टुकडा हमने खरीदा था उस पर मकान बनाने की बात भी हम पिछले कई सालों से करते आए थे। बदलते हालात में मुझे यह लगने लगा था कि यदि अब घर न बना तो शायद कभी न बन सके। मैंने उसे एक और पैमाने की तरह लिया। शायद घर बनाने की जिम्‍मेदारी उसे अपने व्‍यवहारों पर सोचने और कुछ जिम्‍मेदारी से पेश आने के लिए समझाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि घर के बारे में हर निर्णय उसके साथ बात करते हुए किया, लेकिन अब मैं यह समझने लगी थी कि निर्णय मुझे ही करने होंगे। उसको यह काम झमेले लगते थे और वह इनमें पड़ना नहीं चाहता था। मैं बस इतना सोचती कि मैं कर लूंगी बस वह साथ रहे। लेकिन उसे शायद ऐसा लगता कि मैं यह जताना चाहती हूं कि मैं उसके बिना भी सब कर सकती हूं। वह घर की नींव रखने के लिए भी नहीं आया। मैं कहती ''अब आ जाओ शिव मैं अकेले कर नहीं पाती हूं इतना सब, थक जाती हूं।'' वह कहता ''एंजाय नहीं कर रही?'' मैं फोन करती और कहती ''तुम्‍हारी याद आती है'' वह कहता ''मत किया करो''। मैं दोनों बच्‍चों के स्‍कूल, अपनी नौकरी, नौकरी के टूर्स, ऑफिस की पॉलिटिक्‍स, जयपुर माहनगर की ओर-छोर दूरियों को लांघते हुए साथ-साथ मकान बनवा रही थी। ठेकेदारों के साथ बहस मुबाहिसे। पापा कुछ समय निकाल कर दिन में काम को देख आते, लेकिन मकान के स्‍वरूप को लेकर उनके और मेरे बीच भी मतभेद और टकराव उभरते ही रहते। मैं घडी की सूई के साथ भागती जाती थी, लगातार पिछड़ती, तन से और मन से टूटती जाती --- बस एक उम्‍मीद कि यह वक्‍त बीत जाएगा। सब ठीक होगा। हम फिर साथ रहेंगे। आखिर तो उसने प्‍यार किया है मुझसे, कभी तो व‍ह प्‍यार फिर उमड़ आएगा। लेकिन टकराव हमारे इस तरह के होते कि धीरे-धीरे यह समझ आने लगा कि अब हम दोनों के बीच वह स्रोत सूख चुका है।

आखिर थक हार कर साइकेट्रिस्‍ट के पास गई । उसने मेरी बातें सुनी और कहा तुम एक डिफिकल्‍ट इंसान के साथ जी रही हो, खुद को बचा लो। तुम उसे न बदल सकती हो न समझा सकती हो। मैंने खुद पर ध्‍यान देना शुरू किया। पहले ही बहुत अपेक्षाएं पाली नहीं थीं, लेकिन अब हर दिन और दो कदम पीछे हटती जा रही थी, ताकि अचानक पीछे लौटना न पड़े। आखिर मकान बन कर पूरा हुआ। मैं वह व्‍यक्ति थी जिसने कभी किसी कर्मकांड में यकीन नहीं किया था। बचपन में मामा को देख किए मंगलवार के व्रत छोड दें तो कोई सोमवार नहीं किया, कभी करवा चौथ जैसे व्रत नहीं किए। लेकिन अब देख रही थी कि परिवार बिखर रहा है। डर लगता था कि लोग कहेंगे मकान बनाने में वास्‍तु का खयाल नहीं रखा या पूजा पाठ नहीं किया। मैंने पंडित बुला कर मकान की नींव रखवाई और पूजा-पाठ के साथ गृह प्रवेश किया। मेरे लिए यह कर्मकांड कोई अर्थ नहीं रखते थे। पहली बार पंडित के कहने पर शिव के पांव छुए। दोस्‍ती, बराबरी, सम्‍मान और प्‍यार यह शब्‍द उस रिश्‍ते में से कूच कर गए थे। फिर एक दिन नए मकान में रहना शुरू करने के बाद जब वह अहमदाबाद से घर आया तो मैंने कहा ''सुनो, मैं जानती थी मकान बनाना तुम्‍हारे मिजाज को मेल नहीं खाता। यह तो मुझे ही बनाना था। क्‍या हम अब भी हमारे रिश्‍ते को फिर संभाल सकते हैं? मुझे कोई शिकायत नहीं तुमसे। बस हम मिल कर अपने परिवार को संभालते हैं।'' वह बिना कोई जवाब दिए चला गया और देर रात को घर लौटा। जिस रिश्‍ते को ठीक नहीं होना था वह न हुआ। उन डीटेल्‍स का कोई मतलब नहीं जो रोजाना यह समझा रहे थे कि बस अब बहुत हुआ। आखिर 4 जून 2013 को हम कानूनन उस रिश्‍ते से आजाद हो गए।

दोस्तियां और रिश्‍ते
शादी के बाद मैंने अपने या शिव के माता-पिता के सामने कभी अपने निजी जीवन के दुख नहीं गाए। यही लगता था कि जब यह निर्णय हमारा था तो उसे जीना भी हमारी जिम्‍मेदारी है। यहां तक कि कभी-कभार दोनों ही परिवार उसके काम न करने पर प्रश्‍न उठाते तो मैं ही बीच में कूद पडती कि यह हमारा निर्णय है और हमें इसमें परेशानी नहीं। ऐसा नहीं था कि शिव के साथ उन परेशानियों पर बात न करती हूं, लेकिन हम आपस में जिम्‍मेदारियों को कैसे परिभाषित करते हैं, वह उस परम्‍परागत फ्रेमवर्क से अलग है ऐसा मुझे लगता था। हालांकि वह हमारे जीवन को किस तरह देखता है यह उसकी बातों से समझ नहीं आता था। बस वह जिस तरह जीता था मैं उसी तरह जीते चली जा रही थी। जब अहमदाबाद चले जाने के बाद भी उसकी तरफ से परिवार के प्रति रुख में कोई बदलाव नहीं आया तो पहली बार मैंने उसके माता-पिता के सामने बात करना चाहा, लेकिन वहां से जवाब मिला अब क्‍यों कह रही हो? तुमने शादी की थी तब ही हमने कहा था। पति-पत्‍नी के बीच कोई और कुछ नहीं कह सकता। आपस के मामले हैं, आपस में सुलझाओ। सास मेरी बात सुनती, रोतीं, लेकिन कुछ कर नहीं पातीं। ससुर कहते कि तुम उसको गुलाम बना कर रखना चाहती हो। उसके परिवार की तरफ से एक पूरी चुप्‍पी अपना ली गई थी। उसके माता-पिता या भाइयों ने मुझे फोन तक करना बंद कर दिया था। छोटा भाई कभी-कभार फोन कर लेता, दुखी होता, लेकिन इससे ज्‍यादा वह कुछ नहीं कर पाता। वह एकमात्र ऐसा व्‍यक्ति था जिसने कहा ''भाभी यदि ऐसे हालात हैं तो आपको अपने जीवन के बारे में सोचना चाहिए। इस उम्र में आकर किसी व्‍यक्ति का रवैया नहीं बदल सकता।'' लेकिन आगे उसे भी वही रुख अपनाना था जो घर के बडों की सलाह थी, लेकिन आज भी कहीं एक भावनात्‍मक स्‍तर पर यह महसूस करती हूं कि शायद उसके मन में मेरे प्रति कोई सम्‍मान शेष है।

दोस्‍त अधिकांश उदास होते, लेकिन उनकी भी विवशता यही कि चालीस के पास पहुंच रहा व्‍यक्ति यदि अपनी जिम्‍मेदारी नहीं समझता तो उसे कोई नहीं समझा सकता। अधिकांश दोस्‍त दोनों के दोस्‍त बने रहे। कुछ का धीरे-धीरे मेरे साथ संवाद बिल्‍कुल खत्‍म हो गया। कुछ का शायद उसके साथ भी नहीं रहा। बहुत कम थे जिन्‍होंने अपनी पक्षधरताएं चुनीं। एक मित्र फेसबुक पर उसके असहाय अकेलेपन पर इस कदर उदास होते कि मुझसे सहा न गया और उन्‍हें बता कर मैंने उन्‍हें ब्‍लॉक कर दिया। उनके पोस्‍ट मेरी मानसिक शांति को भंग करते थे।

प्रमोद हम दोनों के जीवन का अभिन्‍न हिस्‍सा रहा। वितान के वे सारे दोस्‍त जो शादी से पहले कभी कभार मेरे घर भी आया करते थे। वे ही दोस्‍त शादी के बाद घर आते और यदि शिवकुमार घर पर न होता तो वे दरवाजे से ही लौट जाते। मैं आग्रह करती ''शिव नहीं तो क्‍या मैं तो हूं,'' लेकिन वे लौट जाते। इसी तरह किसी दिन प्रमोद भी दरवाजे से लौटने लगा और मैंने कहा ''शिव नही है तो क्‍या मैं तो हूं।'' और प्रमोद रुक गया। हम दोनों ने साथ चाय पी, खूब गप्‍पें लगाई। और उस दिन के बाद कभी ऐसा नहीं हुआ कि प्रमोद शिव के न मिलने पर दरवाजे से लौट गया हो। वह मेरा दोस्‍त, सखा बनता चला गया। वह ऐसा दोस्‍त था जो हम दोनों का एक साथ भी दोस्‍त था और दोनों का अलग-अलग भी उतना ही आत्‍मीय दोस्‍त हमेशा बना रहा। एक ऐसा दोस्‍त जो तलाक के दिन अदालत तक में हम दोनों के साथ था। दोनों से गले मिल रहा था और दोनों को सवाल कर रहा था कि ''तुम लोग ठीक से सोच तो लो कि कर क्‍या रहे हो?'' किसी भी रिश्‍ते को किस उदात्‍तता के साथ जिया जाता है, यह प्रमोद से सीखा जा सकता है। वह अच्‍छे दिनों में भी हमारे व्‍यवहारों पर सवाल उठाता था और कठिन दिनों में भी हमारे साथ रहा। कई बार रात बारह बजे भी जरूरत पडी तो हम दोनों की नहीं जिस किसी भी दोस्‍त ने प्रमोद को फोन किया, यदि प्रामेद शहर में है और वह पहुंचा न हो ऐसा नहीं हुआ। वह एकमात्र ऐसा दोस्‍त है जो यह कह सकता है कि यदि मुझे पक्ष चुनना हुआ तो मैं देवयानी का चुनूंगा। कई बार जब मेरे दोनों बच्‍चे बीमार थे और मुझे दफ्‍तर से घर पहुंचने में देर होने वाली होती तो वह मुझसे पहले वहां पहुंच कर दोनों बच्‍चों को अपनी गोद में सुलाए मिला। मेरी नौकरी के तनाव इतने ज्‍यादा थे कि उसमें मानवीय स्‍पेस की गुंजाइश तलाशना मुश्किल होता जा रहा था तब प्रमोद शहर के ओर-छोर नाप कर कभी अभिज्ञान को उसके मैच के लिए लेने और पहुंचाने जा रहा था तो कभी बच्‍चों को गणित की कठिनाइयां हल करने में मदद कर रहा था। कभी-कभी लगता है कि अगर प्रमोद नहीं होता तब भी क्‍या मैं इतना तनाव झेल पाई होती। दोस्‍ती, प्‍यार और मनुष्‍यता के किसी भी पैमाने पर उसकी कोई बराबरी संभव नहीं। एक ऐसा इंसान जो खुद टूट कर भी आपके साथ बना रहता है।

कमल-अनुपमा, रवि जी ऐसे दोस्‍त हैं जिन्‍होंने अलग-अलग मौकों पर अपने घर आने का निमंत्रण दे कर यह अहसास दिया कि मैं अकेले नहीं हूं। लेकिन कई दोस्तियों के स्‍परूप बदले। कई पुराने दोस्‍त दूर हुए तो कई नए दोस्‍त बने। बिना किन्‍हीं व्‍यक्तिगत संदर्भों के फेसबुक पर दो-एक दोस्‍तों ने जीवन को नए सिरे से समझने में मदद की। किसी दोस्‍त से फोन पर लंबे-लंबे वार्तालाप ने टूटते-बिखरते मन को संभलने में सहारा दिया। पापा-मम्‍मी का घर दूर नहीं और उम्र और स्‍वास्‍थ्‍य की तमाम परेशानियों के बावजूद वे हैं तो जीना आसान है।

अभिज्ञान कब बेटे से दोस्‍त बन गया पता ही नहीं चला। दोनों बच्‍चे बेहतरीन दोस्‍त बनते जा रहे हैं। अपनी-अपनी उम्र से कहीं ज्‍यादा सयाने दोस्‍त। जब रात दिन घड़ी के साथ भागते-भागते निढाल हो जाती हूं, माइग्रेन होता है तो दोनों बच्‍चे मिल कर हाथ, पैर, सर दबाते हैं। अपने प्‍यार से इस कदर भर देते हैं कि थकान जाती रहती है, जीवन से प्‍यार हो जाता है। अभिज्ञान अपने छोटे भाई अनि के लिए एक संरक्षक की भूमिका लेता जा रहा है वह दिल को सुकून से भर देता है।

जो टूटता है मन के भीतर वह यह खयाल है कि पिता होते हुए भी बच्‍चों के जीवन में पिता की उपस्थिति नहीं है। यह वक्‍त इस जद्दोजहद का नहीं कि बच्‍चे पिता से और पिता बच्‍चों से कब और कैसे मिले, बल्कि इस बात का था कि बच्‍चे अपने सपनों के पंख फैलाएं और मां-पिता साए की तरह उनके साथ चलें।

अपने जीवन में कहने को कई दोस्‍त हैं, लेकिन मन के किसी एक कोने में एक वीरानगी छाई है। अपने घर में जब गुलमोहर और कचनार फूलते हैं तो मन के भीतर एक टीस उठती है कि यही तो वह समय था जिसे एक-दूसरे का हाथ थाम कर, कांधे पर सर टिका कर अपने भीतर जज्‍ब कर लिया जा सकता था। लेकिन यह वीरानगी बहुत देर नहीं ठहरती, बच्‍चों के साथ यह मन ज्‍यादातर तो खुशगवार ही रहता है।