Tuesday, March 19, 2013

युद्ध


जीवन जैसा वो है उसे वैसा स्वीकार करने से बड़ी आपदा कोई नहीं. हालांकि हर समझदार व्यक्ति यही सलाह देता है कि जीवन के सत्य को स्वीकार करो. शांति तभी संभव है. तो भाई, शांति नहीं चाहिए. आप समझदार, ज्ञानी लोग अपनी शांति अपने पास ही रख लो. हम तो मूरख, अज्ञानी ही भले. क्योंकि जीवन जैसा वो है वैसा मुझे स्वीकार नहीं. संभवतः यही वजह है कि युद्ध मुझे पसंद हैं. प्रतिरोध पसंद हैं.

युद्ध वो नहीं जो सीमा पर लड़े जाते हैं. युद्ध वो जो अपने भीतर लड़े जाते हैं. जिसमें किसी का बेटा, किसी का भाई किसी का पिता या किसी का प्रेमी शहीद नही होते बल्कि जिसमें हर पल हम खुद घायल होते हैं और अक्सर शहीद होने से खुद को बचा लेते हैं.

शांति , सुख, नींद, चैन ये सब बेहद उबाऊ शब्द हैं. इनमें जीवन नहीं है. इनमें जीवन युद्ध का विराम है बस. अल्पविराम. जिसके बाद उठकर वापस मोर्चे पर डटना है. जाने क्यों लड़ती रहती हूं हर पल. किससे लड़ती रहती हूं आखिर. खुद से ही शायद . अपनी ही शांति  को खुरचते हुए राहत पाती हूं. भीतर की तड़प, बेचैनी, उनसे बाहर आने की जिद, जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार न करने की जिद जीवन में होने के संकेत हैं. जितना भीषण युद्ध उतना सघन जीवन.


7 comments:

कालीपद "प्रसाद" said...


दोनों युद्ध सीमायों पर ही लड़े जाते है समाज से प्रभावित होकर मन ने भी हर कार्य के लिए एक सीमा तै कर रखा है, जब उस सीमा रेखा का उल्लंघन होता है तब भावना और वुद्धि में जंग छिड़ जाती है
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जीवन के हैं रंग अनोखे,
कदम-कदम पर मिलचे धोखे!
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आभार!

प्रवीण पाण्डेय said...

उलझन काटती है, अन्दर तक..

शिवम् मिश्रा said...

सहमत हूँ आपसे ... सादर !


आज की ब्लॉग बुलेटिन होली तेरे रंग अनेक - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Pallavi saxena said...

बिलकुल ठीक लिखा है आपने कभी-कभी दर्द मीठा भी लगता है यदि ज़िंदगी में यह युद्ध न हो तो जीने का मज़ा ही क्या शायद इसी का नाम ज़िंदगी है।

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

बहुत विचारणीय दर्शन है आपकी पंक्तियों में।

avanti singh said...

बेहतरीन पोस्ट ,ब्लॉग अच्छा लगा आप का नाम भी अलग है थोडा हट के है