Sunday, March 15, 2015

विरहन की आह सी बारिशें...


बारिशों के साथ उतरता है कोई दिन. ये उदास बारिशें किसी विरहन की आह सी मालूम होती हैं. धरती उदास है, आकाश चुप. किसान अपने खेतों में इश्क़ की फसल बड़े जतन से उगाते हैं और ये बेमौसम बरिशें इश्क़ के इम्तिहानों सी....पलकों में आंसुओं की झालर बुनती बारिशें, ख्वाहिशें...

ये कॉफी में रूमानियत घोलकर पी जाने वाला दिन तो हरगिज़ नहीं। अनमनापन पूरे जिस्म में तारी है जिसे एक स्त्री झाड़न लेकर झाड़ती फिरती है. जब जीवन में जाले बहुत होने लगते हैं, धुंध चढ़ने लगती है तो वो घर की सफाई में जुट जाती है, मानो घर के दरो-दीवार झाड़कर, वो झाड़ लेगी जीवन के जाले भी. फर्श की चमक के साथ चमक उठेगा मन भी और शायद धरती का हर एक कोना भी.

झाड़ने के दौरान उसे वर्जीनिया वुल्फ, स्त्री के लिए एक कमरा लिए. मिलती है मरीना त्स्वेतायेवा, वेरा, अन्ना, परवीन, अज़रा, अन्ना अख्मतोवा, पावलोवा , सिमोन। दुनिया की तमाम स्त्रियां तमाम युगों की स्त्रियां सब एक साथ मिलकर झाड़ने लगी हैं खिड़कियां, दरवाजे, सोफे। सब गहरी ख़ामोशी के भीतर डुबकियां लगातीं। सारी सहेलियां एक ही कप चाय लेकर खिड़की के पास बैठती हैं, देखती हैं दूर तक जाने वाली भीगी सड़क.…बीत ही जायेगा कुछ पलों में ये उदास दिन भी.

दिन बीतना नहीं होता उदासी का बीतना। धूप चाहिए खेतों को, सड़कों को, शहर को, दिल को कि बारिशें हमेशा अच्छी नहीं लगतीं। भूख पर रोटी और प्यास पर पानी न मिले तो सब बेवजह ही तो है. इस वक़्त हाथ में चाय का प्याला हाथों में थामना असल में बेवजह ही सही एक उम्मीद को थामना है हाथों में.… कि शायद फसलें मुस्कुराएंगी , दिल भी , मोहब्बत भी, दिन भी, हम भी , तुम भी.

जिंदगी काश चाय होती हमेशा या तो अच्छी या बहुत अच्छी....

(बीतता दिन, उदास बारिशें, अधूरा पन्ना )

4 comments:

दिगम्बर नासवा said...

चाय की प्याली और हाथों में बंधी उम्मीद ...
बहुत ही अच्छा लिखा है ...

वर्षा said...

धूल झाड़ती सभी स्त्रियों वाला हिस्सा मुझे ख़ास पसंद आया

neera said...

यह झाड़न ही तो है जो हमें बचा लेता है डूबने से … मेरी डायरी का कोरा पन्ना तुम्हारी डायरी के पन्ने से कह रहा है मैं भी कुछ ऐसा ही कहना चाहता था पर तुम्हारे जैसे शब्द और भाषा हाथ नहीं आये। …

abhi said...

बहुत सुन्दर!