Friday, June 22, 2012

सौन्दर्य


जबसे समझ लिया सौन्दर्य का असल रूप
तबसे उतार फेंके जेवरात सारे
न रहा चाव, सजने सवरने का
न प्रशंसाओं की दरकार ही रही
नदी के आईने में देखी जो अपनी ही मुस्कान
तो उलझे बालों में ही संवर गयी
खेतो में काम करने वालियों से
मिलायी नजर
तेज़ धूप को उतरने दिया जिस्म पर
न, कोई सनस्क्रीन भी नहीं.
रोज सांवली पड़ती रंगत
पर गुमान हो उठा यूँ ही
तुम किस हैरत में हो कि
अब कैसे भरमाओगे तुम हमें...

Friday, June 15, 2012

कई दिनों से शिकायत नहीं ज़माने से...


आते-जाते बादलों को ताकते हुए देखना भी कई बार नीरस और ऊबाऊ होने लगता है. गर्मी से बेहाल पंछियों को डालों पे लटकते देख खुद पर भी झुंझलाहट ही होती अक्सर कि हम भी ज़िंदगी की डाल पे बेसबब लटके ही हुए हैं बस. क़दमों की रफ़्तार कभी तेज, तो कभी कम लेकिन सफ़र का हासिल एक नया सफ़र...यूँ सफ़र में होना हमेशा खुशगवार होता है फिर भी कई बार हम चाहते हैं कि सफ़र सिर्फ आनंद के लिए ना रह जाये...खासकर ज़िंदगी का सफ़र. हर शाम दिन के लम्हों का गुणा भाग करना और अगले दिन कुछ बेहतर हो पाने की उम्मीद के साथ रात के तकिये पे सर टिका देना...इस तरह ज़िंदगी एक आदत सी बनने लगी ना चाहने के बावजूद.

ज़िंदगी से ख्वाहिशें हज़ार मेरी भी थीं लेकिन उनका रूप रंग वीयर्ड था शायद. किसी एलियन की तरह कभी परिवार में कभी दोस्तों के बीच अपने 'होने ' में अपने 'ना होने' को चुराते हुए हमेशा महसूस हुआ कि ये वो सफ़र नहीं है शायद जिसमें बड़ी हसरतों से शामिल हुई थी. ना जाने कब, कैसे रास्ते मुड़ते गए और हमें अपना ही चेहरा अजनबी लगने लगा. फिर खुद को समझाने के लिए कई तरह के तर्क ढूंढ लिए...ज़िंदगी ऐसी ही होती है. लेकिन नहीं...'ज़िंदगी जैसी है वैसी मुझे मंजूर नहीं' की तर्ज पर अपने भीतर एक आक्रोश को पलने दिया. लेकिन सिर्फ आक्रोश से आप कुछ नहीं कर सकते...वो आपका जीना मुश्किल ही करता है....ऐसे ही मुश्किल भरी लम्बी काली रात आखिर विदा हुई.

एक ऐसे ठिकाने पर हूँ जहाँ लोगों में प्यार है, संभाल है, सद्भाव है...एक सिरे से उगता है राग खमाज तो दूसरे सिरे पर कुमार गंधर्व कबीर गा रहे होते हैं. जहाँ 'मैं' धराशायी हैं सारे, या तो 'आप' हैं या 'हम'. काम है पर काम सा नहीं लगता, ऑफिस है जो घर सा लगता है. बॉस हैं जो किसी दोस्त से लगते हैं. किताबों की खुशबू है...और दूर तक फैला हुआ ऐसा एकांत कि कुछ गुना जा सके, कुछ बुना जा सके.

कितने दिन हुए किसी ने किसी की बुराई नहीं की. किसी राजनीति का कसैलापन जबान पर नहीं बैठा, नहीं दिखा कोई जेंडर बायस. नहीं लड़ना पड़ा एक सिगल कॉलम जेनुइन खबर के लिए और साथियों के बीच नहीं उठीं तलवारें महिला मुद्दों पर बात करने पर. कितने दिन हुए ज्यादा बोले हुए. सुनती ही ज्यादा हूँ इन दिनों. हर किसी का बोलना किसी संगीत को सुनने सा लगता है और दे जाता है बहुत कुछ. किसी अनाड़ी की तरह अक्सर शामिल होती हूँ उन सबके बीच और देखती हूँ ज्ञान की डालियों को लगातार झुकते हुए. अहंकार का कोई रूप नहीं दिखा कई दिनों से.

कई दिनों से सूरज सही समय पर आ बैठता है खिड़की पर और चमकता ही रहता है देर रात तक...बड़ी अनमनी सी हो चली हैं अमावस की रातें...

Friday, June 1, 2012

कर चुके तुम नसीहतें हम को ...


हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़
बुतकदे के बुतों ख़ुदा हाफ़िज़

कर चुके तुम नसीहतें हम को
जाओ बस नासेहो ख़ुदा हाफ़िज़

आज कुछ और तरह पर उन की
सुनते हैं गुफ़्तगू ख़ुदा हाफ़िज़

बर यही है हमेशा ज़ख़्म पे ज़ख़्म
दिल का चाराग़रों ख़ुदा हाफ़िज़

आज है कुछ ज़ियादा बेताबी
दिल-ए-बेताब को ख़ुदा हाफ़िज़

क्यों हिफ़ाज़त हम और की ढूँढें
हर नफ़स जब कि है ख़ुदा हाफ़िज़

चाहे रुख़्सत हो राह-ए-इश्क़ में अक़्ल
ऐ "ज़फ़र" जाने दो ख़ुदा हाफ़िज़