Tuesday, August 2, 2016

मिस्टर एंड मिसेज हीर रांझा



कहानियां आसपास से खूब गुजरती रहती हैं, कागज पे नहीं बैठतीं. मेरी तरह आवारा हो गयी हैं. बाद मुद्दत एक कहानी कागज़ पे बैठी तो 'हंस' पत्रिका ने उसे जगह दी. शुक्रिया सम्पादक मंडल का और उन तमाम पाठकों का जो मेरे हंस तक पहुँच सकने से पहले अपनी प्रतिक्रियाएं दूर-दूर से भेज रहे हैं - प्रतिभा कटियार

रांझा उस रोज़ फिर से ऑफिस देर से पहुँचा। सुबह साढ़े आठ वाली बस छूटने से सब गड़बड़ हो जाता है. साढ़े आठ वाली वही बस, जिसमें उसे हीर मिली थी. पहली बार. कई बरस पहले।

उस वक़्त हीर कंडक्टर से छुट्टे पैसों के लिए लड़ रही थी. राँझा उसकी पहली नज़र पे मर मिटा था. वैसे नज़र मिलते ही मर तो हीर भी मिटी थी. चार दिन दोनों रोज सुबह उस बस में एक-दूसरे को देखते रहे. रांझा हीर से पहले वाले स्टॉपेज पर उतर जाता। पांचवे दिन हीर भी उतर गयी रांझे के पीछे। थोड़ी दूर तक पीछा किया।

फिर रांझा रुक गया. उसने पूछा,' कुछ कहना है?'
'हाँ कहना है.' वो बोली।
रांझा बोला 'तो कहो'
हीर जोर से हंसी। बहुत ज़ोर से. जेठ की वो चटख सुबह अमलताश और गुलमुहरों सी गमक उठी. रांझे के दिल की धड़कने बेकाबू हो रही थीं. उसने इस तरह पहले कभी महसूस नहीं किया था. उसे लग रहा था कि अभी उसका दिल उछलकर बाहर आ जायेगा।

'चल जा तू, तुझसे संभलेगा नहीं, ' कहकर हीर वापस हो ली.

रांझा उसे जाते हुए देखता रहा. उसका जी चाह रहा था उसे रोक ले. उसके क़दमों में गिर पड़े, उसके कंधे पर सर रखकर खूब रोये। लेकिन एटीट्यूड भी कोई चीज़ होती है। वो उसके पीछे नहीं गया. ऑफिस पहुंचा तो देर हो चुकी थी. बॉस की डांट पड़ी लेकिन उसे सुनाई नहीं दी. दोस्तों ने उसे पुकारा लेकिन वो आगे बढ़ता गया. फाइलें निपटायीं लेकिन उनमें क्या निपटाया खुद रांझे को पता नहीं था.

सारा दिन रांझा अगली सुबह का इंतज़ार करता रहा. 'चल जा तू, तुझसे नहीं संभलेगा' रांझे के कानों में किसी राग सा झनझनाता रहा. वो मुस्कुराता भी और दर्द से तड़पता भी. एक ही वक़्त में इतना सुख और इतना दर्द वो पहली बार महसूस कर रहा था. फिल्मों में तो दिखाते हैं कि ऐसे मौकों पे सिर्फ सुख ही होता है. हालाँकि उसे 'चल जा, तुझसे नहीं संभलेगा' थोड़ा बुरा भी लग रहा था लेकिन वो बुरा लगने को इग्नोर मार रहा था.

घर पहुंचा तो बदन बुखार में तप रहा था. अम्मा ने दवा दी, खाना दिया और अगले दिन की छुट्टी लेने को कहा, रांझा छुट्टी के नाम पर उठ खड़ा हुआ. 'नहीं अम्मा, हरारत ही तो है. ठीक हो जाऊँगा सुबह तक.' अब वो अम्मा को क्या बताएगा कि ये बुखार सुबह साढ़े आठ वाली बस पकड़ने पर ही उतरेगा। इसलिए जाना तो पड़ेगा।

अगले दिन बस में हीर किसी से सीट के लिए लड़ती मिली। वो उसे एकटक देख रहा था. रांझा उतरा नहीं। वो हीर के स्टेशन पर ही उतरा। हीर मुस्काई, 'मुझे पता था' उसने कहा.
'क्या ' रांझा सकपकाया।
'यही कि तू आएगा। '
रांझे का दिल हीर के क़दमों में गिर पड़ने को उछाल मार रहा था. वो हीर के पीछे चलने लगा.

'क्या चाहिए' हीर ने पूछा।
रांझे के मन में आया कह दे 'तुम' लेकिन उसने कहा 'कुछ नहीं'
'तो पीछे क्यों आया ?' हीर ने पूछा।
'कल तू क्या बोलने वाली थी,' रांझे ने हिम्मत दिखाई।
'क्या ?' हीर ने अनजान बनते हुए कहा.
'वही, कि मुझसे नहीं संभलेगा' हीर हंस दी ।

रांझा घबरा गया. हीर की हंसी जादुई थी. कल की हंसी अब तक उस पर तारी थी. लेकिन आज हीर की हंसी में वो नदियों का सा वेग नहीं थी. आधे खिले पलाशों सी मादकता थी.
उफ्फ्फ ये तो कल वाली हंसी से भी क़ातिल थी. रांझे को यक़ीन हो गया उसका मरना अब तय था.

'तेरे को सच्ची नईं पता?' हीर मुस्कुराई। इस बार उसकी आँखों की कोरों पर कोई बदली अटकी थी. रांझा उस बदली को अपनी आँखों में उतार लेना चाहता था. हीर ने उसकी पलकों पर अपनी हथेलियाँ रख दीं. शहर के बीचोबीच तूफ़ान उठा. पांच दिन पहले के दो अजनबी उस तूफ़ान को संभाल पाने में एकदम नाकामयाब होते रहे.

'मुझसे न संभलेगा तो किससे संभलेगा' रांझा कहते हुए छलक ही पड़ा.

दोपहर शुरू होने के पहले ही शहर बदलियों से घिर गया. सारे दिन बेमौसम बरसात में शहर भीगता रहा.

एक रोज जब रांझा सीसीडी में हीर को कॉफी पिलाकर लौट रहा था तो हीर ने कहा, 'सुनो, इस बार हमें न बिछड़ना है, न मरना है, न रोना है. बस हंसना है. जीना है समझे तुम?'
'हाँ' रांझे ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा.

दोनों ने वॉटसअप नंबर सेव किये और प्यार की पींगे बढाने लगे. रांझा फिल्म देखते हुए उसका हाथ चूमना चाहता तो हीर हाथ झटक देती। वो एकदम रुआंसा हो जाता। तब हीर उसे बच्चे की तरह लाड करती। फिल्म छूट जाती कहीं दोनों की उँगलियाँ उलझ जातीं आपस में और भीतर कोई तूफ़ान उछालें मारता।

जैसा कि हमेशा से होता आया है हीर और रांझे का सुख दुनिया की नज़र में आ गया. रांझा सरकारी नौकरी में था. आई ए एस की तैयारी करते-करते, नैया क्लर्की पर आकर अटकी थी. लेकिन आज के ज़माने में सरकारी नौकरी वाले क्लर्क की हैसियत भी कम नहीं होती सो ठसक तो थी ही हालाँकि अन्दर आई ए एस न बन पाने की कुंठा भी थी. उधर हीर का मास्टर्स पूरा हो चुका था और वो कोई जॉब करने के मूड में नहीं थी. हीर की मम्मी तलाकशुदा थी और रांझे के घर में पिता की हालत एकता कपूर के सीरियल वाले मर्दों जैसी थी. सो दोनों माओं ने मिलकर रिश्ता तय कर दिया। हीर की माँ ने बड़े गर्वीले अंदाज में कहा 'जी, हम तो जाति-पाति मानते नहीं, ये सब काफी ओल्ड फैशन बातें है.'

रांझे की माँ कौन सी कम थी उसने भी सुनाया, 'हमारे यहाँ तो पिछली पीढ़ी में ही ये सब बंधन टूट गए. इसकी बुआ ने भागकर मुसलमान से शादी की थी'. इसके पिताजी बहुत आज़ाद ख्याल हैं. है न जी? आज़ाद ख्याल पिताजी खुद ही आज़ाद नहीं लग रहे थे धीरे से ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाकर मुस्कुरा दिए.

मने आज़ाद ख्याल होना आसान है, आज़ाद होना मुश्किल। खैर... रांझा ब्याह के हीर को ले आया घर. सेल्फ़ी ले लिवाकर हनीमून शनीमून निपट गया। फेसबुक अपडेट हो गया 'रांझा गॉट मैरिड विद हीर'. लाइक शाइक का ढेर लग गया और राँझा वापस नौकरी पे चला गया. काम धाम संभाला, भूली बिसरी दोस्ती यारी याद आई. जिंदगी पटरी पे आई.

लेकिन पटरी पे चले तो साली काहे की जिंदगी। हीर को घर का काम एकदम पसंद नहीं था. न झाड़ू, न पोंछा, न बर्तन, न खाना। इधर नयी शादी का बुखार उतरा उधर सासु माँ के प्रेम का. हीर सबेरे दस्सस बजे सो के उठे, रांझा जा चुका होता था तब तक. उठते ही सासु जी का चेहरा फूला मिलता। हीर उठती, इधर-उधर टहलती, अख़बार-शखबार पढ़ती, रसोई में जाती, जो मिलता खाती और कोई किताब खोलकर बैठ जाती। उसे पढ़ने का बहुत शौक था. शादी होकर ससुराल आई तो साथ में किताबों का ढेर ही सबसे ज्यादा लायी। जाने क्या पढ़ती रहती हर वक़्त। कभी कोई फिल्म देखने चली जाती, कभी कोई नाटक। उसे पढ़ना पसंद था तो उसने घर के पास वाली लाइब्रेरी ज्वाइन कर ली. इस बीच उसने रांझे से नए लैपटॉप और किंडल की भी मांग कर दी.

हीर को गाने का भी शौक था. वो अक्सर दूर किसी पहाड़ी गांव में बच्चो के लिए संगीत का एक स्कूल खोलने की फैंटेसी को जिया करती थी. खेतों में, गलियों में , पहाड़ी पगडंडियों पर बच्चों की खिलखिलाहटों के सुर में संगीत और संगीत के सुर में खिलखिलाहटो का फ्यूजन उसके जेहन पर दबे पांव दस्तक देता. अक्सर वो ऊपर वाले कमरे में हारमोनियम के साथ घंटों बंद रहती. हालाँकि नयी बहु की आमद पर बहू द्वारा गाना सुनाने वाले नियम को उसने फुग्गे की तरह सुई चुभा दी थी. मुंह दिखाई पे सासू माँ कहती रहीं लेकिन हीर ‘मुझे नहीं आता गाना’ कहने की बजाय ‘मेरा मन नहीं गाना गाने का’ कहकर मना कर आई. रांझे से ज़रूर कोई शिकायत हुई होगी तो उसने समझाया कि ‘कह देती गला ख़राब है, क्यों बोला मन नहीं है.‘ हीर सेब कुतर रही थी उस वक़्त. बड़ा सा टुकड़ा मुंह में पूरा धकेलते हुए बोली, ‘क्योंकि मन नहीं था मेरा, गला तो ठीक था एकदम....सुनोगे सुर लगाऊं....?’ उसने झूठ मूठ की मासूमियत ओढ़ते हुए जवाब दिया.

‘अरे यार, गज़ब हो तुम. बोल देतीं तो क्या बिगड़ जाता?’ रांझे ने भरसक मिठास अपनी आवाज में बचाए रखने की कोशिश की.

‘बिगड़ जाता न रांझा जी, नयी बहु कोई कार्टून नहीं है जिसका रिमोट किसी के हाथ में हो. क्यों उसे आये या न आये गाना पड़ेगा, वो आदत टूटनी ज़रूरी है, उसकी इच्छा उसके मन की भी कोई कद्र है की नहीं.’

‘अब इसमें कौन सी बुराई है, गाना-वाना तो अच्छी बात है न ?’ रांझा उलझने लगा था.

‘बुराई गाने में नहीं है रांझा जी,’ उसने अपना मुंह रांझे के करीब ले जाते हुए कहा.

‘बुराई उस दबाव की है जो रीति बनकर किसी भी व्यक्ति या रिश्ते में शामिल होता है. मैंने कहा न मेरा मन नहीं है. जब होगा सुना दूँगी. उन्हें भी यह सुनने की आदत होनी चाहिए कि मन भी कोई चीज़ होती है. उसकी भी अहमियत है भई.’

‘और इस तरह तुम समाज बदल दोगी?’ न चाहते हुए भी रांझा चिडचिडा हो गया था.

‘समाज बदले न बदले खुद को तो बचा लूँगी शायद. और लोगो को भी न सुनने की आदत होनी चाहिए न? हीर ने अपनी बाहें रांझे के गले में डाल दी थीं.

मुंह दिखाई पे शुरू हुआ तकरारों का यह सिलसिला धीरे-धीरे फलने-फूलने लगा. रांझा तो समझ जाता लेकिन सासू माँ बिफरने लगीं. रोज ऑफिस से लौटने पर कोई नयी फ़ाइल खुली मिलती, जिसे रांझा जैसे तैसे इग्नोर मारता.

इसी बीच एक दुर्घटना घट गयी. हीर प्रेग्नेंट हो गयी. खूब हंगामा किया उसने इस बात पर कि रांझे ने इस बात का ख्याल क्यों नहीं रखा. रांझा बोला 'तुमको नहीं चाहिए बच्चा तो तुमको ख्याल रखना चाहिए न......' हीर गुस्से में बमक गयी एकदम.

'पति नहीं हो तुम समझे? रांझा हो रांझा। जो हमको नहीं पसंद उसका ख्याल तुमको क्यों नहीं रखना चहिये?' रांझा हड़बड़ा गया.

अचानक उसे ब्रह्मास्त्र मिला, 'और जो मुझे पसंद है उसका ख्याल कौन रखेगा?'

'अरे मैं रखूंगी और कौन रखेगा लेकिन ख़याल रखने के नाम पर खाना बनाना, बर्तन धोना मत ले आना बीच में प्लीज़। ख्याल रखना इन सबसे काफी बड़ी चीज़ होती है’
'खाना बर्तन न लाऊँ, बच्चा न लाऊँ तो क्या लाऊँ बीच में?' रांझा हथ्थे से उखड गया.
'तो तुम मुझसे खाना बनवाने, बर्तन धुलवाने को ब्याह के लाये थे?'
'ये क्या बात हुई यार. प्यार किया, शादी की, ये सब होगा ही न?'
'नहीं। कोई ज़रूरी नहीं है. मैंने सोचा था कि हमारे प्यार के बीच घर, घर के काम काज, बच्चा इसलिए नहीं आएगा क्योंकि ऐसा ही होता है। वो सब हमारी अपनी इच्छा से होगा.’ हीर का मूड एकदम ऑफ हो चुका था.

‘ऐसा लगता है कि इस तरह की बातें भी फैशन ही हो चुकी हैं आजकल. घर के कामों से आज़ादी ही क्या असल में आज़ादी है? बच्चे पैदा नहीं करने क्योंकि पालने में मेहनत लगती है. गज्ज़ब आज़ादी है. मुझे तो समझ में नहीं आती ये आज़ादी’ रांझे ने सिगरेट सुलगा ली.

न रांझे, रसोई से आजादी वाली बात ही नहीं है, न बच्चा पालने की दिक्कत है लेकिन सिर्फ इन्हीं सीमाओं में कैद होकर नहीं रहना है. ‘बच्चे पल जाते हैं इसलिए कभी भी पैदा नहीं करना, जब मन से, हालात से तैयार होंगे हम दोनों तब लायेंगे बच्चा. पता नहीं यार, लेकिन मुझे इस तरह खुद को तयशुदा फ्रेम में देखे जाना ठीक नहीं लगता. लगता था तुम समझोगे मेरी बात.’ हीर की आवाज में उदासी और हताशा उतर आई थी.

रांझे की तो मानो पतंग ही कट चुकी थी. लड़ना फिर भी आसान था लेकिन हीर की उदास आवाज उसे तोड़ के रख देती. वो हैरान परेशान. उसे पराये घर ब्याह दी गयी हीर के लिए रोते हुए जंगलों में भटकने का अनुभव तो था लेकिन बीवी बनकर घर में तकरीर करने वाली हीर को कैसे सहेजना है, इसका कुछ पता नहीं था.

बहरहाल, हीर ने खुद डॉक्टर से अप्वाइंटमेंट लिया और अबॉर्शन करा आई. उदास रांझे ने इत्ता कहा, 'माँ को मत बताना। उन्हें दुःख होगा ' हीर ने कहा, 'बताऊँगी क्योंकि झूठ बोलने वाला कोई काम नहीं किया है मैंने।'

रांझे ने पाँव पटके, बाइक की चाबी उठाई और निकल गया अँधेरी सड़क पे.

हीर ने सिगरेट सुलगाई, थोड़ी देर तक चाँद को निहारा। उसे घुटन महसूस हुई. वो छत पे चली गयी टहलने।

कुछ दिन अबोला रहा, घर में अब काम करने के लिए, खाना बनाने के लिए सुनीता आने लगी थी इसलिए वक़्त पे खाना नाश्ता मिलने लगा था. एक रोज हीर ने अच्छे मूड में शाम की चाय के वक़्त कहा, 'सुनीता को हम महीने के ढाई हज़ार देते हैं. इन्हीं कामों में मुझे झोंकने को आप दोनों माँ बेटे पिले पड़े थे. है न? मने बस इत्ते से ही ख्वाब देखे थे आप लोगों ने अपनी बीवी और बहू के लिए ?' वो पकौड़ा कुतरते हुए मुस्कुराई। कनखियों से उसने रांझे को देखा। रांझा खामोश रहा.

रांझे की माँ ने ज़रूर कहा, 'बात तो सही कही तूने बेटा। हम औरतों को पता भी नहीं चलता कि इन छोटे-छोटे और चौबीस घंटे उलझाये रखने वाले काम हमारा कित्ता खून पीते हैं. कैसे हम उम्र के आखिरी मोड़ तक पहुँचते-पहुँचते कटखनी औरतें बनने लगती हैं.'

रांझा अम्मा की बात सुनकर चौंका। 'अम्मा ये तू कह रही है? तू जो हमेशा कामवाली बाई लगाने के खिलाफ रही. तू जो मेरा जीना हराम किये रही कि दिन भर हीर घर में पड़ी-पड़ी या तो पढ़ती रहती है या टीवी देखती है या घूमने चली जाती है.'

' हाँ, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि जीना क्या होता है. तेरे पापा की ख़ुशी, घर सँभालने तेरा ख्याल रखने को ही जिंदगी मानते-मानते आज मैं कैसी हो गयी हूँ? हर किसी में खोट निकाळती हूँ. सारे दिन घर के काम करती हूँ और शाम को घरवालों पर चिड़चिड़ाती हूँ.' कहते-कहते अम्मा की आँखें भर आयीं।

'बहू मुझे जीना सिखा रही है. अब हम दोनों जाती हैं नाटक देखने। कभी-कभी तेरे पापा के साथ फिल्म भी देख आई हूँ. ' अम्मा ने आँखें मटकाते हुए कहा.

'ये हो क्या रहा है घर में' रांझा एकदम सकते में आ गया. हीर मुस्कुराई।
'राँझा जी, जिंदगी काटनी नहीं है हमने जीनी है, समझे आप.'
'मने जो घर के काम कर रही हैं, बच्चे संभाल रही हैं वो जी नहीं रहीं।' रांझा कटाक्छ की मुद्रा में आ चुका था.
'क्या पता जी रही हैं या उन्हें लग रहा है कि जी रही हैं। रांझा जी, बात घर के काम की नहीं है, बात है इच्छा की. उस स्पेस की जहाँ मन न होने की भी जगह हो. कोई भी काम किसी एक के लिए जन्म जन्मान्तर की बाध्यता क्यों है भला? तुम्हारा मन होता है कभी-कभी तो बनाते हो न मटन, पापा भी कभी चाय बना देते हैं, ऐसे ही हम भी बना देते हैं कभी. ये बहुत मामूली वजहें हैं लेकिन इनको समझने में वक़्त लगता है। मैंने अपनी माँ को देखा है, पापा से जब-जब नाराज़ होती थी घर में काम करने की उनकी गति बढ़ जाती थी, बर्तनों की चमक, फर्श की चमक, सजा संवरा घर बढ़िया खाना, फरमाइशें किस कीमत पर? एक समूचे व्यक्तित्व की कीमत पर ? क्यों ?

'लेकिन जो औरतें नौकरी करती हैं वो हेल्पर रखती ही हैं. ' रांझे को बहस से अब ऊब होने लगी थी.

'यानि अगर हम घर के काम से राहत चाहती हैं तो बाहर काम करना ज़रूरी है?' हीर का धीरज अब चुकने लगा था.
'अरे भाई तो करोगी क्या? घर में काम नहीं बाहर काम नहीं? करना क्या है ? बच्चे भी नहीं चाहिए वो भी कामवाली बाई से ही पैदा करा लो.'
‘वैसे आइडिया बुरा नहीं है,’ उसने रांझा को देखकर धीरे से आँख दबाई । अम्मा ने देख लिया। वो फिस्स से हंस दीं.

‘देख रहा हूँ ये पढाई लिखाई इमर्श-विमर्श कुछ अलग ही रंग दिखा रहा है. इसीलिए घर की औरतों को ज्यादा पढ़ाना-लिखाना नहीं चाहिए। चार किताबें पढ़ ली और लगीं बिगुल फूंकने।‘ रांझे के भीतर का मर्द जाग चुका था. हीर हर वक़्त बहस नहीं करती। खासकर उस वक़्त तो हरगिज़ नहीं जब रांझे का बीपी हाई हो, यानि वो गुस्से में हो. ये एक अबोला करार है. हीर एकदम शांत रही.

रांझा बड़बड़ा रहा था, 'मुझे इतना बता सकती हो कि करना क्या चाहती हो तुम औरतें? आखिर किस तरह की आज़ादी है ये कि अच्छा खासा घर चलाना जिसमें अब तक मजा आता था, वो भी बोझ लगने लगा.'

हीर शांत थी, चाय के कप उठाते हुए बोली 'जब खाली जगह बनेगी तो यह भी पता चलेगा कि क्या करना है, अभी तो सोचना भी मुनासिब नहीं इस बारे में। कितनी औरतों को ये आज़ादी है कि वो अपनी मर्जी से जी सकें' अपने मन के काम कर सकें'

'ये आज़ादी तो हम पुरुषों को भी नहीं है यार. तुम्हारे पास ये आज़ादी है कि नौकरी करने का मन नहीं है तो न करो, पति तो कमायेगा ही लेकिन मेरे पास नहीं है ये आज़ादी, समझती हो इस बात को' रांझा गुस्से में हांफने लगा था.

'हाँ राँझा जी, है इस बात का अंदाजा। और इसीलिए औरतें बराबर बाहर काम करती हैं. जब तुम्हारा मन न हो मुझे बताना, मैं कमाऊँगी तुम आराम करना, पक्का प्रॉमिस' हीर मुस्कुराई। 'यही तो फायदा है दो लोगो के होने का। और ये किसने कहा कि हमें घर के काम और बच्चों से एलर्जी है. अरे नहीं यार. घर के काम भी करेंगे, बच्चे भी संभालेंगे लेकिन तब जब हमारा खुद का मन होगा। किसी मशीन की तरह नहीं। आएगा बच्चा भी लेकिन गलती से नहीं दोनों की भरपूर इच्छा से, जब मन से तैयार होंगे दोनों ही तब' वो शरारत से मुस्कुराई। 'चलो न मुझे लौंग ड्राइव पे ले चलो, कित्ते दिन हो गए.' हीर ने इसरार करते हुए माहौल को हल्का किया।
'अम्मा ?' रांझा ने सवालिया लहजे में सवाल को अटकाकर छोड़ दिया।

अम्मा जो इतनी देर से चुपचाप बैठी सुन रही थीं बेटे बहु की बातें, बोलीं 'तुम दोनों जाओ. बहू ने मेरी और तेरे पापा की टिकट कराई है शाम की फिल्म की. अभी वो आते होंगे।'

रांझा बाइक निकालने लगा. सारे रस्ते हीर उसे छेड़ती रही वो मुंह फुलाए रहा. हालाँकि 'आएगा बच्चा जब दोनों का मन होगा' ये सुनकर उसे थोड़ी गुदगुदी भी हो रही थी और राहत भी महसूस हो रही थी.

एक रोज़ रांझा ऑफिस से परेशान हाल वापस आया. हीर उस वक़्त घर पे नहीं थी. सास के साथ मार्किट गयी थी. उसका बुझा मन और बुझ गया. पापा टीवी पे कोई सीरियल देख रहे थे.

'पापा, ये दोनों कब आएँगी?' रांझे ने पूछा।
'पता नहीं' पापा ने टीवी से आँख हटाये बगैर जवाब दिया।
'चाय पीने की बहुत इच्छा हो रही थी, दिन भर बाद घर आओ तो चाय भी खुद ही बनाओ' रांझा भुनभुनाया।
चाय का पानी चढ़ाते हुए उसे जाने क्यों हीर की बहुत याद आने लगी. एकदम रोना आने लगा. बहुत दिन बाद उसका जी चाहा हीर की गोद में छुप जाये।

पापा को चाय देकर वो बाहर आ गया. बेसब्री से हीर का इंतज़ार करने लगा. सच ही तो कहती है हीर, हम हमेशा से घर के हर छोटे बड़े काम के लिए औरतों के भरोसे ही क्यों होते हैं? आज अगर अम्मा घर पे होतीं या हीर होती तो बिना कहे उसके लिए चाय बना देतीं लेकिन पापा भी तो थे घर पर. वो भी तो जानते हैं कि दिन भर बाद आया हूँ, चाय पीने की इच्छा है, क्यों न बना दी चाय उन्होंने मेरे लिए. उनका मन होगा तो बनाएंगे। लेकिन औरतें मन हो न हो बनाएंगी ही.

जाने प्यार का बुखार था या कुछ और इस समय रांझा को हीर की सारी बातें ठीक लग रही थीं. उमस भरी शाम को नहाकर ही कुछ हल्का किया जा सकता था. वो नहाकर कमरे में जाकर कुछ पढ़ने लगा.

हीर और माँ लौट आये थे. माँ पापा से बात कर रही थीं. सुनीता कुछ दिन से छुट्टी पर है तो खाना माँ और हीर मिलकर ही बनाती हैं, हीर कमरे में आई, रांझे को सोया समझकर चुपचाप कपडे बदल के चली गयी. रांझा सोने का बहाना बनाये लेटा रहा. उसका जी चाहा कि उसे पुकारे, आवाज़ दे, लेकिन वो चुप रहा. हीर खाना बनाकर नहाने चली गयी. रांझा सोचता रहा ‘क्यों ये मुझे मना नहीं लेती। कित्ते दिन हो गए ठीक से बात तक नहीं हुई.’ अम्मा ने खाने की आवाज़ दी तो वो राजा बेटा की तरह वो डाइनिंग टेबल पर जाकर बैठ गया. भरवां करेला, दाल फ्राई, रोटी, चावल, सूखी भिन्डी टेबल पर लगा था. हीर बनाये भले न लेकिन उसे बहुत अच्छा खाना बनाना आता है. पहला निवाला खाते ही उसे महसूस हुआ. पापा ने बोल ही दिया, बेटा बहुत अच्छा खाना बनाती हो, सुनीता के हाथ में ये स्वाद कहाँ?'

' हाँ ये तो है, लेकिन अगर कोई तारीफ के बदले ये उम्मीद कर रहा है कि हीर रोज किचन संभालेगी तो भूल जाए,' अम्मा ने हलके फुल्के ढंग से अपनी बात रख दी. हीर खिलखिला दी.

रांझा सोच रहा था, ये वही अम्मा हैं?

रात हीर ने सिगरेट मांगी तो रांझे का मुह बिगड़ गया. 'क्या तुम रोज़ पीने लगी हो?'
'रोज़ तो नहीं, कभी-कभी.' हीर ने सिगरेट के लिए उसकी टेबल तलाशते हुए जवाब दिया।
'लेकिन तुम तो मेरे साथ पीती थी न ?' उसे थोड़ी बेचैनी होने लगी थी.
'तो, अब मैं बड़ी हो गयी हूँ राजा जी, कभी-कभार अकेले भी निपटा लेती हूँ. व्हाट का अ बिग डील?' हीर को सिगरेट मिल गयी थी. उसने शरारत से आँखें चमकाते हुए कहा. सिगरेट सुलगाई, दो कश लिए और सिगरेट रांझे के होंठों में दबा दी.

'मुझे पता है तुम्हें इसकी ज़रुरत है. अब बोलो क्यों परेशान हो? ऑफिस में कुछ हुआ क्या?'

रांझा हीर के सामने एकदम खुली किताब की तरह हो जाता है, वो किसी एक्स-रे मशीन की तरह उसे अंदर तक खंगाल लेती है. 'तो क्या वो ये जानती है कि मैं उसे चूमना चाहता हूँ.' रांझे ने उसके चेहरे की ओर देखा। वो खिड़की से बाहर देख रही थी.

'मेरे ऑफिस में जो मंजरी मैम हैं न उन्होंने अपने हसबैंड को डिवोर्स दे दिया' रांझे ने सिगरेट का कश लेते हुए भीतर की कश्मकश को बाहर निकाला।
'अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी बात है.' हीर ने पलटकर रांझे की ओर देखते हुए कहा.
हीर के जवाब से रांझा एकदम हैरान था. 'तुम क्या हो यार. तुमको हर उलटी बात सही लगती है'
‘इसमें उल्टा क्या है?'औरत ने मर्द को तलाक़ दिया ये, या तलाक हो रहा है ये?' हीर ने गंभीरता के साथ पूछा।
'दोनों ही' रांझे ने सपाट जवाब दिया।
'नहीं दोनों ही बातें ठीक हैं यार. समझदार औरत है, तलाक़ देने का फैसला आसान नहीं होता। इसके बाद उसका जीवन मुश्किल ही होगा फिर भी उसने ये रास्ता चुना है तो उसके साहस की तारीफ करनी होगी।'
'तुम्हें कैसे पता कि गलती किसकी थी? ' रांझे के भीतर वाले पुरुष को दिक्कत हो रही थी.
'मुझे कुछ नहीं पता फिर भी यकीं है उसके फैसले पर.'
'तुम बायस्ड हो और कुछ नहीं ' रांझा चिढ गया.
'यही बात तुम्हारे साथ भी हो सकती है न?' आज हीर हार मानने को राज़ी नहीं थी.
' तुम्हारे हिसाब से सारी औरतें ऐश करें, मर्द कमाएं भी, घर भी सम्भालें, गाली भी खाएं और तलाक़ भी' रांझे का गुस्सा उफनाने लगा था.
''कुतर्क करना है तो सो जाओ. बात करनी है तो सुनना भी सीखो और समझने को भी तैयार रहो.' हीर ने सख्ती से कहा.
'कुतर्क क्या है '
'कुतर्क ही है'. हीर किताबें उठाने लगी.
'अब ये क्या है' उसे किताबें उठाते देख रांझा विचलित हो गया. आजकल हीर स्टडी रूम में देर तक पढ़ती है और कभी कभार वही सो भी जाती है।
'पढूंगी थोड़ी देर' हीर ने जवाब दिया।

रांझे को आज हीर की शाम से ही तलब थी. उसे इस तरह जाते देख वो रुआंसा हो गया.
'प्लीज़ मत जाओ' रांझे ने कहा.
हीर रुक गयी. रांझे ने हाथ बढ़ाया जिसे हीर ने थाम लिया।
'मुझे छोड़कर मत जाना कभी, मैं बहुत डर गया हूँ' रांझे ने सुबकते हुए कहा.
'मैं हीर हूँ. शादी के बाद भी हीर ही बनी रहना चाहती हूँ. उसी की कोशिश करती रहती हूँ. तुम मुझे पत्नी बनाने पे तुले रहते हो, पत्नी तलाक़ दे सकती है, पति तलाक़ दे सकता है, धोखा दे सकते हैं एक-दूसरे को लेकिन हीर रांझा नहीं।'

'मैं समझ गया मेरी प्यारी हीर, सब समझ गया. ' वो सुबकते हुए हीर के सीने में धंस गया.
हीर ने उसके बालों पर उँगलियाँ फिराते हुए माथा चूम लिया।

सुबह रांझा ऑफिस पहुँचने में फिर से लेट हो गया.

('हंस' पत्रिका के अगस्त 2016 के अंक में प्रकाशित )


4 comments:

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

एक नया दृष्टिकोण लिए हुये है ये कहानी ।

कविता रावत said...

वाह बहुत सुन्दर एक रोचक नयी हीर-रांझे की कहानी पढ़कर मजा आया।

Archana Chaoji said...

बहुत ही रोचक कहानी। ..नए अंदाज में

kumar siddharth said...

रोचक कहानी पढ़कर मज़ा आया.