Monday, January 25, 2016

'आखिरी' लिखने से पहले...


'आखिरी' लिखने से पहले
घूमता है समूचा जीवन आँखों के सामने
ख्वाहिशों का एक सैलाब दौड़ता है रगों में
बचपन की कोई शाख हिलती है धीमे से
उस पर टंगी शरारती मुस्कुराहटें
निहारती हैं
आधी पढ़ी हुई नॉवेल के पन्ने फड़फड़ाते हैं टेबल पर
और रखे-रखे ठंडी हो चुकी चाय उदास नज़रों से देखती है

आखिरी लिखने से पहले
होंठों पर उभरती है पहले चुम्बन की स्मृति
साथ देखे गए हजारों ख्वाब
पार्क की वो कोने वाली टूटी बेंच
सितारों भरा आसमान कन्धों से आ लगता है
झर-झर झरते हरसिंगार गुनगुनाते हैं अनहद नाद
हथेलियों से टूटकर एक-एक कर गिरती लकीरें
धरती पे उगाने लगती हैं
उम्मीदों की फसल

आखिरी लिखने से पहले शांत होते हैं सारे विचलन
बाहर एक शोर उगता है 
और भीतर असीम शांति
कि सबको माफ़ कर देने को जी चाहता है
उन्हें भी जिन्होंने 'आखिरी' लिखना ही छोड़ा आखिरी रास्ता

पहली बार आखिरी लिखने से पहले
एक शांति उभरती हैं आँखों में
 याद आते हैं तमाम अधूरे वायदे
किसी के इंतज़ार का भी ख्याल आता है शिद्दत से
कुछ जिम्मेदारियां सर झुकाकर आ खड़ी होती हैं एकदम सटकर
कि 'आखिरी' लिखते हुए लडखडाती है कलम
और फिर एक संगीत गूंजता है कानों में
एक आखिरी हिचकी, एक आखिरी सन्देश कि

आखिरी लिखना
असल में पैदा करना है ताक़त अपनी आवाज में
सत्ताधीशों के कानों में चीखना है ज़ोर से
सोयी हुई आत्माओं को झिंझोड़ के जगाना है
लिखना है प्रतिरोध का नया पन्ना
कायर समाज के मुह पे जड़ना है जोर का तमाचा
और उगना है हजारों लाखों लोगों में एक साथ
सबके जीने लायक समाज बनाने की इच्छा बनकर...

(रोहित वेमुला की याद में )

1 comment:

जसवंत लोधी said...

भावुक यादें ।
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