Tuesday, August 25, 2015

वापस लौटना मुझे अच्छा नहीं लगता...



लड़की बेसब्र होकर रास्तों को बाहों में समेट लेने को दौड़ पड़ती थी। जब रास्ते उसके हाथों से फिसल जाते तो उसके भीतर एक और ही इच्छा जागती, उन रास्तों पर बिछ जाने की इच्छा, बहती धार को पोर-पोर में जज्ब कर लेने की इच्छा या अपनी सारी नमी बारिशों के हवाले कर देने की उफनती हुई इच्छा...लड़की अपने भीतर ढेर सारी इच्छाओं को गड्डमगड्ड होते देखती।

इन गड्डमगड्ड होती इच्छाओं के बीच एक चेहरा उगता। सुबह की पहली किरन सा उजला चेहरा। उस चेहरे की नाक पकड़ना लड़की को इतना पसंद था कि वो सारी रात अपनी इच्छाओं की आंच पर अपने आंसुओं का ईंधन डालकर उन्हें जलाये रखती और जैसे ही वो चेहरा उगता वो उसकी नाक पकड़ने को लपकती...

'आह...लगता है न पगली...' चेहरा अचानक बोल पड़ता।
'अरे, तुम तो सच्ची में हो?'  लड़की उसकी नाक पकड़े पकड़े ही पूछती।
'नहीं....मैं नहीं हूं...भूत है मेरा...' लड़का अनमना होकर जवाब देता।
'भूत....हा हा हा...हा...हा...हा...'
लड़की जोर-जोर से हंसती...

'अगर तुम भूत हो तो भी मत डरो। तुम्हारा कोई कुछ न बिगाड़ सकेगा.., '
'हां, अगर मैं भूतनी होती या डायन तब तो गई थी काम से...तुमको पता है पहले लोग डायनों से डरते थे अब डायनें लोगों से डरती हैं....'
लड़की की आवाज ज़रा सर्द होने लगी थी।

'वैसे है तो तू चुड़ैल ही...पर मैं तुझे कुछ होने नहीं दूंगा...' कहते हुए लड़के ने उसकी उदास होने को आई आवाज को धौल देते हुए उसकी चोटी खींची।

लड़की फिर से खिलखिला उठी...कि उस रोज हंसने का मौसम था...शाखों पर पत्ते हंस रहे थे, सड़कों पर भरा हुआ बारिश का पानी खिलखिला रहा था, छप्पाक छप्पाक खेलते बस्तों के भीगने से बेपरवाह बच्चे खुश थे, बछड़े की गरदन पर दुलार करती गैयया खुश थी....आसमान खुश था...धरती खुश थी...
लड़की को इस कदर खुश देखकर लड़का उदास हो जाता। जाने क्यों लड़की का यूं खिलखिलाकर हंसना उसे अच्छा शगुन नहीं लगता था। उसकी हर हंसी के भीतर लड़के को कोई उदासी, कोई नमी सी झांकती मिलती थी।

उधर लड़की ने बेवजह हंसना अभी नया-नया ही सीखा था। उसकी हंसी किसी नवजात की किलकारी सी मालूम होती थी। जिसे देख सुख का समंदर भी उमड़ पड़ता और अनजाना कोई भय भी दबोच लेता। तुरंत हाथ काला टीका लगाने को बढ़ते और मुंह से थू-थू निकलती है। उफफफ ये बुरी नज़र का चक्कर...

'अच्छा अब बस करो.' लड़का उसकी हंसी पर से अपनी निगाहें फेरते हुए कहता है। उसे डर है कि कहीं उसकी ही नजर न लग जाये लड़की को।
'क्यों? मैं तुम्हें हंसते हुए अच्छी नहीं लगती?'  लड़की हंसते-हंसते ही पूछती।
' नहीं, मैं तुम्हारी हंसी के पीेछे से आने वाली उदासी से डरता हूं। '
'अच्छा, मेरी दादी कहती थीं कि लड़कियों को जोर से नहीं हंसना चाहिए। वो भी नजर लगने से डरती होंगी तुम्हारी तरह, सारा जमाना तो लड़कियों की मुस्कुराहटों का बैरी ही बना है न जाने कबसे....लेकिन तुम डरा मत करो...
मैं तो इतना हंसना चाहती हूं कि सारी दुनिया में सिर्फ हंसी ही बचे. सोचो अगर धरती की सारी लड़कियां एक साथ खुलकर हंसे तो धरती किस कदर गम से खाली होगी...किस कदर महकती...लहकती...'
' हम्ममम ये तो है...लड़के ने धीरे से कहा।'

'बस, हमें अपने हंसने की वजह खुद बनना होगा...हर निराशा के आगे अपनी मुस्कुराहटों की बाड़ लगा देनी होगी...मैंने देखा है दुःख न मुस्कुराहटों से बहुत घबराता है। सच्ची।'  लड़की ने उसकी नाक फिर से पकड़ते हुए कहा...

'अच्छा बाबा ठीक है....'  लड़का अपनी लाल हो चुकी नाक को सहलाने लगा।
उस रोज बहुत बारिश हो रही थी। बहुत बारिश। लड़की ने अपनी भीगने की इच्छा को लड़के की हथेली पर रख दिया। लड़का उसे पंखों पर बिठाकर उड़ चला बादलों के गांव। धरती का कोना-कोना भीग रहा था...लड़की ने भी अपने सारे सूखे मन उस बारिश में बाहर निकाल लिए....कि कोई कोना भी सूखा रहे मन का तो भीगने का क्या फायदा...लड़की रास्तों पर नाचती फिरती थी। हरी-हरी पत्तियों को दुलराती फिरती थी। धरती की धानी चूनर को लपेटे वो खुद धरती हो गई थी।

वादियां कैसी चांदी सी चमक उठी थीं उस रोज। उनके चेहरे भी चांदी हो गए थे...उनकी हंसी भी। मुस्कुराहटों के गुच्छों को समेटने को पेड़ों की टहनियां कम ही पड़ गयी थीं। सो दीवारों पर भी उग आये थे हंसी के गुच्छे। कोई हरी सी हंसी...भरी-भरी सी हंसी।

वो बार-बार दौड़कर रास्तों के गले लगने को भागती, मौसमों को मुट्ठियों में भींच-भींचकर खुद को निचोड़ने की कोशिश करती। और थककर बैठ जाती...बूंदों भरे रास्ते पर।

लड़का उसे लाड़ में भरकर लौट चलने को कहता... लड़की की चहक दुगुनी हो जाती।

'नहीं...वापस लौटना मुझे अच्छा नहीं लगता...सुना तुमने...' और वो अपनी खिलखिलाहटों को आसमान में उछाल देती।

अब आसमान से बूंदें अकेले नहीं बरस रही थीं, उसमें लड़की की हंसी भी बरस रही थी।


Sunday, August 23, 2015

जिसको जैसी आंच मिली...


किसी ने दाल पकाई
किसी ने मुर्ग
किसी ने देगची पर चढ़ाये शब्द

जिसको जैसी आंच मिली
उसकी वैसी बनी रसोई

चैन से सोया था मजूर दाल खाकर
रात भर देखता रहा सपने मुर्ग के

मुर्ग खाकर बमुश्किल आई नींद में
सपने में दिखती रही बड़ी गाड़ी

शब्द की देग तो चढ़ी ही रही
कि कोई किस्सा पकने को न आता था
आंच कुछ कम ही रही हमेशा

जागती आखों में कोई शाल उढ़ाता रहा
लोग तालियां बजाते रहे

अधपकी देगों से आती कच्चे मसालों की खुशबू से दूर
कोई बांसुरी बजा रहा है.… सुना तुमने?