Tuesday, November 20, 2012

कुछ बदलियाँ हथेलियों पर


4 नवंबर 2012

कई बरस पुरानी अपनी ही बात रास्ते भर याद आती रही. हिल सिकनेस के चलते पहाड़ों पर कैसा गुस्सा फूटा था शिमला जाते वक्त. नहीं अच्छे लगते मुझे पहाड़.वो मुझे किसी अडि़यल, जिद्दी, अहंकारी पुरुष से लगते हैं. आप ही जाइये उनके पास हजार मुश्किलें उठाकर...खुद के नदी होने पर नाज़ था कि ठहरती नहीं एक जगह बहती फिरती हूं धरती पर. किसी सरहद में नहीं समाती. आज फिर से दोहराती हूं अपनी ही बात कि खुद के लिखे को काटना और रचना नया यही प्रक्रिया है जीवन की भी और लिखने की भी. मेरी नाराजगी मानो पहाड़ों तक जा पहुंची थी. जैसे सारे पहाड़ों ने मिलकर मुझे मनाने की ठान ली हो. उत्तराखंड के पहाड़ों ने हाथ पकड़कर अपनी पनाह में बिठा लिया. और अब कश्मीर से अचानक से आई यह पुकार. मैं इस दुनिया में अगर किसी चीज पर आस्था रखती हूं तो वो कुदरत है. उसकी बात को ध्यान से सुनती हूं और मानती हूं. कश्मीर की वादियों का रुख करती हूं यह सोचते हुए कि जितने गौर से कुदरत मुझे सुनती है, सहेजती है, संभालती है कोई और क्यों नहीं सुनता...

दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचते ही सबसे पहली इच्छा कॉफ़ी पीने की हुई. यहां आकर बड़ा अपनापन सा लगता है. न जाने कितना वक्त काटा है इस एयरपोर्ट पर. वो कोना देख मुस्कुराती हूं जिसके साथ छह घंटे फलाईट लेट होने पर वक्त साझा किया था. वो कॉफ़ी कार्नर, वो सिक्योरिटी चेक. अपना ही सामान कितना बोझ लगने लगता है न कभी-कभी. कि जिस सामान को चाव से बैग में रखा वही बैग कार्गो में देने के बाद कितनी राहत मिली. ऐसा ही तो है जीवन कि जिस देह से इतना लाड़ है उसी का बोझ ढोने में जिंदगी जा रही है. एक पल भी हम अपने होने के अहसास से मुक्त नहीं हो पाते. काश कि ये देह भी कार्गो में चली जाती तो हम प्लेन की सीट पर नहीं पंखों पर बैठ के जाते....

शीशे के उस पार दिखता आसमान अब ललचा नहीं रहा था। हालाँकि टेक ऑफ करते समय हमेशा यही ख्याल आस पास होता है ऊंचा होने के लिए सीढियां चढ़ना नहीं नींव में उतरना ज़रूरी होता है। फिर भी हम सीढियां ही क्यों तलाशते हैं।

यूं दिल्ली से श्रीनगर तक रास्ता मात्र डेढ घंटे का ही है लेकिन जाने क्यों मुझे यह बीच का छोटा सा वक्त भी बहुत बड़ा ही लगता है. तेज धूप में चमकते आसमान को निहारने के बाद आंखें परिचारिकाओं पर टिकानी चाहीं तभी लोगों की सीत्कारियां कानों में पड़ीं. मेरे दाहिनी तरफ खिड़की के पास लोग जुटे हुए थे. मैंने अपनी खिड़की से बाहर देखा तो आसमान ही दिखा. मंडराते बादल. कुछ चमकती चोटियां भी. लेकिन उस पार क्या था. आखिर उठना ही पड़ा देखने के लिए. उठी तो स्तब्ध रह गई. ऐसा खूबसूरत मंजर मैंने आज तक नहीं देखा था. नजर की आखिरी हद तक बर्फ की चादर ओढ़े खड़ी वो पहाडि़यां किसी नवयौवना सी दिलकश लग रही थीं. हम कश्मीर में दाखिल हो चुके थे और स्वागत के लिए ये पहाडि़यां चमकती दमकती खड़ी थीं. नहीं, किसी अहंकारी पुरुष से नहीं होते पहाड़, किसी नाज़नीन से नाजुक और मासूम भी होते हैं. बाहर की कोई बदली टकरायी नहीं थी आखों से फिर भी कुछ मोती थे हथेलियों पर...श्रीनगर आ चुका था. 

जारी....

7 comments:

sonal said...

waah...agli kadi kaa intezaar

Swapnrang said...

kashmir jaisa sundar.....

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बढिया, आपको पढना वाकई सुखद है।
अगली किस्त का इंतजार रहेगा

Dr (Miss) Sharad Singh said...

मन को छूने वाले अनुभव....

Rajesh Kumari said...

अपने यात्रा वृतांत में कवित्व ह्रदय को पूर्णतः डाल दिया पढ़कर बहुत सुखद लगा वैसे तो श्रीनगर कई बार जाना हुआ अगले माह भी बर्फीली पहाड़ियों के सानिद्ध्य का आननद लेने जा रही हूँ किन्तु आपके शब्दों में देखना आपके आँखों से देखने का आनंद आपकी इस पोस्ट से उठा रही हूँ बहुत बढ़िया वर्णन अगली कड़ी की इन्तजार रहेगी

प्रवीण पाण्डेय said...

बीच में डेढ़ घंटे नहीं डेढ़ दशक की दूरी है..

Nidhi said...

काश्मीर जाने का मन होने लगा...