Tuesday, October 20, 2015

पूर्णता अभिशाप है


एकांत बड़ी महफूज जगह है. बाहरी एकांत नहीं, भीतर का एकांत। गहन एकांत। उदासी के सबसे कीमती ज़ेवर उसी लॉकर में रखे होते हैं. उदासियाँ जब इश्तिहार सी होने लगती हैं तो उनकी आत्मा पे सलवटें सी पड़ने लगती हैं. उन्हें बचा के रखना ज़रूरी है. सहेज के.

ज़माने भर में कोहराम मचा है, सब कह रहे हैं, मैं भी कह रही हूँ. इन दिनों कुछ ज्यादा ही कह रही हूँ. लेकिन सोचती हूँ सुन कौन रहा है. मौन एक कोलाहल में तब्दील हो चुका है. कहते कहते थक जाना, सोते सोते जग जाना। सांसों की आवाजाही पे कान धरके घटती बढ़ती उसकी लय को पकड़ने की कोशिश करना।

इस एकांत में सबसे ज्यादा जो काम होता है वो खुद को खारिज करने का होता है. मुझे शोर अच्छा नहीं लगता। मैं अपनी ही आवाज से डरने लगी हूँ. ऐसे गहन एकांत में सांस की लय भी साफ़ सुनाई देती है. एकदम साफ़.

मुझे नींद आ रही है लेकिन जानती हूँ जैसे ही आँखें बंद होंगी नींद गायब हो जाएगी। कभी कभी यूँ लगता है कि मैं अपनी देह की कब्र में जागती हुई कोई लाश हूँ. मिटटी में दबी मिटटी। अँधेरे में दफ़न अँधेरा। रौशनी की उम्मीद बेमानी है. अजीब बात है कि दफ़न होकर भी चैन नहीं है.

चैन होता क्या है आखिर? सोचती हूँ कब था चैन जीवन में. जब कोई लम्हा वक़्त की शाख से टूटकर गिरने को हुआ था और हमने अपना आँचल फैला दिया था. वो टूटकर गिरना मुक़्क़मल नहीं हुआ, न हसरत से तकता इंतज़ार, लेकिन वो जो अधूरापन था, वो चैन था शायद।

किसी इच्छा का पूरा होना कुछ नहीं होता, इच्छा का होना सबकुछ होता है. उस इच्छा के होने में ही जीवन है, चैन है, शांति है. पूर्णता अभिशाप है.


4 comments:

Archana Chaoji said...

निरंतर क्रियाशील रहना ही जीवन है .... बिना फल की चिंता के ....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (22-10-2015) को "हे कलम ,पराजित मत होना" (चर्चा अंक-2137)   पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
विजयादशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

अरुण चन्द्र रॉय said...

प्रभावशाली लेख।

शचीन्द्र आर्य said...

अकेले, खाली, शांत बैठे रहना, किसी आने वाले पल की तय्यारी भी है। उन दिनों को मन में पहले ही सोच लेने की ज़िद की तरह।