Saturday, November 4, 2017

ये मेरे हाथ जो छूते हैं मुझे...


मानस का यह गद्य असल में पढने से पहले मैंने सुना था. एक सामान्य बातचीत में. मानस को शायद पता भी नहीं चला होगा कि बातचीत की वह शाम कितनी पोयटिक हो उठी थी. उसका बोलना असल में उसका सोचना था और उसका सोचना उसका जिया हुआ था. सब में एक लय थी, एक मासूमियत. कविता क्या होती है, कहाँ मिलती है, नहीं जानती, लेकिन मैं जीवन में ऐसी कविताओं को तलाशती रहती हूँ, उन्हें फिर-फिर जीती रहती हूँ. उस शाम मानस से पहली बार कहा था, जो कुछ अभी तुम कह रहे थे उसे लिख सकते हो क्या? वो गहरे संकोच में गड गया था. उसी संकोच में उसने मेरा कहा मान लिया था, थोड़ा वक़्त लगाकर ही सही लेकिन लिख दिया. इस टुकड़े को पढ़ना, उस शाम को बार-बार जीना है और एक ऐसे संभावनाशील युवा के बारे में सोचना जिसमें इतनी गहनता, इतना गाम्भीर्य और इतनी विनम्रता है जो दुर्लभ है. आज पूरे एक साल बाद इस टुकड़े को अपने ब्लॉग पर अपने और दोस्तों के लिए भी सहेज रही हूँ, इस उम्मीद के साथ की मानस अपनी भीतर की यात्राओं में और निखरते रहें. - प्रतिभा  
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एक अजनबी रात में किसी अनजान शहर में खो जाना कैसा लगता है? जब गलियाँ सुनसान हों, दूर दिखने वाली खिड़कियों से आती धीमी रोशनी भी बुझने लगे। दूर कहीं जलते अलाव का धुआँ भी अब हवा से लड़ाई में हार गया हो। आँखों में नींद और पैरों की थकान सामने सड़क पर सो रहे मजदूरों के सपनों से जा उलझी हो। और तब जब कोई अपना न हो? जब आप कहीं न जा सके? जब आपका कोई ठिकाना न हो? क्या यही अकेलापन है? या फिर अपने बिस्तर पर चौंक कर उठ जाएँ आप आधी रात को और खिड़की से छनकर आती पीली रोशनी नहला दे आपके आधे शरीर को। उस अँधेरे कमरे में न रहे कुछ भी, बस एक आत्मा जो देखती है अँधेरा और उस अँधेरे में थोड़ा और अँधेरा।

ये मेरे हाथ जो छूते हैं मुझे, क्या हैं ये मेरे साथी? ये मेरे पैर जो फैले हैं भरे-पूरे मेरे सामने, क्या करेंगे बातें अभी मुझसे? कौन हैं यहाँ मेरा जो दूर करेगा इस रात का अँधेरा? सिर्फ़ अँधेरा। मेरी बातों का कोई अंत नहीं है। कहने को मेरे पास अनगिनत शब्द हैं, पर वाक्य नहीं बनते उनसे। कोई चाहेगा क्या सुनना? अर्थ नहीं बनाते, ज्ञान नहीं देते, मनोरंजन नहीं करते, बस कहते हैं कुछ ये शब्द। कहते हैं ये उस चुप्पी को जो चाहिए मुझे। उस घटना को जो घटी किसी ऐसे समय जब सुप्त था मेरा मानस और कराह रही थी मेरी आत्मा यूँ ही किसी फंदे में फंसे शूकर की आवाज़ में। किसी जंगल में फँसी अकेली, घायल और भूखी प्यासी। आखिर अकेला होना है क्या? मैं अकेले रहता हूँ। किसी जानवर की तरह, खाता हूँ, सोता हूँ, अपने खाने का इंतज़ाम भी करता हूँ, सभी जैविक क्रियाएं करते हुए हर दिन निकाल देता हूँ।

अकेला रहता हूँ, पर अकेलापन नहीं आता कभी। क्यों? क्योंकि मैं जीता ही नहीं हूँ। मैं बस होता हूँ, वह भी होने के लिए। मुझे नहीं पता कि मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। मैं हूँ भी या बस होने का एक विचार हूँ? बात विचित्र है पर अकेलापन अक्सर वहाँ होता है जहाँ उसके अर्थ के हिसाब से उसे नहीं होना चाहिए। ज़िन्दगी के हर छलावे की तरह कहीं किसी छोटे से छिद्र से अचानक ही आता है और फ़ैल जाता है किसी नशीली गैस की तरह। नशा अकेलेपन का, मीठा और विषैला। जान लेने वाला पर क्षणिक जीवन देने वाला। शुरू में कड़वा लगने वाला पर बाद में सबसे स्वादिष्ट बन जाने वाला। 

अकेलापन 'छोटी बहू' के चरित्र की तरह। अकेलापन हमारी संतान, हमसे ही निकला हुआ और हमारा ही एक हिस्सा। और हम, विचारों के गुलाम, बनाने में माहिर, वैध और अवैध संतानें। वैध जब हमारी इच्छा से, रहते हैं हम खुश उसके साथ। लगाते हैं उसे अपने फ़ायदे के कामों में, चाहिए जिनके लिए एकांत। और दिया हुआ दूसरों का, बना अवैध, बिना हमारी इच्छा का। चिढतें हैं हम उससे और परेशान रहते हैं इस अवैध संतान से। करना चाहते हैं उसे दूर क्योंकि हम चाहते ही नहीं थे उसे कभी। पर भला अपनी संतानों को कोई झुठला सका है कभी कोई? कुंती और कर्ण भी नहीं, यशोदा और कृष्ण भी नहीं। पर सबसे बुरा होता है अकेलापन भीड़ का। 

जब हम अकेले होते हैं हज़ारों लोगो के साथ। जब आपके साथ होता है सृष्टि का अकेलापन, युगों का अकेलापन, समय का अकेलापन और स्थानों का अकेलापन। जब आपके साथ होता है ईश्वर का अकेलापन। अकेलापन जो संतान नहीं होता। अकेलापन जो सहवासी होता है आपका। जो रहता है आपके साथ यात्राओं में, घरों में, सड़कों पर, पहाड़ों पर, गाड़ियों में और विचारों में। अकेलापन जो नहीं छोड़ता कभी आपका साथ, कहीं भी, कभी भी। चला जायेगा यह कुछ समय के लिए आपसे दूर, अलग कहीं। पर रहता है हमेशा किसी कोने में खड़ा मुस्कुराता क्योंकि लौट के उसे आना ही है आपके साथ, आपके मर जाने के बाद भी। एक ही साथी जो कभी नहीं छोड़ता हमारा साथ बाकी सांसारिक संबंधों की तरह। और हम चाहते हैं हमेशा इससे पाना छुटकारा। पर क्या संभव है अपनी आत्मा से छुटकारा पा लेना? खुद से छुटकारा पा लेना? अकेलेपन से छुटकारा पा लेना, हमेशा के लिए? मानिये या न मानिये, पर कभी न कभी हम सब अकेले रहे हैं और कभी न कभी अकेले रह जायेंगे। यह प्रश्न भी लग सकता है और उत्तर भी, समस्या भी और समाधान भी, नकारात्मक भी और सकारात्मक भी। पर जो सन्देह से परे है और जो अटल है, वह सत्य है।

4 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सत्य है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (06-11-2017) को
"बाबा नागार्जुन की पुण्यतिथि पर" (चर्चा अंक 2780)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

kuldeep thakur said...


दिनांक 07/11/2017 को...
आप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...

'एकलव्य' said...

सत्य !