Tuesday, June 14, 2011

चक्रव्यूह

तुम बुन रहे थे चक्रव्यूह,
मैं खुश थी कि
उस दौरान
मेरा ख्याल था तुम्हारे आसपास.


तुम रच रहे थे साजिशें
मैं खुश थी कि
ध्यान मेरी ही तरफ था तुम्हारा
उस सारे वक्त में.


तुम लगा रहे थे आरोप
मैं खुश थी कि
कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में
जब तय किये होंगे आरोप.

तुम इकट्ठे कर रहे थे पत्थर
मैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत.

और इतनी देर
दुनिया के कारोबार में
नहीं डाला खलल तुमने...

20 comments:

Swapnrang said...

और इतनी देर
दुनिया के कारोबार में
नहीं डाला खलल तुमने..awsome

लीना मल्होत्रा said...

bhavnaao me doobi hui ek kavita. jaise ki mujhe pasand hai :)

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बस, एक ही शब्‍द निकल रह है- अद्भुत।

---------
सलमान से भी गये गुजरे...
नदी : एक चिंतन यात्रा।

rohit said...

क्या बात है प्रतिभा जी । स्त्रियां होती हैं ऐसी । हम ज्यादा दूर क्यों जाएं। अपने घर-परिवार में ही देख लें । घर में किसी भी अच्छाई के लिए हम स्वयं को जिम्मेदार ठहरा देते हैं लेकिन यदि कुछ गलत हो जाए तो उसके लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहरा देते हैं । महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण भी किसी से छिपा नहीं है । लेकिन इस सब के बावजूद भी महिलाएं निष्ठा के साथ अपने काम में लगी हुई है ।

Nidhi said...

बहुत अच्छा लिखा है ....कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में........वाह क्या बात है.......प्यार हो तो ऐसा हो.........

बाबुषा said...

तुम लगा रहे थे आरोप
मैं खुश थी कि
कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में
जब तय किये होंगे आरोप.

aaj to waise hi main jaan hatheli pe le ke baithi hun..tum aur rahi sahi qasar nikaal lo ! Kyun na marr hi jaaun aaj pratibha ! :-)
Loved it gal !

Udan Tashtari said...

वाकई...जो किया सब मेरे लिए...

बहुत सुन्दर रचना...बधाई.

स्वप्निल तिवारी said...

stabdh hun...adbhut kavita hai.... aurat se ishwar tak jaati hui lag rahi hai...

डॉ. नागेश पांडेय संजय said...

सुन्दर रचना , बधाई .
मेरी नयी पोस्ट
यह मन बहुत सबल है

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

तुम इकट्ठे कर रहे थे पत्थर
मैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत

बहुत सुंदर भाव। अच्छी कविता

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

तुम इकट्ठे कर रहे थे पत्थर
मैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत

बहुत सुंदर भाव। अच्छी कविता

प्रवीण पाण्डेय said...

दुनिया थोड़ी और सँवर गयी, मेरी कीमत पर।

Patali-The-Village said...

सुन्दर रचना, बधाई|

शिखा शुक्ला said...

तुम लगा रहे थे आरोप
मैं खुश थी कि
कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में
जब तय किये होंगे आरोप.
khoobsurat panktiya..............

neera said...

कितना व्यापक सत्य उगला है जिन्हें हर स्त्री जूझ रही है....

डिम्पल मल्होत्रा said...
This comment has been removed by the author.
डिम्पल मल्होत्रा said...

कल की बात और है मैं रहूँ ना रहूँ..
जितना ज़ी चाहे आज सता ले मुझको...

daanish said...

मैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत...

अंतर्द्वंद का अनोखा विश्लेषण
और
अनूठी शैली
प्रभावशाली रचना .

पारुल "पुखराज" said...

"और इतनी देर
दुनिया के कारोबार में
नहीं डाला खलल तुमने"

ये सबसे अच्छी बात हुई..

Pratibha Katiyar said...

@ Parul- Yahi to sari baat hai parul!