Monday, February 27, 2017

पलाश से भरी धरती भी उदास हो सकती है



पलाश से भरी धरती भी उदास हो सकती है
तारों भरा आसमान भी हो सकता है गुमसुम

मुस्कुराहटों के मौसम के संग भी
आ सकती हैं निराश बारिशें
तमाम सभ्यताओं के बारे में जान लेने के बाद भी
बची रह सकती है असभ्यता
रास्ता मिलना 
जिंदगी में भटक जाने का भरम भी हो सकता है
हिदायतें हमारे जिए हुए डर हो सकते हैं
और क्रोध हमारी असमर्थता
दिल का टूटना 
पत्थरदिल दुनिया में दिल के बचे रहने की मुनादी भी हो सकती है
और दर्द का होना हो सकता है
जीवन में बची हुई आस्था का होना
प्रार्थनाएं खोई हुई उम्मीदों के लिए भटकना भी हो सकता है
और तुम्हारा न होना तुम्हारा होना भी हो सकता है.

(शाम की चाय के संग अगड़म बगड़म )

Tuesday, February 21, 2017

भटकने का सुख मामूली नहीं होता...



कभी तो लगता है बरसों से कोई लम्हा नहीं मिला और कभी यूँ भी होता है कि एक लम्हे में हज़ार लम्हे उग आते हैं. कभी तो लगता है एक मोड़ पर ही कबसे रुकी हुई हूँ, आगे कोई राह ही नहीं है और कभी यूँ भी होता है कि एक साथ हजार राहें खुलती नज़र आती हैं. सारे लम्हों को तोड़ लेने का जी चाहता है, निचोड़ के पी जाने को जी चाहता है. हर राह पर भागते जाना को जी चाहता है. मैं लम्हों की नज़र उतारती हूँ, राहों को जी भर निहारती हूँ.
एक-एक लम्हे को शिद्दत से जीती हूँ. राहों पर भागती फिरती हूँ. कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं है बस कि राहों पर भटक जाना चाहती हूँ. भटकने का सुख मामूली नहीं होता. कलाई पर बंधा वक़्त हैरत से मेरा मुंह देखता है, सोचता होगा शायद कि 'इस लड़की को अपने मुताबिक क्यों चला नहीं पाता. . . '

नींदे किसी गठरी में कैद हैं कि नींदों की कीमत पर जाग मिली है, दोस्तों का साथ मिला है, प्यार मिला है... सुबह पर मेरा कोई अख्तियार नहीं, रात पर है...

अनि की खिलखिलाहटों को जोर से थामे हुए हूँ, उसके साथ शरारतें करते हुए मानो अपने बचपन के किसी खाली हिस्से को जी रही होती हूँ. देर रात ऊँघती सड़कों पर झरती ओस की चादर लपेटे देवयानी के साथ घंटों टहलते हुए वक़्त का पता ही नहीं चलता। हम शब्द-शब्द झर रहे होते हैं...कहे सुने से पार कोई ख़ामोशी हर वक़्त हमें थामे होती है... चाँद इस कहन को सुन पाने की कोशिश में नाकाम होकर मुंह बनाता है... मैं उसकी बेचारगी पर हंसती हूँ...

बहुत कुछ सीखने को था इन लम्हों में, दिल हारने के लम्हे थे, बहुत सारा प्यार जीतने के... अनुभवों का एक नया संसार भी था...

सब साथ लेकर लौटते हुए छूटते हुए जयपुर के आसमान के रंग देखती हूँ... कानों में अनि का शहद से मीठा 'मासी...मासी...' का स्वर गूंजता है....तभी एक दोस्त का गुस्से में फोन आता है, ' हो कहाँ इत्ते दिनों से कि एक कॉल भी नहीं उठा सकती' मैं सोचती हूँ कि कहूँ, ' पता नहीं कहाँ हूँ.... लेकिन खुश हूँ ' दोस्त का गुस्सा देखकर सिर्फ हंस देती हूँ... शहर पर शहर छूटते जा रहे हैं. मन विगत और आगत के बीच अटका हुआ है कहीं. 

नींदों को बड़ी शिकायत है मुझसे इन दिनों कि वक़्त कम दे पाती हूँ उन्हें आजकल...

(जयपुर डायरी)

Friday, February 10, 2017

कि तुम मेरी कोई नहीं...


जब मैं तुम्हें पुकारना चाहता हूँ

मैं उठकर पानी पीता हूँ
खिड़की से दिखने वाली सड़क को
देर तक देखता रहता हूँ
सड़क, यूँ लगातार घूरे जाने से उकताकर करवट लेती है
और मैं आसमान देखने लगता हूँ
खाली आसमान
उस खाली आसमान में
मैं गले में रुकी अपनी पुकार लिखना चाहता हूँ
तुम्हारा नाम...

गले की नसों से रगड़ते हुए तुम्हारा नाम
शायद छलनी हो रहा था
कि मुझे तुम्हारा सीत्कार सुनाई देता है
मैं फिर से पानी पीता हूँ तुम्हारे नाम को
गले की पकड़ से आज़ाद करता हूँ...

मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
तुम्हारे दुपट्टे की किनारी पर लटकते घुन्घरुओं को
हथेलियों पे रखना चाहता हूँ
तुम्हारी पलकों पर अपने ख्वाब रखना चाहता हूँ
लेकिन मैं तुम्हें छुए बगैर लौट आता हूँ
क्योंकि मैं तुम्हें छूने की अपनी इक्षा को
सहेजना चाहता हूँ

तुम्हारी आवाज़ को सुनने की खातिर
मैं जंगलों में भटकता हूँ
बारिशों से मनुहार करता हूँ
घुघूती, बुलबुल और मैना से कहता हूँ
वो सुनें तुम्हारी आवाज़
और मुझे सुनाएँ
कि मैं एक फोन भी कर सकता था
लेकिन मैं उस आवाज़ की तपिश को
किस तरह अपने कानों में सहेज सकूँगा
सोचकर फोन हाथ में घुमाता रहता हूँ
चाय पीता हूँ और
तुम्हारे साथ के बारे में सोचता हूँ

मैं सोचता हूँ प्रिये कि एक रोज
चांदनी रात में जब तुम
अपनी कलाई में टिक टिक करती सुइयों को अनसुना करके
अपने 'अकेलेपन' से उलझ रही होगी
एक ख्याल बनकर मैं तुम्हारी तन्हाई को तोड़ दूंगा
तुम्हारा समूचा अकेलापन तुमसे छीन लूँगा
और तुम्हारे साथ हम दोनों के होने का जश्न मनाऊंगा

लेकिन उसके बाद के छूटे वीराने को सोचकर
सहम जाता हूँ
रोक लेता हूँ उस ख्याल को
जो तुम्हारे अकेलेपन में सेंध लगाने को व्याकुल है
कि अपना अकेलापन तुमने हिम्मत से कमाया है

मैं लौटना चाहता हूँ तुम्हारे ख्याल की दुनिया से दूर
कि करने को बहुत काम हैं
कई महीनों के बिल पड़े हैं जमा करने को
गाड़ी की सर्विसिंग
कितनी अनदेखी फ़िल्में, दोस्तों की पेंडिंग कॉल्स
जवाब के इंतजार में पड़ी मेल्स
घरवालों के उलाहने
कि लौटते क़दमों को तेज़ी से बढाता हूँ
खुद से कहता हूँ
कि मैं तुम्हारा कोई नहीं और तुम मेरी कोई नहीं,

तभी अंदर एक नदी फूटती है...
बाहर फूलों का मौसम खिलखिलाता है
मैं इस नदी को बचाऊंगा
धरती पर फूलों के मौसम को बचाऊंगा...

Thursday, February 9, 2017

निदा फ़ाज़ली: एक टुकड़ा याद


कोई खिड़की से झांककर कहता है, 'गाड़ी आराम से चलाना, आहिस्ता.’

मैं मुस्कुराकर देखती हूँ. वो निदा फ़ाज़ली से आखिरी मुलाकात का आखिरी लम्हा था. उनकी मुझसे कही गयी आखिरी बात. मेरी उनसे यह मुलाक़ात पिछली हुई तमाम मुलाकातों से अलग थी. उस रोज़ मैं उनसे अखबार के नुमाइंदे के तौर पर मिलने नहीं जा रही थी. न ज़ेहन में सवालों के फ्रेम उभर रहे थे, न वक़्त पर कॉपी फ़ाइल करने का, सबसे अच्छी कॉपी फ़ाइल करने का कोई दबाव था.

उन्होंने शहर पहुँचते ही फ़ोन पर अपने आने की इत्तिला दी थी. ये पिछली मुलाकातों की कमाई थी कि वो आते तो फोन ज़रूर करते थे. इस बार कोई एक्सक्लुसिव इंटरव्यू की कोई योजना अख़बार के पास नहीं थी, इसलिए उनसे मिलने का कोई असाइनमेंट भी नहीं था. शाम का वक़्त अख़बार की दुनिया में मरने की फुर्सत भी न होने जैसा ही होता है. ऐसे में वक़्त चुराना ख़ासा मुश्किल काम था. लेकिन उनके साथ एक कप चाय पीने का लालच बड़ा था. सो जल्दी जल्दी काम समेटा और स्कूटर उठाया. मौसम में हलकी सी खुशबू दाखिल हो चुकी थी. रास्ते भर, पिछली तमाम मुलाकातें जेहन में चलती रहीं. जाने क्यों उस रोज उनकी आवाज में कुछ नमी, कुछ बेचैनी सी थी. हालांकि पिछली कुछ मुलाकातों में वो मुझे बेचैन से ही मिलते रहे थे. जैसे कुछ तलाश रहे हों, जैसे सबसे नाराज़ हों, जैसे कुछ न कर पाने की उलझन में घिरे हों...लेकिन इस बार की आवाज़ में बेचैनी कुछ ज्यादा ही थी.

इसी जेहनी उथल-पुथल के बीच आखिर पहुँच ही गई उनके पास. हमेशा की तरह उन्होंने गंभीर मुस्कान के साथ स्वागत किया. ‘इस वक़्त परेशान किया तुमको?’ उन्होंने कहा.

‘अरे नहीं, तो. मेरी खुशकिस्मती है यह तो.’ मैंने कहा ज़रूर लेकिन शायद उन्होंने सुना नहीं.

‘जानता हूँ अखबार का कारोबार.’ उन्होंने कहा और बिना पूछे चाय मंगवा ली. वो अब तक मेरे चाय के चस्के से वाकिफ हो चुके थे. हम सादा सी बातचीत में मसरूफ हो गए. वो मेरी उनसे हुई तमाम मुलाकातों में से सबसे लम्बी मुलाकात थी. न कोई कागज़, न कलम, न सवाल कोई न जवाब. बस कुछ बात होती रही. बीच-बीच में वो मुझे खूब पढ़ने की ताकीद करना न भूलते.

उस रोज़ उन्होंने समकालीन हिंदी और उर्दू कविता पर काफी बात की थी. उन्हें चिंता होती थी कि आजकल के लोग पढ़ते नहीं, लिटरेचर की गहराई में नहीं उतरते. पढने वालों में एक हड़बड़ी सी रहती है, लिखने वालों में और भी ज्यादा. इससे पोयट्री को बहुत नुकसान हो रहा है. विदेशी कवियों का जिक्र करते हुए उन्होंने अफ़्रीकी कविताओं का खासकर जिक्र किया था. देश के ताजा हालात से बहुत दुखी थे वो कि हर शब्द, हर बात धर्म के चश्मे से क्यों देखी जाती है और क्यों साम्प्रदायिकता के खांचे में जड़ दी जाती है. न कोई टोपी में सुरक्षित है, न भगवा दुपट्टे में, फिर भी सब आपस में भिड़ रहे हैं.

वो पहले भी कई बार कह चुके थे कि यह कितनी अजीब बात है कि मुझे क्या सुनाना है यह इस बात से तय होता है कि शहर कौन सा है, देश कौन सा है और सामने पगड़ी वाले बैठे हैं या टोपी वाले. इस बात का जितना दुःख एक शायर को होता है उसे कोई समझ नहीं सकता. एक अजीब सा सतही दौर है, पॉपुलर चीज़ सुनना चाहते हैं लोग. शायरी का काम पॉपुलर कल्चर का पेट भरना नहीं है. लेकिन कौन समझाए.

उस पूरी मुलाकात में वे काफी उदास थे, चिंतित थे. वो सरहदों के दर्द को खूब महसूस करते थे. उनका कहना था कि लिटरेचर की कोई सरहद नहीं होती. लिटरेचर सारी सरहदों को तोड़ सकता है. तमाम भाषाओँ के पार जा सकता है. इसलिए हमें देश, भाषा की सीमाओं से पार जाकर पढना चाहिए, दुनिया को समझना चाहिए, महसूस करना चाहिए, सीखना चाहिए, प्यार करना चाहिए.

जाने कैसी उदासी तारी थी उस रोज कि तीन कप चाय और दुनियाभर की बातों के दरम्यान मौजूद ही रही. जैसे उनका दिल बहुत भरा हुआ हो. मुशायरों के स्तर में आई कमी से भी कुछ उदासी थी.. पुराने बीते मुशायरों की, उनके दोस्तों की यादें ज़ेहन में ताज़ा थीं...

जगजीत सिंह की इस दुनिया से रवानगी के कुछ ही रोज बाद की इस मुलाकात में उनके अज़ीज़ जगजीत सिंह की जुदाई का ग़म भी शामिल रहा. उन्होंने कहा, ‘‘पक्का यार चला गया. उसी ने मेरी ग़ज़लों को लोगों तक पहुँचाया, पॉपुलर बनाया.’’ जगजीत सिंह भी उन्हें अपनी हर मुलाकात में निदा साहब को इसी तरह याद किया करते थे.

मैं निदा साहब की बात सुनते हुए जगजीत सिंह को भी याद करते हुए मुस्कुराई थी. दोनों की यादों में दोनों को यूँ आपस में घुलते देखना सुखद जो था. तक़रीबन ढाई घंटे की वो मुलाकात जो अख़बार में कहीं दर्ज नहीं हुई. ये पहले से तय था कि ये निजी बातचीत है. वो निजी ही रही. अनौपचारिक...

मुझे आपको याद करना हमेशा अच्छा लगता था निदा साहब लेकिन सिर्फ आपका ‘याद’ बनकर रह जाना ये तो तय न था. अभी जगजीत सिंह की याद, उनकी वो बेतकल्लुफ हंसी, उनके वो जल्द आने का वादा ही आँखों में नमी बनकर तारी था कि आपके जाने की खबर...

आज बरस हुआ आपको गए, लेकिन यकीन अब भी नहीं आता कि अब कभी मुलाकात नहीं होगी आपसे. कैसे दोस्त निकले न आप भी कि दोस्त जगजीत के जन्मदिन पर उनसे मिलने ही चल दिए...८ फरवरी...

यूँ आपकी याद का मौसम तो कभी मुरझाता नहीं, फिर भी जाने क्यों आज ये स्मृति की डाल पर कुछ ज्यादा ही फूल खिले हैं...नहीं, उदासी के नहीं...आपसे प्यार के...हर लम्हे की याद के...आपसे मिली हर हर ताकीद की याद के फूल...

ये कुछ अपने लिखे में से अक्सर वो दोहराया करते थे...

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया

लफ़्ज़ों से जुदा हो गए लफ़्ज़ों के मआनी
ख़तरे के निशानात अभी दूर हैं लेकिन

सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है
कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन

बूढ़ा पीपल घाट का, बतियाए दिन-रात
जो भी गुज़रे पास से, सिर पे रख दे हाथ

सीधा सादा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान

अंदर मूरत पर चढ़े , घी, पूरी ,मिष्ठान
मंदिर के बाहर खड़ा, ईश्वर मांगे दान

बरखा सब को दान दे, जिसकी जितनी प्यास
मोती सीये सीप में, माटी में घास

जीवन के दिन रैन का, कैसे लगे हिसाब
दीमक के घर बैठ कर, लेखक लिखे किताब

ईसा, अल्लाह, ईश्वर, सारे मंतर सीख
जाने कब किस नाम से मिले ज्यादा भीख

स्टेशन पर ख़त्म की भारत तेरी खोज
नेहरू ने लिखा नहीं कुली के सर का बोझ...
(तस्वीर दूसरी मुलाकात की है, इस मुलाकात की हर बात सिर्फ जेहन में है )

Monday, February 6, 2017

मैं तुम से प्यार करता हूँ...



- नाज़िम हिकमत 

घुटनों के बल बैठा 
मैं निहार रहा हूँ धरती,
घास,
कीट-पतंग,
नीले फूलों से लदी छोटी टहनियाँ.
तुम बसन्त की धरती हो, मेरी प्रिया,
मैं तुम्हें निहार रहा हूँ।

पीठ के बल लेटा
मैं देख रहा हूँ आकाश,
पेड़ की डालियाँ,
उड़ान भरते सारस,
एक जागृत सपना.
तुम बसन्त के आकाश की तरह हो, मेरी प्रिया,
मैं तुम्हें देख रहा हूँ।

रात में जलाता हूँ अलाव
छूता हूँ आग,
पानी,
पोशाक,
चाँदी.
तुम सितारों के नीचे जलती आग जैसी हो,
मैं तुम्हें छू रहा हूँ।

मैं काम करता हूँ जनता के बीच
प्यार करता हूँ जनता से,
कार्रवाई से,
विचार से,
संघर्ष से.
तुम एक शख़्सियत हो मेरे संघर्ष में,
मैं तुम से प्यार करता हूँ।

(अंग्रेज़ी से अनुवाद : दिगम्बर)