Sunday, July 13, 2014

जैसे बरसता है सावन...



खिलना ओ जीवन !
जैसे खिलती है सरसों 
जैसे खिलती हैं बसंत की शाख 
जैसे भूख के पेट में खिलती है रोटी 
जैसे खिलता है मातृत्व 
जैसे खिलता है, महबूब का इंतज़ार 
जैसे पहली बारिश में खिलता है रोम-रोम 

महकना ओ जीवन !
जैसे महकती है कोयल की कूक 
जैसे महकती हैं गेहूं की बालियां 
जैसे महकता है मजदूर का पसीना 
जैसे महकता है इश्क़ का इत्र 
जैसे महकती है उम्मीद की आमद 
जैसे महकते हैं ख्वाब 

बरसना ओ जीवन !
जैसे चूल्हे में बरसती है आग 
जैसे कमसिन उम्र पर बरसती है अल्हड़ता 
जैसे सदियों से सहते हुए लबों पर 
बरसता है प्रतिकार का स्वर 
जैसे पूरणमाशी की रात बरसती है चांदनी 
जैसे इंतज़ार के रेगिस्तान में 
बरसता है महबूब से मिलन 
जैसे बरसता है सावन...

9 comments:

Onkar said...

बहुत सुंदर

वाणी गीत said...

खिलना , महकना और बरसना जैसे प्रेम का , माधुर्य का !
रसभरी कविता !

Unknown said...

Ati sunder prastuti....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (25-07-2014) को "भाई-भाई का भाईचारा"(चर्चा मंच-1685) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सार्थक क्षणिकाएँ।

कालीपद "प्रसाद" said...

बढ़िया क्षणिकाएं !
अच्छे दिन आयेंगे !

shashi purwar said...

bahut sundar

Pratibha Verma said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

Asha Joglekar said...

वाह, सावन बरसता रहे।