Tuesday, January 12, 2016

इश्क़ नमक भर, बस...



'मैं तुम्हें प्यार करती हूं, जिस तरह किसान करता है प्यार अपनी फसलों को। मां अपने बच्चे को, प्यास पानी को, मछली नदी को। मैं तुम्हें प्यार करती हूं उस तरह जिस तरह एक सामान्य स्त्री करती है प्यार अपने सामान्य प्रेमी को। मेरे इश्क में कोई खास बात नहीं, कोई ऐतिहासिकता नहीं, कोई बड़ा समर्पण भी नहीं, कोई आदर्श नहीं। 

नहीं कोई वादा कि हर हाल में रहूंगी तुम्हारे ही साथ जनम.जन्म तक, ये सच है कि तुम्हारा साथ शिद्दत से चाहती हूँ लेकिन अपना साथ भी खोना नहीं चाहती। मैं नहीं कहूँगी कभी कि तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा। नहीं मैं चाहती कि मंदिर में जलते किसी दिये की लौ की तरह जलती रहूं तुम्हारे प्यार में हमेशा और तुम ईश्वर की तरह अपने आसन पर विराजे रहो। मैं मर तो सकती हूं तुम्हारे प्यार में लेकिन तुम्हारे प्यार में अपना अपमान भी नहीं होने दूंगी। तुम धोखा दोगे तो मैं भी तुम्हारे लिए बिसूरती नहीं रहूंगी।

 सिर्फ दाल में नमक जितना ही करती हूं तुमसे प्यार। तुम चाहो तो प्रेम की महान दुनिया से मेरे नाम के सफहे मिटा दो लेकिन मैं इसके सिवा तुमसे और कोई वादा नहीं कर सकती। रुदन मेरे भीतर रहेगा, पलेगा लेकिन वो कमजोर नहीं करेगा मेरे कदमों को भूल जाओ कि तुम्हारे प्यार में कुछ भी सहूंगी, और न तुम्हारे सहने की वजह बनूँगी।'

'हम्मम...और?'  लड़के ने धीरे से कहा...
'फिलहाल इतना ही...' 
कहते हुए वो उठकर चल दी। सूखे पत्तों पर उसके पांवों के पड़ने से जो आवाज आ रही थी वो उस असीम एकांत को नरमाई से तोड़ रही थी। लड़का वहीं बैठा रहा। चांद पूरनमााशी का था लेकिन वो लड़के को आधा ही ढंक रहा था। सिर्फ आधा। लड़के की आधी देह चांदनी में और आधी महुए की पेड़ की छाया में ढंकी हुई थी। 
लड़की ने पलटकर देखा, मुस्कुराई...'वहीं बैठे रहोगे क्या?'
लड़का बैठा ही रहा...चुपचाप
'क्या हुआ तुमको?' लड़की ने अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर पूछा।
'हुआ तो कुछ नहीं...बस कुछ सोच रहा हूं.'
'हां, तो सोचो न. सोचने के किसने मना किया है लेकिन यहां से उठो तो सही।'
'तुम्हें तो चांदनी रात में जंगल में बैठना बहुत पसंद था, अब क्या हुआ।'
'पसंद तो अब भी है लेकिन मुझे अभी चाय पीने की बड़ी इच्छा हो रही है।'
'अच्छा...और?' लड़के ने पूछा।
'और जोर से गाना गाने की, तुम्हारी उतरी हुई सूरत पे जोर से हंसने की.. इस जंगल को अपनी आवाज से गुंजा देने की...लड़की की आवाज में शोखी घुलने लगी थी। 
'चलो, चाय पीते हैं...'लड़का उसे लेकर जंगल से बाहर निकलने को हुआ। 
'तुम मुझसे डर गये न?' लड़की ने उसे छेड़ा
'किस बात से डर?' लड़के ने शांति से पूछा
'मेरे प्रणय निवेदन से, आई मीन मेरे प्रेम प्रस्ताव को सुनकर?' लड़की ने लड़के चेहरे के एकदम करीब अपना चेहरा ले जाते हुए पूछा।
लड़का शांत उसकी आंखों में देखता रहा। चांदनी झरती रही।
लड़के की आंख में कुछ था...प्यार के अलावा।  वो छलक रहा था. 
'कुछ पूछना है?'  लड़की का चेहरा अब लड़के के और करीब था। 
लड़के की आंख में अटका वो प्यार के अलावा वाला कुछ  टपक गया। 
'सवाल नहीं दुःख है...' उसने टपके हुए दुःख  को अपने गालों पर बहने दिया। 
लड़की ने लड़के के सीने पर सर टिकाकर कहा, 'मैं जानती हूं तुम्हारा दुःख।'
'मैं जानता हूं कि तुम जानती हो...फिर भी तुम्हें अपने प्रेम को इस तरह कहना पड़ा इसका दुःख है। यह दुःख समूचे समाज का है, उस समूची सोच का जहां प्रेम इतनी जड़ मान्यताओं के साथ आता है, जहां स्त्रियों के पास प्रेम इतने दुःख लेकर आता है, इतने संदेह, इतनी असुरक्षा। मैं समूची आदम जाति की ओर से इस दुःख को वहन कर रहा हूं...'
लड़की ने लड़के के सीने से सर उठाते हुए कहा, ' हां, और मैं समूची स्त्रियों की तरफ से अपने प्रेम को इसी तरह प्रस्तावित करना चाहती हूं...कि मैं तुममें उगना चाहती हूं लेकिन अपने भीतर भी बचे भी रहना चाहती हूं...' लड़की की आवाज अब भारी होने लगी थी।
'मैं तुम्हें तुम्हारे भीतर बचाये रखूंगा, रख सकूंगा ऐसा भरोसा नहीं दे पाया... तुम्हें सदियों से इसी असुरक्षा में अपने प्रेम को जीना पड़ रहा है' लड़के की आवाज पिघलने लगी थी. 
'मैं तुम्हारे प्रेम के प्रस्ताव को सम्पूर्णता में स्वीकार करता हूं...इश्क की किताबों में दर्ज होने को नहीं मेरी जिंदगी की फीकी दाल में स्वाद भर नमक की तरह तुम्हें चाहता हूं। कि तुम्हारे बिना उम्र भर बिना नमक की दाल, बिना पानी के जिंदा मछलियों का तस्सवुर, फसलों से खाली खेतों का किसान मैं नहीं होना चाहता...'

लड़की की आँखों से भरोसा बरसता रहा, आसमान से बरसती रही चांदनी, धरती पर प्रेम की अभिलाषा बरसती रही....




4 comments:

संध्या शर्मा said...

कि मैं तुममें उगना चाहती हूं लेकिन अपने भीतर भी बचे भी रहना चाहती हूं...'
बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...

जसवंत लोधी said...

भावुक रचना है ।
seetamni. blogspot. in

ANHAD NAAD said...

उम्दा।

Akhileshwar Pandey said...

और बरसता रहे यह शब्द चित्र यूं ही बस यूं ही