Tuesday, November 27, 2012

जिंदगी की सलाखें बड़ी मजबूत हैं


5 नवंबर
दिन को पकड़ने को हाथ बढ़ाया तो शाम के आंचल का कोना ही हाथ लगा. वो भी जल्दी ही सरक गया...सर्द गहराती रातों को आने की बड़ी जल्दी रहती है... बड़े से विंडो ग्लास के बाहर मौसम कैसा ठहरा सा था. इत्मीनान से शाख पर रखे पत्ते मानो कोहरे की खुशबू में नहाने को बेताब हों...सिरहाने रखे चिनार के पत्तों पर नमी सी रखी है हालांकि कमरे में ओस का कोई कतरा भी नहीं.

6 नवंबर
जब हम जागे तो मुट्ठियों में सुबह छुपी हुई थी. बारामूला और गुलमर्ग...मुझे क्या याद रहा. रास्ते...रास्ते...रास्ते...पथिकों को रास्तों से प्यार न होगा तो किससे होगा. एक बार फिर खुद को रास्तों के हवाले करना. गुलमर्ग रास्ते भर पुकारता रहा 'आ जाओ... ' इतने खूबसूरत रास्ते कि इन्हीं रास्तों में रह जाने को दिल चाहे. न भूख न प्यास...ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते बर्फ से ढंकी पहाडि़यां और करीब आती जाती, खामोश जंगलों के बीच से गुजरते हुए हम सब कितने खामोश थे. हम सब...एक से धरातल पर. सबको पता है कि खामोशी के राग की तासीर कैसी होती है. मैं किसी ईश्वर को नहीं जानती लेकिन कुदरत के करीब जाते हुए महसूस कर पाती हूं उन आंसुओं की नमी को जो प्रार्थना या दुआ के वक्त ढुलक आते होंगे...' मुझे मुझसे मुक्त करो...' ऐसे ही बुदबुदा उठे थे होंठ...शायद यही मेरी प्रार्थना का ढंग है...गुलमर्ग की दिल लुभाने वाली खूबसूरती को देखते हुए अचानक सिहरन सी हुई. कोई आवाज कानों से टकराई...'अभी रिहाई का वक्त नहीं आया.' किसने कहे होंगे ये शब्द ...दूर-दूर तक तो कोई नहीं था. हां, सामने बर्फ से ढंकी चोटी के ठीक उपर चमकता सूरज पल भर को छुप गया था...सिर्फ पल भर को. जिंदगी की सलाखें बड़ी मजबूत हैं.
जारी...

Thursday, November 22, 2012

जिंदगी की शराब में अवसाद के टुकड़े


4 नवंबर 2012

हमने देखी है चिनारों से पिघलती हुई बर्फ
उनके शाने से ढलते हुए आंचल की तरह...

एक साथी ने ये पंक्तियां पकड़ा दी थीं निकलते वक्त. यहां तक हथेलियों में बंद ये पंक्तियां अब खुलकर घुल गई थीं फिजाओं में. चिनारों की खुशबू उसके रंग, रूप से पहले पहुंच रही थी. मन के मौसम का भी अजब हाल है कि कोई भी सुकून देने वाली बात, जगह, लोग मिलते ही बरसने को बेताब होने लगता है. भीतर न जाने कितना बड़ा कुंआ है, इसे न जाने कितना दुःख चाहिए न जाने कितना सुख न जाने कितना प्यार ये भरता ही नहीं...जब भी इसमें एक टुकड़ा सुख फेंको बदले में अवसाद की प्रतिध्वनि उभरती है..औटम ...क्यों कश्मीर ने मुझे इसी सीजन में पुकारा...बड़ा बेजा सवाल था. भला मेरे लिए इससे बेहतर और कौन सा सीजन हो सकता था...झरते हुए पत्तों के बीच से निकलते हुए महसूस करती हूं अपना झरना भी. दुःख से बड़ा रोमैंन्टिसिज्म कोई नहीं. ये हौले-हौले हमारी रगों में दाखिल होता है और नशे की तरह हम इसके आदी हो जाते हैं. जिंदगी की शराब में अवसाद के कुछ टुकड़े जिंदगी का स्वाद बढ़ा देते हैं.

कश्मीर रेजिडेन्सी के कमरा नंबर 301 में सामान पटकने के बाद खिड़की के बाहर झरती शाम को देखना आईना देखना सा लगा. फिर लाल चौक की सनडे मार्केट का रुख किया. बाहर निकलते ही जो पहला चिनार का पेड़ मिला हम उसी से लिपट गये. प्रदीप जी आसपास घूमने वाली जगहों के बारे में कुछ पूछताछ करने गये, तब तक रनदीप ने चिनार के पत्तों पर धावा बोल दिया. उसकी याद कोई का तार चिनारों से जुड़ा था. मैंने उसे वादा किया कि उसकी ढेर सारी सुंदर तस्वीरें खींचूंगी चिनारों के साथ...
लाल चौक की सनडे मार्केट घूमते हुए न जाने कहां निकल गये हम. भटके हुए मुसाफिर की तरह सड़कों का आनंद उठाते हुए. छोटे-छोटे अलाव जल चुके थे. बाजारों में बहुत सी नई चीजें थीं जिनके बारे में जानने की दिलचस्पी थी. रनदीप का कैमरा चल रहा था और मेरा दिमाग... ये वही लाल चौक था जिसे कभी खौफ के साये में न्यूज़ चैंनलों ने दिखाया था।

कभी किसी ने कहा था कि भीतर की दुनिया के सवालों के जवाब बाहर की दुनिया में तलाशना एक गलत खोज है...सोचती हूं भीतर की दुनिया के सवाल गर्भ में तो न रोपे गये होंगे. फिर ये प्रक्रिया गलत कैसे हुई.

जबरन थमा दी गई मुस्कुराहटें हमेशा खाली नहीं जातीं. अपने साथियों को स्नेह से देखती हूं शुकराना नहीं कर पाती उनके होने का...उनके इतने अच्छे होने का.

कोहरे की खुशबू को जेबों में भरने के बाद हम अपने-अपने कमरों में लौट तो आये लेकिन ठहर नहीं पाये. ये समूह का सफर था तो साथ ही रहना भला लगा. प्रदीप जी के संगीत के खजाने में इतने अनमोल नगीने थे कि घड़ी के कांटों का ख्याल ही नहीं रहा...न खाने की सुध...न सोने की.

फिर भी सुबह सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी और कश्मीर यूनिवर्सिटी के लोगों से तय मुलाकात पर समय से पहुंचने की जिम्मेदारी लिए नींद की दरगाह पे सजदा किया...
जारी...

Tuesday, November 20, 2012

कुछ बदलियाँ हथेलियों पर


4 नवंबर 2012

कई बरस पुरानी अपनी ही बात रास्ते भर याद आती रही. हिल सिकनेस के चलते पहाड़ों पर कैसा गुस्सा फूटा था शिमला जाते वक्त. नहीं अच्छे लगते मुझे पहाड़.वो मुझे किसी अडि़यल, जिद्दी, अहंकारी पुरुष से लगते हैं. आप ही जाइये उनके पास हजार मुश्किलें उठाकर...खुद के नदी होने पर नाज़ था कि ठहरती नहीं एक जगह बहती फिरती हूं धरती पर. किसी सरहद में नहीं समाती. आज फिर से दोहराती हूं अपनी ही बात कि खुद के लिखे को काटना और रचना नया यही प्रक्रिया है जीवन की भी और लिखने की भी. मेरी नाराजगी मानो पहाड़ों तक जा पहुंची थी. जैसे सारे पहाड़ों ने मिलकर मुझे मनाने की ठान ली हो. उत्तराखंड के पहाड़ों ने हाथ पकड़कर अपनी पनाह में बिठा लिया. और अब कश्मीर से अचानक से आई यह पुकार. मैं इस दुनिया में अगर किसी चीज पर आस्था रखती हूं तो वो कुदरत है. उसकी बात को ध्यान से सुनती हूं और मानती हूं. कश्मीर की वादियों का रुख करती हूं यह सोचते हुए कि जितने गौर से कुदरत मुझे सुनती है, सहेजती है, संभालती है कोई और क्यों नहीं सुनता...

दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचते ही सबसे पहली इच्छा कॉफ़ी पीने की हुई. यहां आकर बड़ा अपनापन सा लगता है. न जाने कितना वक्त काटा है इस एयरपोर्ट पर. वो कोना देख मुस्कुराती हूं जिसके साथ छह घंटे फलाईट लेट होने पर वक्त साझा किया था. वो कॉफ़ी कार्नर, वो सिक्योरिटी चेक. अपना ही सामान कितना बोझ लगने लगता है न कभी-कभी. कि जिस सामान को चाव से बैग में रखा वही बैग कार्गो में देने के बाद कितनी राहत मिली. ऐसा ही तो है जीवन कि जिस देह से इतना लाड़ है उसी का बोझ ढोने में जिंदगी जा रही है. एक पल भी हम अपने होने के अहसास से मुक्त नहीं हो पाते. काश कि ये देह भी कार्गो में चली जाती तो हम प्लेन की सीट पर नहीं पंखों पर बैठ के जाते....

शीशे के उस पार दिखता आसमान अब ललचा नहीं रहा था। हालाँकि टेक ऑफ करते समय हमेशा यही ख्याल आस पास होता है ऊंचा होने के लिए सीढियां चढ़ना नहीं नींव में उतरना ज़रूरी होता है। फिर भी हम सीढियां ही क्यों तलाशते हैं।

यूं दिल्ली से श्रीनगर तक रास्ता मात्र डेढ घंटे का ही है लेकिन जाने क्यों मुझे यह बीच का छोटा सा वक्त भी बहुत बड़ा ही लगता है. तेज धूप में चमकते आसमान को निहारने के बाद आंखें परिचारिकाओं पर टिकानी चाहीं तभी लोगों की सीत्कारियां कानों में पड़ीं. मेरे दाहिनी तरफ खिड़की के पास लोग जुटे हुए थे. मैंने अपनी खिड़की से बाहर देखा तो आसमान ही दिखा. मंडराते बादल. कुछ चमकती चोटियां भी. लेकिन उस पार क्या था. आखिर उठना ही पड़ा देखने के लिए. उठी तो स्तब्ध रह गई. ऐसा खूबसूरत मंजर मैंने आज तक नहीं देखा था. नजर की आखिरी हद तक बर्फ की चादर ओढ़े खड़ी वो पहाडि़यां किसी नवयौवना सी दिलकश लग रही थीं. हम कश्मीर में दाखिल हो चुके थे और स्वागत के लिए ये पहाडि़यां चमकती दमकती खड़ी थीं. नहीं, किसी अहंकारी पुरुष से नहीं होते पहाड़, किसी नाज़नीन से नाजुक और मासूम भी होते हैं. बाहर की कोई बदली टकरायी नहीं थी आखों से फिर भी कुछ मोती थे हथेलियों पर...श्रीनगर आ चुका था. 

जारी....

Monday, November 19, 2012

फिर-फिर प्यार तुम्हीं से....


4 नवंबर 2012

उदासियों की चादर ताने मौन के तकिये पर सर टिकाये एक टुकड़ा नींद की अभिलाषा लिए न जाने कितने युग बीत चले थे. कभी करवटें बदलते-बदलते पीठ अकड़ जाती या आसमान टोहते-टोहते ऊब सी घिर आती तो किन्ही अनचीन्हे रास्तों को पांव में बांधकर चल पड़ती. बिना किसी मंजिल की तलाश के रास्तों पर चलने का सुख कोई-कोई ही जान सकता है. उस रोज भी एक बदली सिरहाने बैठी रही रात भर हाथ थामे, तभी रास्तों ने आवाज दी '...आ जाओ.' मैंने करवट बदलते हुए कहा '...उंहूहूं...मेरा मन नहीं.' रास्तों से मेरा नाता पुराना है. वो मेरे मन का सब हाल जानते हैं. कितने ही अनजाने रास्ते क्यों न हों....दुनिया में शायद इतने लाड़ से किसी ने मुझे न मनाया होगा जितने लाड़ से मुझे रास्ते पुकारते हैं. मेरा इनकार कब उसे स्वीकार था. उसने सिरहाने बैठी बदली को चाय बनाने भेजा और मेरे सर पर हाथ फिराते हुए कहा, चलो. कोई सम्मोहन ही था शायद कि आनन-फानन में पैकिंग हो गई. 4 नवंबर को सुबह चार बजे करीब 50 किलोमीटर का सफर तय कर चुकने के बाद जब एक जगह चाय पीने को रुके तो एहसास हुआ कि जिस रास्ते ने मुझे मनाया था वो कश्मीर का रास्ता था. कोहरे की चादर ओढ़े किशोरी अमोनकर को सुनते हुए उस रोज एक बार फिर रास्तों पर बहुत प्यार आया...