Thursday, May 4, 2017

मोहे मारे नजरिया सांवरिया रे ...



ये इनायतें गजब की ये बला की मेहरबानी
मेरी खैरियत भी पूछी किसी और की जबानी...

मौसम सुबह से संगत बिठाने में लगा था, इंतजार था कि बस हथेलियों पर रखा था, कभी भी टूटने को तैयार...शाम वादे के मुताबिक अपने साथ लेकर आई थी शुजात खान साहब को...जो राग यमन छिड़ा तो दून की वादियों में कोई नशा तारी होने लगा...'तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे' के साथ ही उन्होंने देहरादून की खूबसूरत शाम चुरा ली और उसे पुरकशिश अंदाज़ में ढाल दिया...'ये इनायतें गजब की ये बला की मेहरबानी,' 'खुसरो दरिया प्रेम का,' 'पिया घर आये' ' छाप तिलक सब छीनी,'' मन कुन्तो,'' वैष्णव जन ते' से होते हुए शुजात साहब हमारी सुध बुध हमसे चुरा चुके थे...आखरी में' रंगी सारी गुलाबी चुनरिया...मोहे मारे नजरिया सांवरिया रे ' सुनाकर वो देहरादून को अपना दीवाना बना चुके थे...

हम जैसे पहले से उनके दीवानों को उनसे मुलाकात की इक हसरत अभी बाकी थी. हालाँकि पता नहीं होता इन मुलाकातों का कि क्या बात करनी है, क्या कहना है, क्या पूछना बस कि साथ को महसूसना और क्या..अपनी भीगी सी सकुचाई आवाज़ में मैंने कहा, 'शिष्या हूँ सितार की...' बात पूरी होने से पहले वो कहते हैं 'मैं भी शिष्य हूँ सितार का...' चंद लम्हों की मुलाकात थी, मुक्कमल मुलाकात...लौटते वक़्त चाँद हंसकर बोला, 'अब तो खुश हो न?' मैं तबसे अब तक सिर्फ मुस्कुरा रही हूँ...मुसलसल...