Tuesday, June 9, 2015

आकाश की मुठ्ठी खाली है...


रात की कटोरी में झरती है चौदहवीं के चाँद की
दूधिया फेनिल चांदनी
ख्वाबों भरी पलकों को लुढ़का देती है
तेरी बातूनी आँखें
एक ये चांदनी बहुत आज़िज़ करती है बोल बोल के
दुसरे तुम्हारी आँखें
नींद के गांव में ख़्वाबों की कोई रहनवरी ही नहीं

बस जागती आँखों की पहरेदारी पर मुस्तैद हैं कुछ दर्द दिल के
यादों के गुच्छे हिलते हैं चांदनी रात में हलके हलके
धरती जाने क्या ढूंढती फिरती है घूम घूम के
आकाश की मुठ्ठी खाली की खाली है

दूर कहीं कोई समंदर चीखता होगा उल्लास में
आकुल सा व्याकुल।


पागल समनदर पागल चांदनी
पागलपन ही तो है हर इश्क़ की दास्तान ...