Saturday, September 5, 2015

इससे कम पे अब बात बनेगी नहीं...


बहरी सत्ताओं के कानों में
उड़ेल देना हुंकार

भिंची हुई मुठ्ठियों से तोड़ देना
जबड़ा बेशर्म मुस्कुराहटों का

रेशमी वादों और झूठे आश्वासनों के तिलिस्म को
तोड़ फेंकना
और आँखों से बाहर निकल फेंकना
जबरन ठूंस दिए गए चमचमाते दृश्य

देखना वो, जो आँख से दिखने के उस पार है
और सुनना वो
जो कहा नहीं गया, सिर्फ सहा गया

जब हिंसा की लपटें आसमान छुएं
तुम प्रेम की कोई नदी बहा देना
और गले लगा लेना किसी को जोर से

अँधेरे के सीने में घोंप देना रौशनी का छुरा
और दर्ज करना मासूम आँखों में उम्मीद

हाँ, ये आसान नहीं होगा फिर भी
इससे कम पे अब बात बनेगी नहीं।

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ठोंक दो कीलें हथेलियों में
खींच लो जबान हलक से 
जोर से करो वार रीढ़ की हड्डी पर
नाखूनों में खप्पचियां घुसा दो
तोड़ दो सर पे ढेर सारी कांच की बोतलें
तेज़ाब की नदी बहा दो जिस्म पर
कोड़ों से पीठ छलनी कर दो
आओ हत्या ही कर दो तुम मेरी
बस कि हमारी बेबसी है कि नहीं बन सकते समझौतापरस्त
और तुम्हारी बेबसी कि नहीं हिला सकते फौलादी इरादों से हमें...


3 comments:

Ritesh Kumar Nischhal said...

सचमुच इससे कम पर तो अब बात बनेगी ही नही। एक सच्चे हिन्दुस्तानी का क्रोध कब तक शांत रहेगा। अब इंसानियत भी चीख रही है ..जो सब्र की चादर में भी पैबंद लगाकर ओढ़े हुए है। …कब तक सियासी मामलो में जिन्दा दफन होती रहेगी मासूम जिंदगिया। ।
सचमुच इससे कम पर तो अब बात बनेगी ही नही।

Onkar said...

उम्दा रचना

Onkar said...

उम्दा रचना