Tuesday, September 30, 2014

और पलको पे उजाले से झुके रहते हैं....


हम ने देखी है उन आखों की महकती खुशबू
हाथ से छूके इसे रिश्तो का इल्जाम ना दो 
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो 
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो 

प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज नहीं 
एक खामोशी है सुनती है कहा करती है
 न ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कही 
नूर की बूँद है, सदियों से बहा करती है 

मुस्कराहट सी खिली रहती है आँखों में कही
और पलको पे उजाले से झुके रहते हैं 
होंठ कुछ कहते नहीं, कापते होठों पे मगर
कितने खामोश से अफसाने रुके रहते हैं...



Monday, September 29, 2014

स्त्रियां सुनती नहीं हैं हमारी...




स्त्रियां सुनती नहीं हैं हमारी...जब
बेटे की शादी में मांगना होता है दहेज

जब, प्रताडि़त करना होता है
घर की बहू को मायके से
और ज्यादा पैसे लाने के लिए

जब, बेटा पैदा करने की जिद में
करवाना होता है गर्भपात

जब, रखने होते हैं निर्जला व्रत
छूने होते हैं हमारे पैर
और वो बनाती हैं हमें परमेश्वर

स्त्रियां सुनती नहीं हैं...हमारी
वो हमारी एक नहीं सुनतीं

और इन सबके अलावा 
'हम उनकी एक नहीं सुनते...'

यह बात जानबूझकर नहीं कहते वो....

(पेंटिंग- देविका, साभार- गूगल)

Saturday, September 20, 2014

कश्मीर- महफ़ूज़, शब्द कितना महफूज़ बचा है अब?



पुरानी किसी एल्बम से झांकते हैं
दुआ में उठे कुछ हाथ,
इस्तेकबाल में आगे बढे कदम
सीने में उड़ेल दिया गया प्यार
और दिल फरेब मेहमाननवाजी

पुरानी किसी एल्बम से झांकती हैं
पोशीदा मुस्कुराहटें
शरारतें

किसी नाज़नीन की तरह
बाद तमाम नखरों के अपने प्रेमी
के सीने में दुबक जाने की मानिंद
हवा में देर तक गोल चक्कर लगाने के बाद
धरती के सीने में चुपचाप टिकते
पत्ते चिनारों के

पुरानी किसी एल्बम से
एक ठंडी हवा का झोंका
दाखिल होता है कमरे में
ऊब, उमस और निराशाओं के कुहासे
ताज़ी खुशनुमा हवा के झोंको में
तब्दील होने लगते हैं

कहवे की खुशबू
उड़ा ले जाती है चिनारों के साये में

डल झील के एकदम बीचोबीच
देखा गया वो ढलता हुआ सूरज
आँखें मलता हुआ
झांकता होगा न जाने कितनी
पुरानी एल्बमों से

अनंतनाग, गुलमर्ग, पहलगाम
मुस्कुराते हैं पुरानी एल्बम में
सेब के बागान और उनकी मिठास से लबरेज
वहां के लोगों की ज़बान
केसर के खेत
अखरोट के बाग़

यहाँ वहां चौकन्ने सिपाहियों की आँखें
अचानक मदद को आगे बढ़ते हाथ
जो यक ब यक तो डराते हैं
फिर दोस्त बनकर हाथ हिलाते हैं
गुम गए रास्ते ढूंढकर पांव में पहनाते हैं

कश्मीर यूनिवर्सिटी की खूबसूरती झांकती है
पुरानी एल्बम से
समूचा श्री नगर मुस्कुराता है
उतरती शामों को कन्धों पर समेटते हुए लाल चौक से
मुख्य बाजार तक टहलते हुए जाना
और लौटते समय याद में रह जाना
लोगों का दिल जीत लेने का हुनर

पुरानी डायरी में दर्ज है कहीं कि
कश्मीर सिर्फ अपनी कुदरती खूबसूरती के कारण
नहीं बल्कि
यहाँ के लोगों की नेक नियति
मोहब्बत और दिलों में भरी मिठास के कारण
भी ख़ास है…

सियासतदानों के खेल के चलते
सरहद पर खिंची लकीरें
दिलों पे भी उभरने लगीं
नहीं ये पुरानी एल्बम में कहीं दर्ज नहीं

हाँ, दर्ज हैं ढेर सारे सैनिक
रात दिन धरती के सबसे सुन्दर टुकड़े की हिफाज़त में तैनात

बर्फ से ढंकी वादियों में जब लाल छींटें उड़ते हैं
तब समूचे देश की नींद की चादर
उड़ गयी हो ऐसा दर्ज नहीं है
न डायरी में न पुरानी एल्बम में

कुछ बेशर्म बयान दर्ज हैं
अख़बारों में, कुछ बेहूदा तर्क
मगरूर चैनलों में

नहीं दर्ज है मासूमों का खौफ,
न, सेना की मुश्किलें
और कहीं नहीं दर्ज है दोनों के
बीच खाई तैयार करने वालों के स्याह इरादे

आज फिर संकट में है धरती का स्वर्ग
फ़ोन पर आती है एक घबराई हुई आवाज
सब बह गया, सब बह गया
अल्लाह का शुक्र है
मेरा परिवार महफूज है
अल्लाह का शुक्र है.…

उफ्फ्फ्फ़, महफ़ूज़, शब्द कितना महफूज़ बचा है अब?


Tuesday, September 9, 2014

रब सा ऊंचा इश्क़....


छोटा पेड़ - सुनो, आसमान के इत्ते पास पहुंचकर कैसा लगता है?
बड़ा पेड़ - तुझे कैसे पता कि मैं आसमान के पास हूँ?

छोटा पेड़- देखकर लगता है.
बड़ा पेड़- (हा हा  हा) जिस रोज देखे हुए को सच मानने से मुक्त होगे, उस रोज मिल जायेगा तुम्हें अपने सवाल का जवाब भी. 

छोटा पेड़- (अनमना होकर ) मत बताओ। लेकिन ज्ञान मत दो. हुँहहहह

बड़ा पेड़- अच्छा सुनो, मैं आसमान के पास नहीं गया. एक रोज मेरे कानो से होकर गुजरा एक शब्द 'इश्क़' उसी रोज ये आसमान झुककर मेरे करीब आ गया.…
ऊँचाई क़द की नहीं इश्क़ की होती है....समझे ?
छोटा पेड़- (सर खुजाते हुए) पता नहीं, हाँ शायद, नहीं शायद 
बड़ा पेड़- हा हा हा.…

(कमबख्त इश्क़ )


Saturday, September 6, 2014

जीने की इच्छा का ताप...




गणित के पास नहीं है
जीवन के सवालों के हल
इसलिए अपने सवालों के साथ
बैठना किसी नदी के किनारे
या खो जाना किसी रेवड़ में

बीच सड़क पे नाचने में भी कोई उज़्र नहीं
न जुर्म है आधी रात को
जोर से चिल्लाकर सोये हुए शहर की
नींद उखाड़ फेंकने में

बस कि खुद को पल पल मरते हुए
मत देखना चुपचाप
अपना हाथ थामना ज़ोर से
और जिंदगी के सीने पे रख देना
जीने की इच्छा का ताप

जिंदगी धमनियों में बहने लगेगी
आहिस्ता आहिस्ता,,,