Thursday, July 31, 2014

हरा अब हरा ही है...बेपनाह हरा....




ये कौन चित्रकार है जिसने समूची धरती को हरे रंग में रंग दिया है। चारों तरफ हरा ही हरा। कम हरा, ज्यादा हरा...गाढ़ा हरा, हल्का हर. बस कि हरा ही हरा... हरे दरवाजे...हरी खिड़कियां... हरी दीवारें...हरे रास्ते...हरी मुस्कुराहटें...

दूर पहाड़ी पर बादलों का खेल जारी है। हम चुप्पियों को वादियों में उछालते हैं और वो संगीत बनकर हमारे पास लौटती हंै। सांसों के जरिये कोई संगीत भीतर उतरता है। उठती गिरती सांस...चुप्पियां और असीम हरा...शब्द कितने निरीह होते हैं चुप्पियों के आगे कि चुप्पियां जब अपना आकार लेती हैं तो दुनिया के सारे शब्दकोश, सारी भाषाएं सिमटने लगती हैं।

वादियों में बिखरा हरा और मौन का संगीत। धड़कन की ताल पर मौन के सुर...ये कौन सा राग है...? बादल का कोई टुकड़ा प्रश्न बनकर कंधे पर लुढ़क सा जाता है। उसके इस तरह कंधे से टिकने पर एक ख्याल जागता है कि अगर इन वादियों को बूंदों की ओढ़नी ओढ़ा दी जाए तो? मैं कंधे पर टिके बादल को हाथ लगाती हूं...वो एकदम ठंडा है...वो शायद ऊंघ रहा था। मेरी हरारत से वो चैंककर जाग उठता है। आंखें मलता है....मैं मुस्कुरा देती हूं। उसे थपकी देकर सुला देती हूं...बूंदों की ओढ़नी से वादियों को ढंकने की इच्छा को भी। हरे की संगत पर मौन राग आलाप लेता है... भीतर की वादियां भी हरी हैं...कुछ जख्म भी...मुस्कुराहटों के आसपास एक नमी का अहसास...

कुदरत के पास इतना हरा है फिर भी धरती के कुछ हिस्से कितने सूखे और ध्ूासर हैं। कुछ तो हम में ही कमी होगी कि हम कुदरत का दिया ले नहीं पाते...

कैलेंडर कहता है कि ये सावन का हरा है...मैं कहती हूं ये जीवन का हरा है। इस हरे की शिद्दत तो देखिए कि इंद्रधनुष से उतरकर एक-एक कर रंग हरे में ढलते जा रहे हैं... अंदर बाहर सब हरा ही हरा है...अप्रतिम हरा....

हाथ बेसाख्ता दुआ में उठते हैं कि काश! पूरी धरती पर प्रेम का हरा बरस जाए....सुकून का हरा...

नन्हे बच्चों का एक झुंड गुजरता है....उनके कोलाहल से वादियों में गूंजते मौन राग में नया ही सुर लगता मालूम होता है। मानो दो रागों को मिलाकर नये राग का जन्म हो रहा है...मौन राग में कोलाहल...

मैं एक टुकड़ा हरा बालों में टांकती हूं और एक टुकड़ा हरा हथेलियों पर रखती हूं। बादल का वो टुकड़ा मेरी हथेलियों को टुकुर-टुकुर देखता है...उसे कुछ समझ नही आता...लेकिन मेरी हथेलियों पर एक बूंद टपक जाती है। वादियों में बिखरे हरे को बूंदों की ओढ़नी से ढंक देने की ख्वाहिश अब मैं रोक नहीं पाती। बादलों की ओर हाथ बढ़ाती हूं और वो तो मानो बरसने को बेताब ही थे।

जाने क्या-क्या बरसा...बरसता रहा...जाने क्या-क्या भीगा...भीगता ही रहा...कुछ बारिशें उम्र भर को ठहर जाती हैं, कभी-कभी जीवन के सारे रंग हरे में ढलकर ही खुश होते हैं...

Sunday, July 13, 2014

जैसे बरसता है सावन...



खिलना ओ जीवन !
जैसे खिलती है सरसों 
जैसे खिलती हैं बसंत की शाख 
जैसे भूख के पेट में खिलती है रोटी 
जैसे खिलता है मातृत्व 
जैसे खिलता है, महबूब का इंतज़ार 
जैसे पहली बारिश में खिलता है रोम-रोम 

महकना ओ जीवन !
जैसे महकती है कोयल की कूक 
जैसे महकती हैं गेहूं की बालियां 
जैसे महकता है मजदूर का पसीना 
जैसे महकता है इश्क़ का इत्र 
जैसे महकती है उम्मीद की आमद 
जैसे महकते हैं ख्वाब 

बरसना ओ जीवन !
जैसे चूल्हे में बरसती है आग 
जैसे कमसिन उम्र पर बरसती है अल्हड़ता 
जैसे सदियों से सहते हुए लबों पर 
बरसता है प्रतिकार का स्वर 
जैसे पूरणमाशी की रात बरसती है चांदनी 
जैसे इंतज़ार के रेगिस्तान में 
बरसता है महबूब से मिलन 
जैसे बरसता है सावन...

Thursday, July 3, 2014

ईजा की हंसी जो बह गयी...



घर सुनते हीे गिरने लगती हैं दीवारें
ढहने लगती हैं छतें
आने लगती हैं आवाजें खिड़कियों के जोर से गिरने की
उतरने लगती हैं कानों में मां की सिसकियां
पिता की आवाजें कि बाहर चलो, जल्दी...

घर सुनते ही पानी का वेग नजर आता है,
उसमें डूबता हमारा घर, रसोई, बर्तन, बस्ते, खिलौने सब कुछ
घर सुनते ही याद आती है गाय जो बह गई पानी में
वो अनाज जिसके लिए अब हर रोज भटकते हैं
लगते हैं लंबी लाइनों में
वो बिस्तर जिसमें दुबककर
गुनगुनी नींद में डूबकर देखते थे न जाने कितने सपने

घर सुनते ही याद आती है
ईजा की हंसी जो बह गयी पानी के संग
घर सुनते ही याद आती हैं तमाम चीखो-पुकार
तमाम मदद के वायदे
घोषित मुआवजे
मदद के नाम पर सीना चौड़ा करके घूमने वालों की
इश्तिहार सी छपी तस्वीरें,

घर सुनते ही सब कुछ नजर आता है
सिवाय एक छत और चार दीवारों के....

(उत्तराखंड आपदा के एक वर्ष बाद )