Monday, February 4, 2013

अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....




उम्र का सोलहवां साल
उसने उठाकर
आँगन वाले ऊंचे आले में रख दिया था.
गले में बस माँ की स्मर्तियों में दर्ज बचपन
और स्कूल के रजिस्टर में चढ़ी उम्र पहनी

कभी कोई नहीं जान पाया
उम्र उस लम्बे इंतजार की
जो आँखों में पहनकर
ना जाने कितनी सदियों से
धरती की परिक्रमा कर रही है एक स्त्री
और संचित कर रही है
कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी टेम्स
नदी का पानी अपने इंतजार की मशक के भीतर

उसने कभी जिक्र ही नहीं किया
अपनी देह पर पड़े नीले निशानों की उम्र का
दुनिया के किसी भी देश की आज़ादी ने
किसी भी हुकूमत ने
नहीं गिने साल उन नीले निशानों के
उन नीले निशानों पर
अपनी विजयी पताकाएं ही फहरायी सबने

सुबह से लेकर देर रात तक
कभी दफ्तर कभी रसोई कभी बिस्तर पर
एक दिन में बरसों का सफ़र तय करते हुए
वो भूल ही चुकी है कि
ज़िंदगी की दीवार पर लगे कैलेण्डर को बदले
ना जाने कितने बरस हुए
कौन लगा पायेगा पांव की बिवाइयों की उम्र का अंदाजा
और बता पायेगा सही उम्र उस स्त्री की
जिसने धरती की तरह बस गोल-गोल घूमना ही सीखा है
रुकना नहीं जाना अब तक

मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
मत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....



15 comments:

vandana gupta said...

मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
मत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....

आह!

शिवम् मिश्रा said...

बेहद उम्दा रचना ... सादर !


कौन करेगा नमक का हक़ अदा - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

प्रवीण पाण्डेय said...

कर्मचक्र में याद न आया,
यौवन, जीवन, सब भरमाया।

रश्मि शर्मा said...

मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
मत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....

अद़भुत पंक्‍ति‍यां....

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

किया संघर्ष ही, प्रतीक्षा उत्‍कर्ष की।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बेहतरीन प्रस्तुति!

कालीपद "प्रसाद" said...

खुबसूरत प्रस्तुति
New post बिल पास हो गया
New postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र

poonam said...

bhut khub....maun kar deti rachna

udaya veer singh said...

कितन शौम्य व अनूठा सृजन.काबिले तारीफ जी .....

इच्छा नदी के पुल पर said...

bahut sundar ... hamesha kee tarah

Darshan Darvesh said...

जिसको बार बार पढने को मन करे ऐसा आपकी इस रचना को कहा जा सकता है |

varsha said...

कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....
bahut sundar

संजय भास्‍कर said...

ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी....!!!

आनंद said...

मैं मूरख अब भी उँगलियों पर सोलह की गिनती गिन रहा हूँ .

***Punam*** said...

"सुबह से लेकर देर रात तक
कभी दफ्तर कभी रसोई कभी बिस्तर पर
एक दिन में बरसों का सफ़र तय करते हुए
वो भूल ही चुकी है कि
ज़िंदगी की दीवार पर लगे कैलेण्डर को बदले
ना जाने कितने बरस हुए !"

और इसी परिक्रमा में उसकी जिंदगी चुक जाती है...!
फिर कहाँ याद रहती है कि वो सोलह की है या बाईस की...!