Wednesday, July 5, 2017

‘क’ से कमल जोशी:


ये तस्वीर आपके जन्मदिन पर लगाने के लिए चुराकर रखी थी कमल जी. आप इतना रुलाओगे सोचा न था...

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'क’ से कविता, के एक साल पूरा होने के अवसर पर ‘क’ से कटियार साहिबा ‘क’ से कमल जोशी की बधाई लेते हुए आपको ‘क’ से कैसा लग रहा है?!’
ऐसा ही चुलबुला सा संवाद था हमारे दरम्यान जब यह तस्वीर खींची जा रही थी। यह बातचीत सिर्फ खिंचवाई जा रही तस्वीर की खातिर थी, जानबूझकर। न उस रोज़ मंच मेरा था, न कमल जी का। तस्वीर गीता दी ले रही थीं,हम सब इस नाटकीय तस्वीरबाजी पर हंस रहे थे।

कार्यक्रम उम्मीद से ज्यादा अच्छा हुआ और उसके बाद फेसबुक पर तस्वीरों की बाढ़ आ गयी। यह तस्वीर मेरे पास सुरक्षित रही। उन्होंने पूछा भी, ‘प्रतिभा अपनी वो वाली तस्वीर क्यों नहीं लगाई तुमने?!’ मैं उनसे हंसकर कहती ‘धीरज रखो कमल जी, उसे खास मौके के लिए संभालकर रखा है’। मैंने सोचा था उनके जन्मदिन पर एक अच्छी सी पोस्ट के साथ यह तस्वीर लगाकर उन्हें सरप्राइज़ दूँगी। क्या पता था कि सारी तस्वीरें यादें बनकर रह जायेंगी और वो ख़ास मौका ऐसा होगा।

बाहर बादल बरस रहे हैं भीतर न जाने क्या-क्या भीग रहा है। हर मुलाकात, हर चुहल, छेड़छाड़...सब किसी रील सा चल रहा हो जैसे,

मैं उन्हें ज्यादा वक़्त से नहीं जानती थी।सच कहूँ तो उनकी तस्वीरों के पार उन्हें ‘क’ से कविता के ज़रिये ही जाना। वो शहर में होते तो हमारी बैठकों में उनका होना तय होता। कभी जताया नहीं उन्होंने लेकिन कई बार सिर्फ बैठक में शामिल होने के लिए भी आये कोटद्वार से. बेहद जिन्दादिल, खुशमिजाज़ और ऊर्जा से भरे हुए। उन्हें देखकर रश्क होता था। गलती से भी कोई उनके सामने उम्र की बात करे तो तुरंत टोकते थे, ‘मैं युवा हूँ, इन सफ़ेद बालों पर मत जाना’ ऐसा कहकर उनके चेहरे पर जो मुस्कान आती वो दिल जीत लेती। बाइक और कैमरे का साथ उनकी जिन्दगी था।मुस्कान, जिन्दादिली उनके जीने का तरीका। वो अक्सर कहते, ‘तुम मुझे कविता पढना सिखाओगी? मुझे ठीक से कविता का पाठ करना नहीं आता।’ मैं हंस देती यह कहकर कि ‘अच्छा तो पढ़ते हैं आप’।

‘क’ से कविता' देहरादून की जान थे वो। बैठकों की चिंता उन्हें रहती, उन्हें बेहतर करने के लिए वो लगातार सोचते रहते और एक आवाज पर हाज़िर रहते। मुझे याद है ‘क’ से कविता की सालाना बैठक के ठीक पहले हमने प्रेस कॉन्फेंस की थी। एक रात पहले मैंने उन्हें फोन किया कि ‘कमल जी, आप प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए अपने मीडिया के दोस्तों को बोल दीजियेगा’। उन्होंने कहा फ़िक्र न करो! बस मैंने फ़िक्र छोड़ दी। वो उस वक़्त पिथौरागढ़ में थे।

अगले दिन सुबह प्रेस क्लब में मैंने देखा वो सामने से चले आ रहे हैं। मैं चौंक गयी ‘अरे आप, आप तो पिथौरागढ़ में थे न?’ मैंने चौंकते हुए पूछा। उन्होंने हँसते हुए कहा, ‘तो क्या हुआ, अब यहाँ हूँ।मुझे लगा मुझे यहाँ होना चाहिए तो आ गया बस’ इतनी सहजता, इतना लगाव!

सालाना बैठक में एक वक़्त आया जब देहरादून के सभी साथी मंच के नीचे थे और देहरादून के बाहर से आये सभी साथी मंच पर थे। नरेंद्र सिंह नेगी जी भी मंच पर थे, अरुण देव भी, मनीष गुप्ता भी, गोपी भी और उत्तराखण्ड की तमाम अलग-अलग जगहों से आये ‘क’ से कविता के साथी भी। लेकिन कमल जी मंच पर नहीं गए। बाद में उन्होंने मुझसे एकांत में चुपके से कहा ‘जानती हो, मैं मंच पर क्यों नहीं गया, क्योंकि मैं तो देहरादून की टीम का हूँ न?’ उनके प्रेम पर आँखें भर आई थीं उस रोज़।
उनसे हुआ यह लगाव परिवार तक में घुल चुका है। एक तरफ ‘क’ से कविता परिवार उदास है दूसरी ओर बेटी भी शाम से उदास से है, लंदन में बैठी माँ उदास हैं।लखनऊ में बैठी दोस्त ज्योति उदास है जो हाल में कोटद्वार में उनसे मिली थी, कोटद्वार में विमल भैया उदास हैं जिनके घर पर उनसे आखिरी मुलाकात उनके शहर कोटद्वार में 18 जून को हुई थी।

बादलों के बरसने के ठीक पहले वो भैया के घर आये थे। पूरा परिवार उनसे मिलकर खुश था और वो भी बुरांश का जूस पीकर खुश थे। बोले,‘अच्छा हुआ रूह आफजा नहीं है। मैं ऊब गया हूँ रूह आफजा पीकर’। कितने किस्से सुनाये उस रोज, कितनी बातें। शायद इतनी तसल्ली से बैठकर इतनी लम्बी बातचीत पहली बार हो रही थी।
अस्थमा रहता था उन्हें, उन्होंने बताया कि किस तरह उस ज़माने में वो अस्थमा से डील करते थे जब इन्हेलर्स नहीं आये थे। उन्हें इंजेक्शन लेना पड़ता था। उन्होंने बताया कि कभी-कभार जब यात्रा के दौरान उन्हें दिक्कत होती तो वो खुद इंजेक्शन लगा लेते थे। कई बार लोग उन्हें ड्रग एडेक्ट समझने की भूल कर देते थे। एक बार तो किसी रेलवे अधिकारी ने उन्हें बिठा लिया,जाने ही नहीं दिया। तब उन्होंने जैसे-तैसे इंजेक्शन लगाने के बाद जब तबियत थोड़ी सुधरने लगी तो उसे बताया कि देखो ये डाक्टर का प्रिस्क्रिप्शन, यह कोई नशा नहीं दवा है।फिर भी वो स्टेशन मास्टर उन्हें शक की नज़र से ही देखता रहा।

जब कमल जी को पता चला कि मुझे ट्रैवेल सिकनेस है और मैं देहरादून से कोटद्वार ट्रेन से आई हूँ तो उन्होंने खूब मजाक उड़ाया। फिर ट्रैवेल सिकनेस से जुड़े कुछ पुराने किस्से भी साझा किये कि किस तरह कुछ लड़कियां उनके साथ बस में चल तो पड़ीं लेकिन रास्ते भर उल्टियाँ करती रहीं और सारे यात्री परेशान हुए।

आज सोचती हूँ कि क्या कमल जी अपनी मुस्कुराहटों में कोई गम छुपा रहे थे। मस्तमौला दिखने वाले कमल जी भीतर से उदास थे क्या?! उन्होंने कोटद्वार में अपने घर में मुझे आमंत्रित भी किया था लेकिन वक़्त की कमी के चलते जाना टल गया। वो पिछले दिनों चिकनगुनिया के बाद होने वाले दर्द की शिकायत किया करते थे। बताते थे कि ‘इस दर्द ने तोड़कर रख दिया है कि मुझे अपने लिए पहली बार बेड लाना पड़ा,वरना मैं ज़मीन पर ही सोना पसंद करता हूँ’।

चलते वक़्त उन्होंने कहा, ‘जल्दी ही देहरादून आता हूँ तब मिलता हूँ तुमसे, तुम मुझे कविता का पाठ करना सिखाओगी?!’ कोटद्वार में ‘क’ से कविता शुरू करने की बात भी हुई। विमल भैया खुश थे कि कोटद्वार में उन्हें उनके जैसा कोई युवा दोस्त मिल गया है। उन्हें क्या पता था कि पहली मुलाकात आखिरी मुलाकात बन जायेगी।

‘क’ से कमल जी ये ‘कैसे’ सफ़र पर निकल गए आप...हम सब आपको याद बनते देखने को कतई तैयार नहीं थे...


5 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

दुख:द । नमन और श्रद्धांजलि।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (06-07-2017) को "सिमटकर जी रही दुनिया" (चर्चा अंक-2657) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
स्व. कमल जोशी को श्रद्धांजलि के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते, आपकी लिखी यह रचना गुरूवार 6 जुलाई 2017 को "पाँच लिंकों का आनंद " (http://halchalwith5links.blogspot.in ) के 720 वें अंक में लिंक की गयी है। चर्चा में शामिल होने के लिए आपकी प्रतीक्षा रहेगी,आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद।

Archana Chaoji said...

बहुत दुखद घटना घटी ये, उन्हें फेसबुक पर ही उनके किसी फ़ोटो के द्वारा जाना, पहाड़ पर बसे जीवन के बिलकुल करीब ला खड़ा कर देते हैं उनके खींचे फ़ोटो
एक याद !

Rohit Singh said...

अच्छा संस्मरण है....लेकिन एक बात बताता हूं....हंसने वाला इंसान जरूरी नहीं कि वो अपने गम छुपाता हो....अगर ऐसा होता है तो मुस्कान देखकर कभी न कभी अहसास कभी न कभी हो जाता है....ऐसे लोगो को मस्त मलंग कहा जाता है....मैं मुस्कुराता हुआ पैदा हुआ कि नहीं..पता नहीं..पर अक्सर मुस्कुराहट आ जाती है चेहरे पर....और झल्लाहट जब कोई ऐसा सवाल पूछता है..तो याद रखिए उनकी हंसी वाले चेहरे को..