Sunday, March 18, 2012

उनके लहू का रंग नीला है...


उनकी शिराओं में लाल रंग का नहीं
नीले रंग का लहू है...
देह पर कोई चोट का निशान नहीं मिलेगा
न ही गुम मिलेगी होठों की मुस्कराहट

साइंसदानों, तुम्हारी प्रयोगशालाएं
झूठी हैं
वहां नहीं जाँची जा सकतीं
नीलवर्णी रक्त कोशिकाएं

न ही ब्लड सेम्पल में आते हैं
सदियों से दिल में रह रहे दर्द के कारन,

ना समंदर की लहरों की तरह उठती
दर्द की उछाल
जांच पाने की कोई मशीन है पैथोलॉजी में

बेबीलोन की सभ्यता के इतिहास में
पहली बार जब दर्ज हुआ था
एक प्रेम पत्र
तबसे ये दर्द दौड़ ही रहा है लहू में

नहीं, शायद दुनिया की किसी भी सभ्यता के विकास से पहले ही
प्रेम के वायरस ने बदलना शुरू कर दिया था
लहू का रंग

प्रेमियों के लहू का रंग प्रेम के दर्द से नीला हो चुका है
इसका स्वाद खारा है...
इसके देह के भीतर दौड़ने की रफ़्तार
बहुत तेजी से घटती-बढती रहती है
दिल की धडकनों को नापने के सारे यंत्र
असफल ही हो रहे हैं लगातार

चाँद तक जा पहुंचे इंसान के दिल की
चंद ख्वाहिशों की नाप-जोख जारी है
उदासियाँ किसी टेस्ट में नहीं आतीं
झूठी मुस्कुराहटें जीत जाती हैं हर बार
और रिपोर्ट सही ही आती है
जबकि सही कुछ बचा ही नहीं...

सच, विज्ञान को अभी बहुत तरक्की करनी है...

Saturday, March 17, 2012

मैंने खुद को रास्तों में पाया है...


- प्रतिभा कटियार

धरती अपनी धुरी पर सदियों से घूम रही है. लगातार...लगातार...ये सफर कभी नहीं रुकता. लेकिन न धरती कहीं पहुंचती है न कोई धरती के करीब आता है. ये कैसा सफर है, कैसी चाल...कदम चलते ही जा रहे हैं बेहिस, राह बिछती ही जाती है कदमों में. इन्हीं ख्यालों की मद्धिम सी रोशनी और आंखों में उदासियों का सैलाब लिए एक रोज यूं ही घर की दहलीज को पीछे छोड़ दिया था. वक्त...कलाई पर बंधा जरूर था लेकिन याद नहीं. हां, सारा शहर दिन की ड्यूटी खत्म करके अपने-अपने घरों को लौट रहा था. रोशनी की दिप-दिप लगातार बढ़ रही थी. रोशनी को देख मुस्कुरा उठी थी. वो कौन सी रोशनी होगी जो बरसों से जमे गाढ़े अंधेरे को काट पायेगी. क्यों कोई सूरज नहीं पहुंचता मन के अंधियारों तक. क्यों नियोन लाइट का उजियारा बस अंजुरी में सिमट भर के रह जाता है...सवालों की बड़ी बुरी आदत होती है, उन्हें जरा सी ढील दो तो सरपट रेस लगाने लगते हैं. हर सवाल दूसरे सवाल को पीछे छोड़ आगे निकलना चाहता है. हालांकि किसी भी रेस का प्रतिफल कोई जवाब नहीं है.

वो शायद उस तारीख को शहर से निकलने वाली आखिरी बस थी. उस बस में मैं थी. मैं कौन...? कहां जा रही थी? कहां से जा रही थी? क्यों भला? आखिर तलाश क्या थी? न मंजिल का पता, न चलने का सबब बस एक सफर यूं ही शुरू हो गया था. मैं और कोई नहीं एक स्त्री. कहां जा रही थी, शायद खुद की तलाश में और खुद से ही दूर. गहरे नीले पर्दे को सरकाकर देखा तो शहर छूटता जा रहा था. ये जो छूट रहा था ये कौन सा शहर था. बस एक चांद था, जो पहचाना सा था. साथ वाली सीट पर एक नौजवान था, जो देर तक अपनी महबूबा से मद्धिम आवाज में गुफ्तगू कर रहा था. एकांत का एक टुकड़ा मिलते ही न जाने कितने सैलाब सवालों को लांघते हुए चले आए. कभी-कभी आंखों के समंदर में छलांग लगाने का भी अपना आनंद होता है. हालांकि हरदम आंसुओं को मुस्कुराहटों की ओट में रख देना भी कम कूव्वत का कम नहीं होता. सारा सफर उसी सैलाब के आंचल में भीगते बीता. सारे सफर में उस नौजवान की उसकी महबूबा से बात होती रही. जहां बस रुकी उसने मुझे चाय दी. बार-बार पूछता रहा, आप ठीक हैं ना? कभी-कभी अनजानी आवाजों में वो अपनापन मिलता है, जो जिंदगी भर के लिए अपनों की इबारत में गढ़ दिये गये लोगों से नहीं मिलता. वो नीम बेहोशी की रात थी. खुद से छूटने की...उस नीम बेहोशी में भी ये याद रहा कि किस तरह वो नौजवान मेरे कंधों पर शाल ढंकता रहा. जितना उससे बन पड़ा ख्याल रखता रहा.

सूजी हुई आंखों और गालों पर खिंची आंसुओं की लकीरों के साथ आखिरी स्टेशन पर उतरते हुए जब मैंने उसका नाम पूछा तो उसने नम आंखों से बस इतना कहा, अपना ख्याल रखियेगा. वो रुका नहीं, चला गया. पर वो गया नहीं, रुका ही रहा. कोई आवाज कहीं से स्टेशन के सारे शोर को रौंदती हुई आई और सीने से लिपट गई. न जाने कितनी देर हिचकियां दो देहों में लिपटी रहीं. ये सफर की शुरुआत थी या मध्य ये पता नहीं लेकिन इस सफर में एक खुशबू शामिल हो चली थी एक से मुसाफिरों के हमजोली बनने की खुशबू.

आपको कहीं देखा है...
मैं शहरों को उनके नाम से नहीं, उनमें बसने वाली प्यार भरी आवाजों के नाम से जानती हूं. वो शहर भी अपना नाम मेरी एक दोस्त की धड़कन में रखकर खुद को भूल गया था. हम एक-दूसरे को एक-दूसरे से छुपा रहे थे. हमने खिलखिलाहटों का मास्क लगाया और एक-दूसरे में प्यार भरा.
एक अजनबी चेहरा हमारे मास्क लगे चेहरों के करीब से रोज गुजरता था. अभिवादन करता और मुस्कुराता. हमें भी मालूम था कि उस चेहरे पर भी मास्क लगा है और शायद उसे भी यह मालूम ही था. फिर भी दुनिया की रवायतों को निभाना मानो सांस लेने जैसा क्रम बन गया हो. एक रोज अपने मास्क उतारकर सीढिय़ों के पास रखकर हम अपने बाल सुखा रहे थे, अपने गीले गाल भी और भीगा मन भी. तभी वो मास्क लगे चेहरे वाली स्त्री पास से गुजरी थी. हमने ध्यान से देखा तो उसका मास्क भी उस रोज नदारद था. वो वहीं बैठ गई हमारे पास. सचमुच पास.

मैंने खुद को खो दिया था-
धूप सीढिय़ों पर अठखेलियां करते हुए कंधों से आ लगी थी. अब हम दो नहीं तीन थीं. लेकिन शायद एक ही. उसने अपने शहर का नाम मुंबई बताया था. उम्र को अगर बरसों में गिना जाए तो पचास के पार की होगी शायद. नाम रक्क्षंदा हुडा. ये नाम यूं कभी याद न रहता जो उसने अपने दिल की गलियों में हमारा हाथ पकड़कर घुमाया न होता. कैनवास पर अपनी जिंदगी के बिखरे हुए रंगों को कैसे उसने पकड़-पकड़कर समेटा था. हर कैनवास पर एक संसार था. स्त्री के मन का संसार. उसकी जीने की शिद्दत का संसार, रंगों पर चढ़ी अवसाद की काली चादर का संसार, उससे बाहर निकलने की तीव्र इच्छा का संसार...कामनाओं के रंगों वाले उस संसार से हम भीगे हुए ही बाहर निकले थे. हमारी खिलखिलाहटों के मुखौटे वहीं सीढिय़ों के पास पड़े हुए मुरझा गये थे और हमारे हाथ एक दूसरे की हथेलियों को लगातार कस रहे थे. बरसती हुई आंखों में मुस्कान समेटे हम कितने करीब आ बैठे थे. जख्मों को हमने मुस्कुराहटों से पीछे धकेल दिया था. कहानी वही पुरानी...दर्द भी वही जाना पहचाना सा, हर दिल में पलता हुआ बस कि हमारी हथेलियों ने एक-दूसरे को शायद पहली बार कसा था. अपनी ही धुरी पर घूमते-घूमते धरती शायद सरककर हमारे कंधों से आ लगी थी. दो कदम आगे बढ़कर. चाय के प्याले से उठता धुआं उन गलियों में ले गया, जहां एक नयी नवेली दुल्हन अपने शौहर का हाथ थामे ख्वाबों की पनाहगाह में दाखिल होती है. सबको खुश रखना ही जहां जीवन का उद्देश्य, धर्म और कर्म था. जहां अपने बारे में सोचने का न वक्त था, न नियम. बस सबकी मुस्कुराहटों पर निसार होना ही जिंदगी. बरस बालों पर होकर गुजरते रहे और हम सब पर निसार होते रहे. न जाने कब अपना नाम भी अपना नहीं रहा, न ख्वाहिशें अपनी, न चाह कोई. बस कभी एकांत मिलता तो कमर का दर्द एक टीस देता. एक रोज तेज बुखार में तपते हुई देह के सामने एक चुनौती आ खड़ी हुई. बेटे के स्कूल में पेंटिंग कॉम्पटीशन और बाजार सारे बंद. दवाइयों से बुखार को पीछे धकेल घर में पड़े कुछ सूखे बिखरे से रंगों को समेटा और कुछ उल्टा-पुल्टा, आड़ा-टेढ़ा खींचा. अगले दिन जब बेटा स्कूल से लौटा तो गुस्से से भरा हुआ. ये आपने किसकी पेंटिंग दे दी है? आंखों में आंसू भरे हुए रक्क्षंदा ने कहा, बेटा ये तो मैंने ही बनाई है. तो कोई स्कूल में मानता क्यों नहीं. मुझे डांट पड़ी कि मैं किसी बड़े आर्टिस्ट की पेंटिंग क्यों ले आया? बेटे को सीने से चिपकाकर जोर से रोने का जी चाहा था उस रोज. वो बड़ा आर्टिस्ट तेरी मां ही है, उसने कहना चाहा पर चुप रही. अगले महीने अपनी पॉकेटमनी बचाकर एक कैनवास और कुछ रंग लाकर दिए बेटे ने...न जाने कितने सालों बाद उस रोज धरती पर सूरज उगा था. न जाने कितने सालों बाद मेघ बरसे थे. आज देश के बड़े-बड़े शहरों में उसकी एक्जीबिशंस लगती हैं लेकिन उन अंधेरे और अकेले खानों की खामोशी वो किसी को नहीं देती. सदियों के सफर में हमसफर बनते हुए उसने हमें सबसे कीमती चीज दी, अपने गम, अपना संघर्ष और अपनी आरजुएं. विदा के वक्त हथेलियों में जुंबिश थी और दिल में यह सवाल कि क्यों सदियों से एक ही छत के नीचे रहते हुए हमारे बेहद अपने हमारे चुपचाप मरने की आहटें सुन नहीं पाते...उस रोज धरती ने कुदरत का नियम तोड़ा था एक पल को और गहरी सांस ली थी. राहत की सांस.

अपना सूरज खुद-
इंतजार बहुत हुआ. बहुत संभाली उम्मीदों की पोटलियां अपने कांधों पर कि कभी तो कोई मिलेगा जो हमें एक बिंदु के चारों ओर गोल गोल घूमते जाने के अभिशाप से मुक्त करायेगा. अब कोई इंतजार नहीं. अपने हाथों को गौर से देखा तो वो कम मजबूत नहीं थे. दिल के हौसले ने और मजबूती दी. तो क्या हुआ कि एमबीए की डिग्री ने चमकता करियर सामने बिछाया है. मोटी तनख्वाह और जिंदगी के सारे ऐशो-आराम. फिर भी नींद क्यों नहीं आती रात भर. क्या यही वो जीवन था जो हमने चाहा था. नहीं, ये जीवन समाज ने हमारे लिए चुना था. उहापोह के इसी बीहड़ से गुजरते हुए एक रोज एक टहनी पर बैठे सूरज ने उसका हाथ पकड़ लिया. बस, यही फैसले की घड़ी थी. राजस्थान के एक छोटे से गांव की वो सरपंच बन गई. दुनिया उसे छवि राजावत के नाम से जानती है. यूएन में वो सोढा गांव ही नहीं हर भारतीय गांव की उन्नति का खाका पेश करती है. छवि के भीतर इस धरती के हर कोने को खुशहाल करने का ख्वाब है. इसीलिए जब वो जीन्स को फोल्ड करके खेतों में कुदाल चला रही होती है तो सूरज ठीक उसके माथे पर चमक रहा होता है.

मेरा नाम अंजलि है-
इस सफरनामे में न जाने कितने शहर छूटने थे, न जाने कितने शहर मिलने थे और न जाने कितने लोग मिलने थे. लगभग आधा सफर तय हो चुका था और हम दोनों अजनबी महिलाएं अपने-अपने ढंग से सफर की ऊब को दूर करने की कोशिश कर रही थीं. कभी किसी बच्चे को देखते, कभी खिड़की के पार का छूटता संसार. हम दोनों संकोची थे. आखिर उसने मौन तोड़ा और बातचीत का सिरा उठाया. मेरा नाम अंजलि है, क्या मैं आपके पास बैठ सकती हूं. क्यों नहीं. मैंने झट से कहा. अब वो मेरे करीब बैठी थी. खूबसूरत, लंबी, इकहरे बदन वाली वो एक आकर्षक महिला थी. काफी ठंड है ना? उसने पूछा. मैंने कहा, हां. दिल्ली तो और भी ठंडा है. उसने बात को आगे बढ़ाया. मैं चुप रही. जाने क्यों अजनबी लोगों से बातचीत के सिलसिले मौसम या देश की राजनीति से ही शुरू होते हैं. पॉलिटिकल डिस्कशंस से होते हुए हम उस मोड़ पर आ खड़े हुए जहां छुप के दिल में तनहाई रहा करती है. वो ज्वेलरी डिजाइनर है. देश ही नहीं विदेश में भी उसकी डिजाइन की हुई ज्वेलरी की काफी मांग है. ढेर सारी सफलताओं के बाद भी वो तन्हा थी. उसने बताया कि कितना मुश्किल था उसके लिए एमबीए करने के बाद बढिय़ा नौकरी छोडऩा और नये सिरे से नये करियर की ओर हाथ बढ़ाना. आज अंजलि अग्रवाल ज्वेलरी डिजाइनिंग का जाना माना नाम है. उसने धीरे से कहा, देखो घर जाकर क्या-क्या सुनना पड़े. उसकी आवाज में उदासी थी लेकिन अगले ही पल उसकी आवाज में खनक लौट आई. मैं खुश हूं यार, कि मैंने अपनी पसंद का काम चुना. हम दोनों ने अपनी हथेलियों को आपस में जोड़ा और हम दोस्त बन गये. सफर अब सचमुच खुशगवार बन चुका था. दूरियां अब दूरियां नहीं रही थीं.

कभी छांव कभी धूप-
जिंदगी के इसी सफर की उस मुसाफिर की याद ताजा हो आई जो दूसरी बार गांव की प्रधान बनी थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक अनजाना सा गांव. एक दुबली-पतली सी औरत, जानवरों के लिए चारा काटती, दूध दुहती, घर के कामकाज करती और इस बीच उसके घूंघट को हवा भी नहीं हिला पाती थी. महिला सीट होने के कारण राजनैतिक पेचोखम से निपटने का यही तरीका था कि परिवार के लोग उसे चुनाव में खड़ा करें. जितने वोट पड़े वो पति के नाम पर पड़े. चुनाव में खड़ी होने वाली महिला भी, उसका पति भी और वोट डालने वाले वोटर भी सबको पता था कि सच्चाई क्या है. वो चुनाव जीती तो पति की गर्दन फूलों की मालाओं से भर गयी. वो दूध दुहती रही और पति प्रधानी संभालते रहे. कागज पत्तर पर जब उसके हस्ताक्षर की जरूरत होती तो उसे खड़ा कर दिया जाता. ये एक अंधी सुरंग थी जिसके दोनों सिरे पर सूरज था लेकिन उस घूंघट में सिमटी ग्राम प्रधान के हिस्से में सूरज की रोशनी पहुंचने से पहले ही चुरा ली जाती. पांच साल तक वो प्रधान रही और दूध दुहती रही, चारा काटती रही. अगली बार फिर उसे खड़ा किया गया. इस बार भी वो जीत गई. लेकिन इस बार वो सिर्फ चुनाव नहीं जीती, अंधेरा भी जीती. उसने कहा कि ये मेरा सूरज है, तुम क्यों लिए बैठे हो. पहले वो बात करते समय कांपती थी और अब विश्वास से खड़ी होती है. डेढ़ हाथ का घूंघट अब माथे तक सिमट आया है. अब वो सचमुच प्रधान है. उसकी हिम्मत ने अंधी सुरंग को काटकर रास्ता बनाया और वो इस काफिले का हिस्सा बन गई जो अपने लिए सुंदर जीवन चाहता है बिना किसी को नुकसान पहुंचाये. अरे हां, हमारी इस हमसफर को अब अपना नाम याद है, सरिता देवी.

ये सफर किसी के नाम, उसके काम, उसकी सफलताओं का नहीं है. ये सफर है खुद को जिंदा रखते हुए आगे बढऩे का नाम. हवाई जहाज में एयर होस्टेस की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगती है वो उसका यह कहना कि इमरजेंसी की स्थिति में सबसे पहले खुद की सुरक्षा करें, बाद में दूसरों की मदद करें. कितनी सच्ची है यह बात. जो खुद अपनी मदद नहीं कर पा रहा है उस पर घर, परिवार, समाज की जिम्मेदारी का बोझ है. इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि अधिकांश स्त्रियों को पता ही नहीं कि उन्हें क्या चाहिए. जीवन वो जो उन्हें मिला है या वो जो चाहती हैं. रास्ते वो जिन पर उन्हें खड़ा कर दिया गया है या ढूंढने हैं नये रास्ते. बनी बनाई पगडंडियों पर चलने में सुरक्षा बोध है और अनजानी पगडंडियों पर चलने में जोखिम. लेकिन जीवन का आनंद जोखिम लेने में है. अपना सूरज खुद बनने में है. अपनी राहें खुद बनाने में है. अपनी मर्जी का मालिक खुद बनने में है. ये सफर कठिन हो सकता है लेकिन मुकम्मल यही होगा. कुछ नाम कुछ किस्सों के बहाने आइये हम सब जुड़ते हैं इस सफर में अपनी ख्वाहिशों की लगाम अपने हाथ में लेते हैं.

('अहा जिंदगी' के इस माह के 'स्त्री विशेषांक' में प्रकाशित)

Sunday, March 11, 2012

एक मोड़ पर रखा इंतजार...


रास्ते नए नहीं थे. रास्तों के दोनों ओर मौसम ठाठ से सजा था...बीच बीच में फूल चुआता..और कभी मस्ती में शाखें और पत्तियां लहराता. वो लड़की उस शहर में भागती फिरती थी. उन रास्तों पर दूर तक दौड़ कर जाती, फिर वापस लौट आती. किसी मोड़ पे देर तक ठहरी रहती, फिर बैठ जाती...एकटक एक ओर देखती जाती. उसकी आँखों से एक-एक कर सारी नदियाँ बह निकलतीं. लोग उसे रूककर देखते तो वो मुंह घुमा लेती. अचानक वो जोर-जोर से रोने लगती और वो जगह छोड़कर भाग जाती...मै उसे अक्सर देखती थी. उसे चलने में कुछ तकलीफ थी शायद. शुरू-शुरू में उसके कपडे-वपड़े ठीक ठाक से लगते थे और वो किसी भले घर की लड़की लगती. मुझे लगा कि भले घर की लड़की है, शायद उदास है किसी बात पर. ( हालाँकि 'भला घर' मेरे लिए हमेशा से एक प्रश्न चिन्ह ही रहा है ) अपनी उदासी को सड़कों के सीने पर मल रही है. धीरे-धीरे उसकी हालत खस्ता होती दिखी...उसके कपडे भी अस्त-व्यस्त और सिसकियाँ लगभग चीखों में बदलने को थीं.
दरयाफ्त करने पर पता चला कि कोई पागल है...किसी से बात नहीं करती. अगर कोई मदद करना चाहे तो और चिल्लाकर रोने लगती है. खाना भी नहीं लेती, फेंक देती है. पैसे भी नहीं लेती. मै उसे दूर से देखती रही. जाने क्यों हिम्मत नहीं हुई उसके करीब जाने कि कहीं मेरे जाने को भी फेंक दिया तो...? मन में न जाने कितने सवाल जागे...कौन होगी वो लड़की...क्यों ऐसे भटकती फिर रही है. क्यों किसी की मदद नहीं लेती? 
एक रोज गाड़ी के सामने आ गयी. जोर से ब्रेक न लगाया होता तो गयी थी वो तो...बेहोश थी. उसे अस्पताल ले गयी.
पता चला भूख से बेहोश हुई है. न जाने कब से उसने कुछ नहीं खाया. होश आया तो अस्पताल के कमरे की सूनी छत को ताकने लगी. बड़ी हिम्मत करके मैंने अपनी आवाज में ढेर सारा प्यार भरकर पूछा, नाम क्या है तुम्हारा? वो चुप ही रही.
मैंने दोबारा नहीं पूछा. सिस्टर ने कुछ फल दिए खाने को तो उसने खा लिए. शायद भूख ज्यादा थी या फिर थोडा भरोसा भी.
फिर वो उठकर जाने लगी.
मैंने पूछा, 'कहाँ जाना है?'
कुछ नहीं बोली वो.
डॉक्टर ने उसे प्यार से समझाया, 'अभी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है. ठीक हो जाना तो जाना.'
वो अच्छे बच्चों की तरह बात मान गयी.
मै रोज जाती उसे देखने और उसके लिए कुछ फल ले जाती. अस्पताल की देखरेख में वो निखर रही थी.
एक दिन मैंने देखा कि वो खिड़की के पार लगे फूलों में से एक फूल तोड़कर अपने बालों में लगाये है और बहुत खुश है. मैंने उससे पूछा 'क्या बात है, आज बहुत खुश हो?'
उसने पहली बार कुछ कहा, 'आज जन्मदिन है...'
'अच्छा....' मैं बहुत खुश हुई. मेरा बड़ा मन हुआ कि उसे बाँहों में भरकर खूब प्यार करूँ. मैंने बाहें बढ़ा दीं. वो उनमे समा गयी और रोने लगी....मै उसकी पीठ पर हाथ फिराती रही...ऐसे मौकों पर शब्द सबसे बड़े अवरोधक का काम करते हैं मै जानती थी. मैंने कुछ नहीं कहा बस उसकी पीठ सहलाती रही...उसकी आँखें बहती रहीं...हिचकियाँ टूटती रहीं...वो रोते-रोते थक गयी तो सर घुमाकर लेट गयी, मैंने कुछ भी नहीं पूछा.
शाम को लौटी तो एक केक और कुछ फूल थे मेरे हाथ में. जाने क्यों उससे एक अनकहा नाता सा बन गया था और मै खुद को उसके बहुत करीब पाने लगी थी.
अस्पताल पहुंची तो पता चला वो जा चुकी है, बिना किसी को कुछ भी बताये...
फूल मेरी तरह मुरझा गए और केक सहमकर डिक्की में चुपचाप रख गया. उदास मन से मैं लौटने लगी. मैंने महसूस किया कि मेरे भी गालों पर कुछ रेंग रहा है...आंसूनुमा . तभी एक मोड़ पर वो मुझे दिखी. मै खुश हो गयी.
गाड़ी एक किनारे लगायी और धीरे-धीरे उसके पास पहुंची.
वो मुझे देखकर मुस्कुरा दी.
मैंने उससे लाड में भरकर पुछा, 'तुम बिना बताये क्यों चली आयीं? मै कितना परेशान हुई पता है?'
उसने कोई जवाब नहीं दिया.
'सुनो मै तुम्हारे लिए केक लायी हूँ. चलो तुम्हारा जन्मदिन मानते हैं.'
वो शरमा गयी. 'मेरा जन्मदिन नहीं है.' उसने कहा.
'फिर...? सुबह तो तुमने कहा था.'
'उनका है...' उसने शरमाते हुए कहा और गर्दन झुका ली.
'उनका किनका?'
अब चौंकने की बारी मेरी थी.
'वही...जिनके लिए मैंने घर छोड़ा था...जिन्हें मैं प्यार करती हूँ.'
'ओह! तो वो हैं कहाँ?'
सवालों को मौका मिले तो वो जोंक की तरह चिपकने लगते हैं.
वो फिर खामोश हो गयी. उदास. गुमसुम.
फिर से रास्तों की ओर ताकने लगी..
मै भी आसानी से छोड़ने वालों में से तो हूँ नहीं. मेरे भीतर के अहंकार ने सर उठाया. अहंकार...हाँ, हाल ही में एक दोस्त ने बताया था कि हमेशा किसी की मदद करने को उत्सुक रहना भी एक तरह का अहंकार ही होता है...जो भी हो मुझे इस लड़की की मदद करनी थी...
मैंने अब कोई सवाल नहीं किया.
उससे कहा, 'अच्छा चलो, तुम्हारे उनका जन्मदिन मनाते हैं.'
वो मान गयी...उसने केक काटा और गाया, 'हैप्पी बर्थडे डियर पंकज...' और जोर से रो पड़ी.
मैंने उसे गले लगाया. वो न जाने कितनी देर तक रोती रही. मानो उम्र भर का रोना हो. मैं भी रो पड़ी उसके साथ.
वो एक भरी-पूरी चलती हुई सड़क थी. ये शहर मेरा जाना हुआ है. मेरी इन हरकतों की खबर घर पहुँचने का पूरा खतरा था फिर भी मैंने परवाह नहीं की. उसके साथ सड़क के किनारे बैठी रही. हाथों में हाथ लिए. मुझे इस वक़्त दुनिया की हर शय से शिकायत हो उठी थी. क्या फायदा है कायनात की इस सुन्दरता का जब एक प्रेम इस तरह मुरझा रहा हो. क्या करूँ मैं इन चाँद सितारों का, खूबसूरत रास्तों का, गुलमोहर के पेड़ का, नदी के किनारों का....सब बेमानी...
अभी तक बस इतना सुराग मिला था कि इसका कोई प्रेमी है, जिसका नाम पंकज है. बस. अरे हाँ, उसका आज जन्मदिन है ये भी. मैंने लाये हुए फूलों में से एक फूल उसके बालों में लगाया और एक अपने बालों में. हमने केक एक दूसरे को खिलाया. फिर हम पैदल सड़कें नापने निकल पड़े.
थोड़ी दूर जाकर वो ठिठक गयी और वापस लौट पड़ी...
मैंने कहा 'क्या हुआ?'
उसने कहा, 'ज्यादा दूर नहीं जाएगी...उसने यहीं मिलने का वादा किया था. यहीं इसी मोड़ पर. कहा था कि कोने वाले पलाश के पेड़ के नीचे मिलना. मैं वहां से दूर नहीं जा सकती. वो आएगा. वो आएगा...वो आएगा...' वो फिर से रोने लगी.
'हाँ, वो आएगा. ज़रूर आएगा. क्यों नहीं आएगा. तुम इतनी प्यारी हो, तुम्हें छोड़कर कौन जा सकता है भला?'
मैंने उसे सँभालने की कोशिश की.
मोबाईल चीख-चीख के शांत हो चुका था. मुझे पता था कि मेरे घर पर भी हंगामा होगा आज.
सर पर खिले पलाश देखकर रोने का जी हो आया. सुना था कि पलाश की शाखों पर फूलों के साथ साथ प्रेमियों के मिलने का वादा भी खिलता है. लेकिन फ़िलहाल पलाश का यूँ खिला होना भी कुछ काम नहीं आ रहा था सिवाय इसके की वो हम दोनों के सर पर बीच बीच में कुछ फूल गिरा देता था. वो फूल जिन्हें तेज रफ़्तार गाड़ियाँ बेरहमी से कुचलती भी जा रही थीं. कुछ सड़क किनारे पड़े पड़े बेवजह मुस्कुरा रहे थे. मैंने पहली बार पलाशों से मुंह फेरा.
'उसका कोई नंबर है?' उससे पूछा?
उसने 'ना' में सर हिलाया.
'तुम्हारा नाम क्या है अच्छा?'
उसने 'ना' में सर हिलाया.
'तुम्हारा घर कहाँ है...कहाँ की हो?'
मै उसका ठिकाना जानना चाहती थी कि सुरछित हाथों में सौंप सकूं. महिला आश्रम ठीक जगह नहीं है इस प्यारी सी लड़की के लिए जो अपने प्रेम से बिछड़ गयी है और उसी मोड़ पर बैठी उसका इंतजार कर रही है.
लेकिन उसके पास मेरे किसी सवाल का जवाब नहीं था. वो बस उन रास्तों को ताक रही थी, जिन पर चल कर उसके प्रेमी पंकज को आना था. अब कैसे ढूँढूं पंकज को जिसकी प्रेमिका का नाम तक पता नहीं. कैसे छोड़ दूं उसे भटकने के लिए. जी चाहा चिल्ला चिल्ला के गूंजा दूं धरती को पंकज....पंकज...पंकज....कहीं से कोई आये तो सही, ले जाये अपनी मुरझाती मोहब्बत को. सजा ले अपनी दुनिया. पर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया. रात अपना आँचल पसार रही थी...मैंने उससे बहुत कहा कि रात भर वो मेरे घर चले. सुबह हम पंकज के पास जायेंगे. लेकिन वो किसी तरह मानने को राजी न हुई. आखिर रात कि ड्यूटी पर मुस्तैद सिपाही को पांच सौ रूपये देकर मैंने उसकी सुरछा की गारंटी ली और अन्ना के आन्दोलन को मुंह चिढाया. उसे अपना शॉल उढ़ाया और पलाश के पेड़ से कहा कि उसका ख्याल रखे.
रास्ते भर उसके बारे में सोचती रही. किसी अच्छे घर की लड़की लगती है. किसी से प्रेम कर बैठी. 'अच्छे घर' हुंह...खुद पर ही हंस पड़ी.
वो लड़की जो प्रेमी ने जहाँ मिलने का वादा किया, वहां से हिलने को तैयार नहीं है और वो प्रेमी कहाँ है? वो लड़की तबसे उन्हीं सड़कों पर भटक रही है. क्यों न आया होगा उसका प्रेमी? पहला ख्याल तो यही आया कि प्रेमी होते ही दगाबाज हैं...कम्बख्त...फिर लगा कि कहीं उसका एक्सीडेंट न हो गया हो...फिर ये भी लगने लगा कि जिन दिनों वो अस्पताल में थी, तब वो आकर चला न गया हो...कहीं दोनों एक-दूसरे को ढूंढ न रहे हों...अख़बार में खबर छपवाना ठीक होगा क्या? लड़की का तो नाम भी नहीं पता. खबर में क्या छपेगा कि 'घर से भागी लड़की अपने प्रेमी की तलाश में दर-दर भटक रही है....' नहीं अख़बार वालों और पुलिसवालों से तो दूर ही रहना होगा. तो किया क्या जाये...यही सोचते हुए मेरा घर आ गया...जहाँ देर से आने और फोन न उठाने के कारण सबकी त्योरियां चढ़ीं थी.
रात भर मै उसके बारे में सोचती रही. कितना गहन प्रेम है उस लड़की का कि उसे कुछ भी याद नहीं सिवाय इसके कि उसके प्रेमी ने उस मोड़ पर मिलने का वादा किया था. यहाँ तक कि अपना नाम भी याद नहीं. क्यों नहीं आया होगा उसका प्रेमी. कहीं डर तो न गया होगा ज़माने से? मेरा अनुभव तो यही कहता है कि प्रेम करने में लड़के माहिर होते हैं और निभाने में लड़कियां. लेकिन मै मन ही मन मनाती हूँ, हर बार कि मेरा अनुभव गलत साबित हो. सुबह उठते ही सबसे पहले उसके पास जाऊंगी. चाहे ऑफिस से छुट्टी ही क्यों न लेनी पड़े कल उसका कुछ तो इंतजाम करना ही होगा. कम से कम उसके रहने का. ऐसे सड़क पर छोड़ देना ठीक नहीं है. खुद पर ग्लानि हुई कि पांच सौ रूपये देकर उसे अंजान पुलिसवाले के हवाले कर आई. जी चाहा आधी रात को जाकर उसे उठा लाऊँ. जैसे-तैसे रात कटी, बच्चो को स्कूल भेजा और खुद निकल पड़ी उस अनजान दोस्त की ओर.
वहां जाकर देखा कि भीड़ लगी है. रात कोई गाड़ी उसे कुचल गयी...पुलिस उसका शव पोस्टमार्टम के लिए ले जा रही थी. मैंने देखा उसके बालों में लगा फूल अब भी ताजा था...मैं भारी क़दमों से लौट रही थी...मै उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी सिवाय इसके कि वो किसी पंकज कि प्रेमिका थी...वो पंकज जिसके आने का वादा उस पलाश के पेड़ के नीचे रखा था...पंकज कहाँ होगा इस वक़्त ?

( आज जनसत्ता में प्रकाशित )

Friday, March 2, 2012

सुनो, मैं तुम तक पहुंचना चाहती हूँ...


सुनो, मैं तुम तक पहुंचना चाहती हूँ
तुम्हारे तसव्वुर को हथेली पर लेकर
हर रात निकल पड़ता है मेरा मन
दहलीज के उस पार....
मैं तुम्हारे शहर की हवाओं में
घुल जाना चाहती हूँ,
तुम्हारे कंधे पर गिरने वाली ओस
बनना चाहती हूँ
जिन रास्तों पर भागते फिरते हो तुम
मैं उन रास्तों के सीने में समा जाना चाहती हूँ.

सुनो, मै बारिश होना चाहती हूँ
तुम्हारे घर से  निकलते ही
तुम पर बरस पड़ने को बेताब
जानती हूँ तुम्हें आदत नहीं है
रेनकोट रखने की...

मैं धूप बनना चाहती हूँ कि
अपने भीगे हुए मन को सुखाने
तुम मेरे ही सानिध्य को तलाशो
और मैं छाया बनना चाहती हूँ
कि तेज़ धूप से तंग आकर
तुम मेरी तलाश में दौड़ पड़ो...

सुनो, मै धड़कन बनना चाहती हूँ
तुम्हारे सीने में बस जाना चाहती हूँ
हमेशा के लिए
कि ये देह छूटे भी तो मैं
जिन्दा ही रहूँ...

सुनो, मैं तुम्हारी आवाज होना चाहती हूँ
कि जब मौसम आलाप ले रहा हो
मैं तुम्हारे कंठ से सुर बनकर छलक उठूं,
इन्द्रधनुष होना चाहती हूँ
कि हमेशा पहनो तुम मेरा ही कोई रंग

मैं चाँद होना चाहती हूँ
कि तुम्हारे साथ रहूँ हमेशा
सितारे होना चाहती हूँ
कि तुम्हारा व्यक्तित्व
झिलमिलाता रहे हरदम...

नदी होना चाहती हूँ कि
तुम्हारी प्यास मेरे ही किनारों पर बुझे,
पहाड़ होना चाहती हूँ कि
तुम्हारे भीतर मेरे होने का अर्थ हो
तुम्हारा विराट व्यक्तित्व

नहीं, मैं दीवारों में कैद नहीं होना चाहती
मत, रोकना मेरी ख्वाहिशों के विस्तार को
मै तुम्हें लेकर आसमान में उड़ना चाहती हूँ
मै कुछ भी नहीं चाहती तुम्हारे बिना
'तुम' आखिर 'मैं' ही तो हो...