Monday, June 27, 2011

रिल्के, मारीना और एक सिलसिला... 3


जैसा कि हर अच्छा और बड़ा लेखक करता है रिल्के ने भी बोरिस के पत्र का तुरंत जवाब दिया.

मुझे जो प्रेमपूर्ण भावनाएं अभी प्राप्त हुईं उनसे मैं अभिभूत हूं. उन कोमल भावनाओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास सचमुच शब्द नहीं हैं. मारीना, कृप्या मेरी भावनाएं हमारे मित्र बोरिस तक पहुंचा दें. पत्र के साथ बोरिस ने जिस किताब की दरकार की थी उसे भी भेज रहा हूं. 
शुभकामना
रिल्के

7 मई का वो एक ऊबा हुआ सा दिन था जब मारीना रोज के घरेलू कामों में उलझी थी. अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई थी. पोस्टमैन उसे एक पार्सल और एक खत दे गया था. उस दिन पोस्टमैन की वो दस्तक असल में उसके दरवाजे पर नहीं, सीधे दिल पर थी. रिल्के के खत में लिखी उन चार लाइनों को मारीना ने न जाने कितनी बार पढ़ा. किताब को उलट-पुलटकर देखा. खिड़की से बाहर देर तक मौसम को ताका जो अचानक खुशनुमा हो उठा था. उसने पत्र और पार्सल बोरिस को उसी दिन रवाना किया लेकिन खुद को रिल्के के पत्र की खुशबू से मुक्त नहीं कर पाई. आखिर उसने रिल्के को पत्र लिखने का मन बनाया. नौ मई को रिल्के के लिए अपनी समस्त भावनाओं को पिरोते हुए उसने जर्मन भाषा में एक लंबा पत्र लिखा. इस पत्र में मारीना ने लिखा कि उसे कितनी खुशी हुई रिल्के का पत्र पाकर. उसने पत्र में कविता के प्रति अपनी आसक्ति का ब्योरा देते हुए बताया कि कैसे छोटी सी उम्र में कविता ने उसका हाथ थाम लिया था. असल में यह पत्र लंबा इसलिए था क्योंकि वो रिल्के के प्रति अपनी भावनाओं को ढेर सारे शब्दों के बीच छुपा ले जाना चाहती थी. जैसे कई बार हम बोलकर मौन को साधते हैं कुछ उसी तरह. उसने विस्तार से लिखा कि उनकी कविताएं पढ़ते हुए वो अपने भीतर कितनी हलचल महसूस करती रही है. यह उसका पहला पत्र था रिल्के के लिए.

लेकिन जिसके लिए पत्र लिखा गया था वो कोई मामूली आदमी नहीं था. वो रिल्के था. शब्दों के अंदर डुबकी लगाना उसे आता था. वो उसके भीतर छुपे सघन भावों को आसानी से पकडऩे का हुनर जानता था. तभी तो उस लंबे पत्र का छोटा सा उत्तर कुछ इस तरह दिया उसने.

'मारीना त्स्वेतायेवा....क्या तुम सचमुच हो? क्या तुम यहां नहीं हो? अगर तुम यहां हो तो मैं कहां हूं..'
रिल्के

दस मई को मरीना के पत्र के जवाब में रिल्के ने ये कुछ शब्द लिख भेजे. समूची सृष्टि पूरे कौतूहल से इन शब्दों के मारीना के पास पहुंचने का इंतजार कर रही थी. आखिर 12 मई को मरीना को जादुई शब्दों का यह खजाना मिल ही गया.


(जारी....)

6 comments:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

इन दिनों आपकी पोस्ट का इंतजार रहता है। डाकिया की तरह। इसे पढ़कर कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति के लिए शायद चिट्ठी से बेहतर और कोई टूल नहीं हो सकता। कभी कभी हम जब आमने सामने होते हैं तो खुलकर मन को अभिव्यक्त नहीं कर सकते लेकिन ऐन मौके पर शब्द एक कारगर माध्यम बनकर सामने आ जाता है। आपकी श्रृंखलाबद्ध पोस्ट इसी की ओर इशारा करती है साथ ही हम जैसे लोगों को लिखते रहने की भी सीख देती है।

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

क्या बात है.. आगे का इंतजार ..

Rangnath Singh said...

सुंदर। हमें भी इंतजार है

Swapnrang said...

मरीना त्स्वेतायेवा....क्या तुम सचमुच हो? क्या तुम यहां नहीं हो? अगर तुम यहां हो तो मैं कहां हूं..'vaah

बाबुषा said...

'मरीना त्स्वेतायेवा....क्या तुम सचमुच हो? क्या तुम यहां नहीं हो? अगर तुम यहां हो तो मैं कहां हूं..'
रिल्के

Phir kya hua ?

प्रिया said...

aage kya hua ?