Tuesday, December 16, 2014

रू-ब-रू जिंदगी है...


दिन रात लम्हों की खपत के बाद एक पूरी उम्र गुजार देने के बाद जिंदगी को ढूंढना...उसे बीते हुए लम्हों में तलाशना। वो लम्हा जिसमें हमारे होने की खुशबू दर्ज है, जो अब तक जेहन के किसी कोने में वैसा ही ताजा है...उसी तरह मुस्कुरा रहा है जैसे उस वक्त मुस्कुराया था। जब वो आसमान से उतरकर हमारे शानों पर आ बैठा था...उतनी सी...बस उतनी सी ही थी जिंदगी....मीठी सी जिंदगी...उस एक मुक्कम्मल लम्हे में सांस लेती जिंदगी...

ऐसे ही लम्हों को समेटकर, बटोरकर इन दिनों एक जगह पर इक्ट्ठा कर दिया गया है और नाम रखा गया है जिंदगी। हां, ये जिंदगी चैनल की ही बात है। बाद मुद्दत शामों को कोई ठौर मिला। बाद मुद्दत लोगों को लगा कि कम से कम किसी ने तो उनकी समझ पर यकीन किया और उन्हें कुछ बेहतर दिया। बाद मुद्दत एक सीन पर कलर से ग्रे होते पांच से दस लोगों के स्टिल पोज दिखाकर कुछ आश्चर्यजनक, सनसनीखेज होने का संकेत नहीं है। सालहा बिना वजह बस चलते चले जा रहे सिलसिले को विराम मिला। जिंदगी चैनल ने इसे महिलाओं का चैनल होने से बचाया है। इसके दर्शकों में महिलाएं व पुरुष दोनों हैं।
'जिंदगी गुलज़ार है' से हिंदुस्तान के दर्शकों को अपनी ओर खींचने वाले इस शो का रिपीट टेलीकास्ट भी काफी पसंद किया गया। इसके बाद तो काफी धारावाहिकों ने दर्शकों को अपना बनाया। एपिसोड डाउनलोड हो रहे हैं। हर एपिसोड के बाद लोग ट्वीट कर रहे हैं...फेसबुक स्टेटस अपडेट कर रहे हैं। अपने सीरियल के खत्म हो जाने पर उसे, उनके किरदारों को मिस कर रहे हैं। यह सब देखते हुए मुझे मेरे बचपन के वो दिन याद आते हैं, जब एक ही चैनल आता था वो भी चंद घंटों के लिए। हम लोग, बुनियाद, ये जो है जिंदगी, कच्ची धूप, आशा पूर्णा देवी और शरतचंद्र की कहानियांे का दौर था। चित्रहार, रंगोली का समय, दादा दादी की कहानियां, किस्सा-ए-विक्रम वेताल, रामायण, महाभारत का समय। जब सब एक साथ होते थे। फिर जी टीवी सारेगामा, सेलर, अस्तित्व एक प्रेम कहानी, रिश्ते ने भी लोगों का प्यार हासिल किया। इन सबमें कहीं कोई मेलोड्रामा नहीं था। सास-बहू का झंझट नहीं था। यहां स्त्रियां षडयंत्र करती और पुरुष डमी किरदार की तरह खड़े नहीं होते थे। न ही स्त्रियां 
आदर्शवादिता की वेदी पर अपनी बलि देते हुए आदर्श बहू का तमगा पाने को बेकरार होती थीं। 

जैसे-जैसे चैनल्स बढ़ते गये, न जाने कहां गुमने लगे मुंगेरी लाल के हसीन सपने, मालगुडी डेज, मैला आंचल...एक बहू अपने महंगे जेवरात और साडि़यों में, आदर्श बनने की होड़ में लगातार सहते जाने की सीमाओं कों लांघते हुए या फिर षडयंत्र रचते हुए, लंबे नाखून, गहरी लिपिस्टिक, किलो भर मेकअप, कुंटल भर की साड़ी अथाह साजिशों के साथ लोगों को लुभाने लगी। मानो स्त्रियां या तो षडयंत्रकारी होती हैं या बलिदानी। ओपेन सोसायटी के नाम विवाहेतर संबंधों की बाढ़ आ गई। जैसे रिश्तों से बाहर निकलना ही आजादी हो...। यह सब जिस तरह परोसा जाने लगा कि एक छोटा ही सही पर टीवी को शौक से देखने वाला वर्ग टीवी से दूर होने लगा। सेंसबिलिटी लगातार नदारद रहे तो कोई कब तक साडि़यां, गहने और साजिशें देखते रह सकता है। प्रोडक्शन हाउसेज ने पब्लिक डिमांड के नाम पर सास बहू और साजिश की अफीम परोसनी शुरू कर दी। जाहिर है नशा तो होना ही था। लेकिन इस नशे को अपनी जीत समझने वालों के लिए कोई जवाब नहीं था किसी के पास। अगर सब टीवी को छोड़ दें तो अमूमन सभी चैनल लगभग एक ही सुर में सुर मिलाते नजर आते हैं। जिन्होंने कुछ अलग करने की शुरुआत भी की उन्हें भी या तो बीच में ही अपना शटर डाउन करना पड़ा या फिर उसी सुर में सुर मिलाना पड़ा।
टीआरपी की दौड़ में भागते इन तमाम चैनलों में से किसी ने उस छोटे से वर्ग की नाराजगी की परवाह नहीं की जिसने खुद को चैनल्स की दुनिया से दूर कर लिया था। 22 वर्षों से जीटीवी इंटरटेनमेंट की दुनिया में है। उसने उन दर्शकों का ख्याल किया और जिंदगी चैनल शुरू किया। रूमानियत, सहजता, सरलता से भरा चैनल जिसकी कहानियां दो से तीन महीनों में खत्म हो जाती हैं। जिंदगी की आॅडियंस के बारे में चैनल के चीफ कंटेंट एंड क्रिएटिव आॅफिसर भरत रंगा के अनुसार इस चैनल को देखने वाले नौकरीपेशा लोग, वकील, डाॅक्टर, बिजनेसमैन, प्रोफेसर, हाउस वाइफ वगैरह हैं। ये चैनल टीआरपी की रेस से शुरू से ही दूर है। इसका लक्ष्य स्पष्ट था। इसका दर्शक वर्ग सीमित होगा यह भी पहले से पता था लेकिन यह इतनी तेजी से इतनी लोकप्रियता हासिल करेगा यह शायद उम्मीद किसी को नहीं थी।
पाकिस्तान में लोकप्रियता हासिल कर चुका धारावाहिक जिंदगी गुलजार है...के कशफ और जारून की प्रेम कहानी को लोग बार-बार देखना चाहते थे। इसके एपिसोड डाउनलोड होने लगे, टाइटल सांग डाउनलोड होने लगे। आम जिंदगी की सादा सी कहानियों को लेकर कितनी गिरहें बाकी हैं भी लोगों को पसंद आया।
इसके बाद एक के बाद 'मेरे कातिल मेरे दिलदार', 'थकन', 'मस्ताना माही', 'काश मैं तेरी बेटी न होती' ने भी दर्शकों को अपने पास रोकना शुरू किया। लेकिन 'जिंदगी गुलजार है' में जारून बने फवाद खान इस चैनल के चहेते कलाकार बन गए। वो जब हमसफर में फिर से नज़र आये तो लोगों ने अपनी धड़कनों को थामकर इस धारावाहिक को देखा। रिपीट टेलीकास्ट भी इसका सुपरहिट रहा। इन धारावाहिकों की कौन सी बात है जो दर्शकों को पसंद आ रही है यह जानना भी जरूरी है। लोगों का कहना है कि इसके नाटकों में नाटक कम होता है यानी नो ड्रामेबाजी। फिजूल का ग्लैमर नहीं। जिंदगी जैसी सादा सी होती है, जैसी उलझनें उसमें होती है, जैसे धूप होती है जिंदगी में है जैसी छांव या फिर जैसी बारिश वो सब वैसा का वैसा ही यहां नज़र आता है।
विषय नये हैं और पूरे जेहनी मरम्मत की कश्मकश के साथ आते हैं। बिना किसी झंडाबरदारी के यहां कहानियों में तमाम रूढि़यों के टूटने की आहटें सुनाई देती हैं। कोई बड़े-बड़े दावे किये बगैर इसकी कहानियां दिमाग में लग चुके जालों को साफ करती हैं। बावजूद तमाम तालीम के जो तरबियत हासिल नहीं हो पाई जो जेहन का अंधेरा दूर होने से रह गया उसे जिंदगी की कहानियां हटाने की कोशिश करती हैं।
पिछले दिनों मस्ताना माही की छोटी बहू अपनी सौतन से जो अपना शौहर बांटना नहीं चाहती और इस बात को लेकर काफी परेशान है से कहती है, कि हम कितनी छोटी चीजों में उलझे रहते हैं, शौहर शेयर नहीं करने को लेकर परेशान हैं जबकि हजारों लाखों लोगों के दिलों का दर्द शेयर किया जाना बाकी है जो बहुत जरूरी है उस पर ध्यान नही नहीं देते। जिस वक्त हम यह सोचते हैं कि आज खाने में इटैलियन खाएं या चाइनीज उसी वक्त कितने सारे लोगों कि चिंता होती है कि उनके बच्चों को खाना मिलेगा भी या नहीं। इसी धारावाहिक में धारावाहिक के नायक जो कि एक पाॅलिटिकल लीडर है के किडनैप होने पर किडनैपर जो मांग करता है वो पूरी दुनिया के सामंतवादी रवैये की कलई उतारता है। घर की औरतों को फोन करके किडनैपर कहता है कि हम उसे तब छोड़ेंगे जब तुम लोग स्कूल बंद करोगे, लोगांें को पढ़ाना लिखाना, उन्हें समझदार बनाना बंद करोगे। जाहिर है पूरी दुनिया की सत्ताएं लोगों की जाहिलियत, उनकी मजबूरियों, उनकी नासमझियों पर ही तो चल रही हैं। आपसी मतभेदों को भुलाकर घर की तीनों औरतें मां और दो पत्नियां एक सुर में कहती हैं, मार दो उसे...क्योंकि अगर उसके सपने मर गये तो वो वैसे भी मर ही जायेगा।
व्यक्ति का मरना मंजूर करके उसके सपने बचाने का माद्दा रखना सिखा गया एक छोटा सा एपिसोड। अपनों की फिक्र करना लेकिन बेजा बातों की मुखालफत करना भी जरूरी है। माॅडर्न होने का अर्थ सिर्फ खुले या ग्लैमरस कपडे़, मेकअप या अंगे्रजी नहीं है। सर पर दुपट्टा रखकर घर परिवार की सेवा करती औरतें वक्त आने पर जिस मजबूती से अपनी बात रखती हैं, अपने आत्मसम्मान को हर हाल में बचाये रखने की कोशिश करती हैं वो तारीफ के काबिल है।
एंटरटेनमेंट मीडिया पर भी जिम्मेदारी होती है, अपने दर्शकों के बौद्धिक विकास की वो जहां हैं, वहां से थोड़ा आगे बढ़कर सोचना शुरू करें...लंबी-चैड़ी टीआरपी के लिए मारामारी करने से बेहतर है कि कुछ बेहतर कर पाने की जद्दोजेहद। फिलहाल जिंदगी चैनल ने एक छोटी ही सही शुरुआत तो की है। पुराने दिनों की यादें भी ताजा की हैं। लेकिन दर्शकों के मन में कुछ शंकाएं भी हैं कि दो से तीन महीने में खत्म होने वाले इस चैनल पर कब तक बेहतर कहानियों का यह सिलसिला चल पायेगा। चैनल की कंटेट डिजाइनिंग टीम ने इस बाबत चैकन्नी लगती है। कंटेंट डिजाइनर्स की एक बेहतर टीम बनाने की उनकी योजना है। साथ ही एक क्रिएटिव पूल बनाने की भी जिसमें दुनिया भर के बेहतर साहित्य का शुमार होगा। भारत, पाकिस्तान, पश्चिम एशिया, यूके, टर्की वगैरह के परफाॅर्मिग टैलेंट पर भी इनकी नजर है। कहानियों के चुनाव का आधार सिर्फ एक होगा कि वो लोगों के दिलों को बांध सकें...उनके जेहन में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कर सकें। इस सिलसिले में कुछ डेढ या दो घंटे की टेलीफिल्में भी शामिल होने की बात है।
बहरहाल, क्या दिखायेंगे, कहां से लायेंगे ये तो चैनल वाले ही जानें दर्शक फिलहाल इसी राहत में हैं कि उनके पास एक बेहतर आॅप्शन है जिंदगी। दिन भर की थकन उतारकर हाथ में एक प्याली चाय लेकर कुछ बेहतर कहानी, कुछ गज़ल और कुछ बेहतर संवाद सुनने के सुकून की उम्मीद में आ बैठना जिंदगी के रू-ब-रू।

5 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना बुधवार 17 दिसम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

दिगम्बर नासवा said...

ये तो दौर की बात है ... हर तरह का दौर आता है ... अपना अपना वक्त ... कभी कुछ अच्छा तो कभी कुछ ... पर इंसान बीती बातों को समय के साथ साथ ज्यादा करीब पाता है अपने ...

मुकेश कुमार सिन्हा said...

अच्छी लगी

मन के - मनके said...

जो लिखा---अनुभव जन्य लिखा.
पूर्ण सहमति से---इसलिये आज के धारावाहिक
स्वस्थ को रुग्ण करते हैं.
समाज की चूरें ढीली हो रही हैं और हम चरमरा रहें हैं.

Juhi Verma said...

बहुत ही उम्दा