Tuesday, November 7, 2017

रास्ते बंद हैं


जैसे  कोई  खाली कनस्तर बजता रहता है भीतर। मैं इस कनस्तर की आवाज़ को सुनने से बचने के लिए तरह तरह के उपाय करती हूँ. तेज़ म्यूज़िक सुनती हूँ, तेज़ आवाज़ में लोगों से बातें करती हूँ, सिनेमा देखती हूँ। लेकिन सब बेअसर। बाहर की आवाज़ें जितनी तेज़ करती हूँ कनस्तर की आवाज़ें उससे तेज़ बढ़ती जाती हैं। कानों में दर्द होने लगा है, इस दर्द से पीछा नहीं छूटता।

रास्ते सब बंद नज़र आते हैं, वो बंद होंगे नहीं जानती हूँ लेकिन मुझे वो बंद नज़र आते हैं. उनकी तरफ देखने का मन नहीं करता, पढ़ने का मन नहीं करता, लिखना तो कबका छूट चुका है, अब उसका छूटना अखरना भी बंद हो गया है. किसी से मिलने का मन नहीं करता, कोई आ जाता है मिलने तो लगता है फंस गयी हूँ, अब बेवजह मुस्कुराना पड़ेगा, दुनिया जहाँ की वो सब बातें करनी पड़ेंगी जिनका असल में कोई मायने नहीं। 'सब ठीक है' की डफली पर बेसुरा राग गाते रहना होगा जब तक वो चले न जाएँ। अगर यह कहूं कि सब ठीक नहीं है तो क्या ठीक नहीं है के सवाल पर फंस जाने का खतरा है. क्योंकि क्या ठीक नहीं है यह तो मुझे भी पता नहीं, लेकिन कुछ भी ठीक नहीं  है यह पता है. कोई कितना भी आपका करीबी हो आप उसे यह ठीक न होना समझा नहीं सकते, लेकिन इसे जीना नियति है. जीवन भार सा मालूम होता है.

यूँ जिंदगी एकदम व्यवस्थित है, सब कुछ तयशुदा खांचों के बरक्स परफेक्ट है फिर भी कुछ है जो गहरे धंसा है, फांस सा. इस फांस को निकालने का भी जी नहीं चाहता, इसकी आदत होने लगी हो जैसे, एक कसक, एक दर्द रिसता रहता है तो लगता है जी रही हूँ. जी रही हूँ यह जानती हूँ हालाँकि जीने की इच्छा को बहुत पहले जी चुकी हूँ, पूरी तरह से. तो यह जो जी रही हूँ यह क्या है आखिर। जीना या जीने का उपक्रम।

अगर कोई इच्छा न हो, आकांक्षा न हो, कोई युद्ध न हो, कोई चाहना न हो, किसी से नाराज़गी न हो तो जीवन कैसा होता होगा। मैं जीवन को जानती हूँ क्योंकि उसे मैंने खूब जिया है, ख्वाब में भी हक़ीक़त में भी. यह जो सरक रहे हैं दिन, रात, ये जो चल रहा है साँसों का चक्र यह जीवन नहीं।

एक दोस्त कहा करता था, जब भीतर बहुत सारा स्पेस बनता है तो नए की गुंजाईश बनती है. मेरे भीतर का यह स्पेस अंतरिक्ष सा विशाल होता जा रहा है, मैं बेसब्री से उस नए के उगने का इंतज़ार कर रही हूँ जिसके बारे में कुछ नहीं जानती।

खाली कनस्तर की आवाज़ से आज़िज़ आ चुकी हूँ. नया उगे न उगे इन आवाज़ों से मुक्ति चाहिए. चाहिए ही. 

1 comment:

गोपेश मोहन जैसवाल said...

प्रतिभा कट्यार का लेखन बहुत सहज है और इसमें हर पाठक के लिए कुछ न कुछ अपनापन होता है. मुझे एक किशोरी और उसकी माँ के बीच आत्मीयता बहुत अच्छी लगी. वाक़ई, दोस्त माँ का होना संतान के लिए सबसे बड़ा वरदान होता है.