Saturday, December 3, 2011

अंतिम शरण्य



ये लहरों के समन्दर में जन्म लेने से पहले की कथा है. ये धरती पर पहली फसल उगने से पहले की कथा है. यह पहाड़ों पर गिरने वाली पहली बर्फ से भी पहले की बात है. ये किसी स्त्री की आँख में उगने वाले पहले आंसू से पहले की कथा है. ये कथा है इस दुनिया में कोई भी प्रेम कहानी शुरू होने और लिखे जाने से पहले की. असल में ये कोई कथा है ही नहीं. ये सिर्फ बात है. दो स्त्रियों की बात. शरद की रात में आसमान से झांकता चाँद उस रोज अलसाया सा बस आसमान में रखा हुआ था. वो रखे हुए ही लुभा रहा था. दुःख से भरी उस स्त्री को भी वो चाँद लुभा रहा था.

नंगे पैरों से विदेशी घास को रौंदते हुए इस दुनिया की हर चीज़ के प्रति उसका मन बेजार हुआ जाता था. उसे न जाने क्यों न जाने कहाँ ला खड़ा किया गया था. वो बस किसी यंत्र की तरह चलती जाती थी. इस बीच न जाने कितने ज्ञानी आये, कितने पाठ पढाये, कितने उपचार हुए लेकिन मन की बेजारी न ख़त्म होनी थी, न हुई. चाँद उसे देखकर मुस्कुरा दिया, 'तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता' उसने संकेत में कहा. लड़की ने भी सहमति में सर हिलाया.

तभी सफ़ेद वस्त्रों में एक भव्य स्त्री उसके सामने आई. लोग उनके पैरों में झुकने लगे. वो उन्हें आशीर्वाद देने लगी. अजीब द्रश्य था. लड़की ने उस स्त्री को हाथ जोड़कर प्रणाम किया. उस स्त्री ने नेह भरी नज़र डाली और सबको विदा होने का संकेत दिया. लड़की का हाथ किसी सखी की तरह हाथ में लेकर पूछा, क्यों परेशान हो? उस छुअन ने लड़की के मन को मुक्त किया...उसने बस इतना कहा, जीवन में होने का जी नहीं करता...

इसके बाद देर तक ख़ामोशी की चहलकदमी कमरे में होती रही. देर तक दोनों स्त्रियाँ रोती रहीं. उस रुदन में चीखना भी शामिल था, मारना भी, खुद को नोचना भी.

हम दुःख से भागना क्यों चाहते हैं. क्यों पीछा छुड़ाना चाहते हैं. क्या दुःख जीवन का हिस्सा नहीं. क्यों जी भर के रोने की इज़ाज़त नहीं. क्यों सुख से दुःख को हमेशा रिप्लेस करने को कहा जाता है. क्यों दुःख का जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए. वो दुःख जो किसी अपने से होकर आया है. वो दुःख जिसे भाग्य ने हमारे लिए चुना है. दोनों स्त्रियाँ खामोश थीं और ये सवाल हवा में तैर रहे थे.

तुम क्या करना चाहती हो? बूढी स्त्री ने पूछा.
मै जीवन की इस नदी के उस पार जाना चाहती हूँ?
क्यों? कौन है वहां?
कोई नहीं?
फिर?
पता नहीं. लेकिन जीवन में जी नहीं लगता.
तो मत लगाओ जी.
छोड़ दूं इस काया को?
हाँ, लाओ मुझे दे दो. तुम्हारी काया. पर एक बात कहूं. अपना मन मत देना किसी को. तुम्हारा मन अनमोल है. ऐसा निर्मल मन मैंने पहले नहीं देखा.
क्या करूँ इस निर्मल मन का?
जियो इसे.
मन को जीना आसान नहीं होता.
तो मुश्किल जियो.
इसके लिए देह में होना ज़रूरी है क्या?
नहीं, देह में होना नहीं अपने मन में होना. अपने मन को समझना है. अपनी देह से पार जाकर खुद को देखना है जीवन. तुम देह का त्याग करके भी जीवन से दूर नहीं जा सकोगी.
ये कैसी बात है?
हाँ, कुछ आत्माएं अभिशप्त होती हैं हमेशा जीवन में होने को. तुम उनमें से एक हो.
मेरा गुनाह?
तुम्हारा विशिस्ट होना.
इससे मुक्ति?
सेवा...अपने होने से दूसरों को सुख दो.
और मेरी मुक्ति? मेरा सुख?

ज्ञान की सारी परिभाषाएं चुक चुकी थीं. वो स्त्री भी रो रही थी. वो खुद मुक्ति की तलाश में थी. और अब उस चाँद रात के साये में एक नहीं दो आत्माएं मुक्ति की तलाश में छटपटा रही थीं. धम्मम शरणम् गच्छामि...की आवाज सुनाई दी थी तभी...सुना है अभी-अभी बुध्द गुजरे हैं यहीं से....जहाँ कोई दुःख से लड़ रहा है बुध्द वहीँ हैं...सचमुच...

6 comments:

अनुपमा पाठक said...

'बुद्ध गुजरे हैं यहीं से...'
आहट सा कुछ महसूस तो हुआ... आश्वस्त हैं अब... अवश्य बुद्ध ही होंगे!

प्रवीण पाण्डेय said...

देह मुक्ति ढूढ़े, मुक्त देह ढूढ़े, कहाँ निर्वाण?

रश्मि प्रभा... said...

जहाँ कोई दुःख से लड़ रहा है बुध्द वहीँ हैं...maun samajhna hai, mukt hona hai

vandana gupta said...

बेहद गहन्।

Nidhi said...

निर्वाण प्राप्ति..का सरल उपाय बताती रचना .सुन्दर!!

आनंद said...

देह में होना नहीं अपने मन में होना. अपने मन को समझना है. अपनी देह से पार जाकर खुद को देखना है जीवन. तुम देह का त्याग करके भी जीवन से दूर नहीं जा सकोगी.
......
हाँ, कुछ आत्माएं अभिशप्त होती हैं हमेशा जीवन में होने को....
गहन से गहनतर ..असीम और अतुल गहराई
केवल अनुभूति !!
आपकी रचना शब्द का विषय नहीं है...