Wednesday, February 27, 2013

किसी कविता में नहीं इतनी छांव....



किसी क्रान्ति में नहीं इतनी शान्ति
कि समा ले अपने सीने में
जमाने भर का अवसाद
मिटा दे शोषण की लंबी दास्तानों के
अंतिम नामोनिशां तक

किसी युद्ध में नहीं इतना वैभव
कि जीत के जश्न से
धो सके लहू के निशान
बच्चों, विधवाओं और बूढ़े मां-बाप
की आंखों में बो सके उम्मीदें

किसी आन्दोलन में
नहीं इतनी ताकत जो बदल दे
लोगों के जीने का ढंग
और सचमुच
वे छोड़ ही दें आरामपरस्ती

किसी गांधी, किसी बुद्ध के पास
नहीं कोई दर्शन
जो टकरा सके जीडीपी ग्रोथ से
और कर सके सामना
सरकारी तिलिस्म का

किसी शायरी में नहीं इतना कौल
कि सुनकर कोई शेर
सचमुच भूल ही जायें
बच्चे पेट की भूख
और नौजवान रोजगार की चाह

किसी अखबार में नहीं खबर
जो कॉलम की बंदरबाट और
डिस्प्ले की लड़ाई से आगे
भी रच सके अपना वितान

किसी प्रेम में नहीं इतनी ताब
कि दिल धड़कने से पहले
सुन सके महबूब के दिल की सदा
और उसके सीने में फूंक सके अहसास
कि मैं हूं...

किसी पीपल, किसी बरगद के नीचे
नहीं है कोई ज्ञान
कि उसका रिश्ता तो बस
भूख और रोटी का सा है

किसी कविता में नहीं इतनी छांव
कि सदियों से जलते जिस्मों
और छलनी पांवों पर
रख सके ठंडे फाहे
गला दे सारे $गम...

जानते हुए ऐसी बहुत सी बातें
खारिज करती हूं अपना पिछला जाना-बूझा सब
और टिकाती हूं उम्मीद के कांधों पर
अपनी उनींदी आंखें...

11 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सार्थक प्रस्तुतीकरण,आभार.

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

उम्‍मीद सवेरा
अन्‍त में ठहरा

vandana gupta said...

बेहद गहन और सशक्त प्रस्तुति

बाबुषा said...

ग़ज़ब करती हो बे !

निराश करती जा रही थी. इसे पढ़ते हुए मेरी शक्ल घुटनों तक लटकी आ रही थी कि तभी आख़िरी लाइंस आयीं और बस्स ! ठा ! :-)

चीयर्स.

सुनो, न कहा करो कि कोई महबूब दिल की धडकन नहीं सुन सकता...

आनंद said...

किसी प्रेम में नहीं इतनी ताब
कि दिल धड़कने से पहले
सुन सके महबूब के दिल की सदा
और उसके सीने में फूंक सके अहसास
कि मैं हूं...

किसी-किसी में होगी ...मैंने तो जाना नहीं मैंने तो पाया नहीं

Anonymous said...

बहुत सुन्दर भाव !!!

प्रवीण पाण्डेय said...

बाहर कहाँ है आनन्द, वह तो अन्दर ही छिपा है, पूरा का पूरा।

***Punam*** said...

किसी कविता में नहीं इतनी छांव
कि सदियों से जलते जिस्मों
और छलनी पांवों पर
रख सके ठंडे फाहे
गला दे सारे $गम...

जानते हुए ऐसी बहुत सी बातें
खारिज करती हूं अपना पिछला जाना-बूझा सब
और टिकाती हूं उम्मीद के कांधों पर
अपनी उनींदी आंखें...!

सच में जब इस तरह की बातें जेहन में ज्यादा आने लगें तो सो जाना ही बेहतर है...लेकिन ऐसे में कमबख्त नींद भी तो नहीं आती...!

Narendra Mourya said...

उम्मीद के कांधों पर उनींदी आंखें, बहुत खूब। दिल को छूने वाली रचना। बधाई

वाणी गीत said...

सब कुछ जानते हुए भी एक आस का बना होना , जीवन के लिए यही जरुरी भी है !
अतिसुन्दर !

Ritesh MIshra said...

किसी शायरी में नहीं इतना कौल
कि सुनकर कोई शेर
सचमुच भूल ही जायें
बच्चे पेट की भूख
और नौजवान रोजगार की चाह

सही आपने कहा की है आप की यह कविता बहुत ही अच्छी है