Sunday, May 29, 2011

मान ली हार, ओ मेरी जान मरीना!



जब भी मुश्किलें रास्ता रोकती हैं, न जाने कहाँ से एक आवाज का हाथ अपने शानों पे महसूस होता है. वो आवाज कहती है कि 'दुःख को दुःख कहने से पहले सोचो कि क्या वह वाकई इस लायक है कि उसे इतना महत्व दिया जाये. मुश्किलें क्या इतनी बड़ी हैं कि उन्हें हम जिंदगी में जिंदगी से बड़ा स्थान दे दें. दुःख को सोख लो और मजबूत बनो...देखो कि दुनिया कितनी मुश्किलों से भरी है.' ये आवाज दूर देश से आती है. देश का नाम है रशिया. और आवाज का नाम मरीना. मेरी प्रिय मरीना अक्सर मुझसे बात करती है. न... न...सपने में नहीं.. जगती आँखों से उसे देखा है मैंने कई बार. आते..जाते...ठहरते. मेरे करीब मोढ़े पर बैठ जाती है कभी, तो कभी चल पड़ती है सैर पर साथ साथ. कुछ कहना नहीं पड़ता अपनी इस सखी से. वो सब समझ जाती है. 

उसका होना एक सुन्दर अहसास है. 'मरीना..' उसका हाथ पकड़ के पूछती हूँ,' कहाँ से लाऊं तुम्हारे जितनी ताक़त. मजबूत कंधे. कैसे निर्विकार हो जाऊं जीवन से. कैसे सहेजूँ जीवन को जो हर घडी झर रहा है.' वो मुस्कुराती है. मैं उससे आँख नहीं मिला पाती. पन्ने पलटती  हूँ उसकी डायरी के. सजदे में झुक जाती हूँ. 'हार मान ली मेरी जान तुमसे फिर मैंने हार मान ली. सचमुच तुम्हारे जीवन के सतत संघर्षों के आगे कितने बौने हैं हमारे दुःख.' वो मुस्कुराती है.मैं उसे छेडती हूँ अपने प्रिय लेखक का नाम लेकर, 'आज रिल्के की कविताओं का सिरहाना बनाऊँगी...' वो धीरे से मुस्कुराती हैं.  दर्द का कोई सिरा सा फिर खुल जाता है...

क्या मैंने कभी अपने आपको
उतनी ही शिद्दत से चाहा है
जैसे मैंने चाहा है 'उसे'.
अगर ऐसा होता
तो क्या पाप होता ?
हे ईश्वर, मैं पूरी तरह
मानती हूं हार
नहीं कर पायी कभी खुद को
बेपनाह प्यार
उस तरह
जैसे मैंने चाहा 'उसे..'.
(- मरीना)

Thursday, May 26, 2011

आती हुई लहरें और आती हुई लड़की..




समंदर के किनारे उस रोज उदास हो जाते, जब लड़की के घुंघरुओं की आवाज किनारों से उठते हुए लहरों में घुलती नहीं थी. लड़की रोज समंदर के किनारे अपने पैरों में घुंघरू बांधकर अपने मन को खोल दिया करती थी. समंदर उसके लिए किसी आईने के जैसा था. वो उससे अपने मन की सारी बातें कहती थी. उसकी लहरों के संगीत को वो कानों में पहनती थी. समंदर की अथाह गहराइयों को चुनौती देती थी कि मेरे मन की गहराई तुझसे ज्यादा है, इसलिए मुझसे ज्यादा इतराने की जरूरत नहीं. वो जब बहुत खुश होती या जब बहुत उदास होती थी वो समन्दर के किनारे नृत्य करती थी. समंदर उसके नृत्य का दीवाना था. जैसे ही उसे सामने से लड़की आती दिखती वो दौड़कर उसके पांवों में गिर पड़ता. लड़की उसे प्यार से गले लगाती. कैसे हो? वो उससे पूछती. समंदर मुस्कुरा देता.

वो यह कह ही नहीं पाता कि कब से पलकें बिछाये एकटक तुम्हारी ही राह देख रहा हूं. लड़की को समंदर से बहुत प्यार था. समंदर को लड़की से बहुत प्यार था. लेकिन कोई और भी था इस प्यार का हमसफर. वो लड़का जो अक्सर लड़की के साथ वहां आता था. या कभी-कभी बाद में भी.
हालांकि समंदर को अपना रुतबा लड़के से अक्सर बड़ा लगता क्योंकि लड़की आती भले ही लड़के के साथ थी लेकिन वो होती समंदर के साथ ही थी. कई बार लड़का झगड़ा भी करता कि क्या तुम समंदर को देखा करती हो. ऐसे ही चुपचाप आती-जाती लहरों को देखना था तो मेरे साथ क्यों आई? लड़की मुस्कुरा देती.
लड़का कई बार नाराज होकर चला जाता. लड़की तब भी मुस्कुरा देती. इस बार उसकी मुस्कुराहट में कुछ खारी सी नमी भी होती. वो गीली रेत पर अपने उदास पैरों की छाप छोड़ती और समंदर अपनी लहरों से उन उदास कदमों के निशान को अपने भीतर समेट लेता. 

सूरज जब दिन भर जलते-जलते थक जाता तो समंदर की गोद में पनाह लेने को व्याकुल हो उठता. किसी और को सुनाई देती हो, न देती हो लेकिन लड़की को रोज समंदर के किनारे शाम के वक्त छन्न की आवाज सुनाई देती. वो जलते हुए सूरज के पानी में गिरकर बुझने की आवाज होती थी उसके घुंघरुओं की नहीं. वो उस एक लम्हे में नृत्य की उस मुद्रा में स्थिर हो जाती, जिसमें वह उस पल होती थी. उस मुद्रा में ठहरकर वो सृष्टि के नियम का उल्लंघन करती थी. वो 24 घंटों में से उस एक लम्हे को रोक लेती थी. दुनिया की कोई मशीन, कोई गणना, कोई विज्ञान यह राज आज तक नहीं जान पाया कि आखिर दिनों का छोटा या बड़ा होने का कारण क्या है. पृथ्वी, धुरी चक्कर ये सब तो चोचले हैं इन लोगों के अपनी अनभिज्ञता को छुपाने के. असल में यह सब लड़की और समंदर की कारस्तानी थी. कभी-कभी इस कारस्तानी में सूरज भी शामिल हो जाता था. और कभी-कभी तो चांद भी. बस इस सारे खेल में कभी लड़का शामिल नहीं हो पाता था. उसे हमेशा लगता था कि इस खेल के नियम वो नहीं जानता. अक्सर उसके साथ फाउल हो जाता और वो खुद को खेल से बाहर पाता. हालांकि लड़की कुछ अपने प्वॉइंट्स देकर फिर से अपने साथ ले आती. वो फिर से खेल में शामिल हो जाता लेकिन अनाड़ी तो अनाड़ी. कभी उसे सूरज हरा देता कभी समंदर. कभी तो कोई बादल का टुकड़ा आकर चांद पर बैठ जाता और लड़का जीतते-जीतते हार जाता. तब वो लड़की का हाथ पकड़कर वहां से चला जाता. जब भी लड़का ऐसा करता समंदर को लगता कि उसके साथ चीटिंग हो गई है. 

इधर लंबे समय से बोझिल दिन समंदर के सीने पर लोटते रहते थे. उसने खुद को किसी बैरागी की तरह दुनियावी चीजों से मुक्त करना शुरू कर दिया था. यही वजह थी कि कई दिनों से समंदर एकदम शांत नज़र आ रहा था. इस बात के लोग कई एंगल निकालने लगे थे कि समंदर की इतनी गहरी खामोशी कहीं किसी आगामी विध्वंस की सूचना तो नहीं है. ये सच सिर्फ समंदर जानता था कि ऐसा कुछ भी नहीं है असल में वो इन दिनों आलसी हो गया है और उसका टस से मस होने का भी मन नहीं करता है. फिर कितने दिनों से लड़की भी नहीं आई थी. 
आखिरी बार जब वो समंदर के किनारे आई थी तो लड़की की आखों में खूब चमक थी. लड़का भी उसके साथ था. दोनों खूब खुश थे. दोनों ने एक दूसरे को अंगूठी पहनाई थी. गले लगाया था. लड़की ने उस दिन खूब देर तक नृत्य किया था. इतना... इतना... इतना... कि उसके सारे घुंघरू टूटकर समंदर के किनारे बिखर गये थे. समंदर ने उन घुंघरुओं को अपनी लहरों में समेट लिया था. लड़की ने समंदर की इस हरकत को बहुत प्यार से देखा था. तभी छम्म...छम्म..की आवाज आई थी. ये लड़की के नृत्य की नहीं समंदर की लहरों की आवाज थी. लड़की कितना हंसी थी उस रोज. समंदर से उसने कहा था 'तुम' अब 'मैं' हो गये हो. मेरी ही तरह छम्म छम्म छम्म...कर रहे हो. उसने समंदर में अपना अक्स उतरते देखा. समंदर ने लड़की को अपने भीतर उतरते महसूस किया. लड़का इस खेल से अब भी बाहर था.

सूरज को बुझे काफी वक्त गुजर चुका था. चांद ऊंचे से नारियल के पेड़ पर लटका हुआ था मानो उसे अपने तोड़े जाने का बेसब्री से इंतजार हो. लड़की ने उसकी ओर शरारत से देखा और कहा, वहीं लटके रहो. उसने मोगरे के फूलों को बालों में सजाया और चांद को ठेंगा दिखाया. मोगरे के फूल लड़का लेकर आया था. वो फूल उसके लिए सृष्टि की सबसे खूबसूरत सौगात थे. चांद भी उसके आगे फीका था. उसने चांद से कहा नाहक तुझे खुद पर इतना गुमान है...उसने लड़के की ओर देखा और उसका गुमान फैलकर इतना बड़ा हो गया कि समंदर का किनारा कम पडऩे लगा. 
उस हसीन शाम के बाद लड़की वहां नहीं आई. समंदर की लहरों से छम्म...छम्म...छम्म... की आवाज आती रही. सूरज रोज बेमन से उगता और डूबता रहा. चांद भी अपनी ड्यूटी बजाता रहा. किसी में कोई उत्साह नहीं था. बस सब सरकारी नौकरी की तरह निभा रहे थे अपना होना किसी स्थाई पेंशन के इंतज़ार में. हालांकि चांद कभी-कभी लड़की को शहर के भीतर भी तलाशता था. उसे लड़की की सूरत न$जर भी आ जाती लेकिन लड़की नज़र नहीं आती थी. इसी तरह दिन महीने बीतते गये.

एक रोज समंदर ने आसमानी रंग का दुपट्टा दूर से उड़ते देखा. आसमानी रंग लड़की का प्रिय रंग था. वो आसमान पहनकर समंदर में समा जाना चाहती थी. धरती तो वो खुद थी ही. आसमानी दुपट्टे में लड़की की छवि भी समंदर को दिखी. वो अनायास मुस्कुरा उठा. लड़की के कदमों में कोई गति नहीं थी. वो बस चल रही थी. धीरे-धीरे वो समंदर के किनारे पहुंच गई. समंदर पहले की तरह दौड़कर उसके पैरों में गिर पड़ा. लेकिन इस बार लड़की ने उसे उठाकर गले नहीं लगाया. 

वो उदास थी. उसकी आंखों के नीचे काले घेरे थे. समंदर को उसने देखा और रो पड़ी. जैसे मायके लौटकर कोई लड़की अपनी मां को देखकर रो पड़ती है. बिना कुछ कहे सुने कितने संवाद हो जाते हैं उस रुदन में. उस रोज लड़की के नृत्य ने नहीं उसकी सिसकियों ने सूरज को पल भर के लिए थम जाने को विवश कर दिया. वो बहुत उदास हुआ. समंदर ने अपनी लहरों की पाजेब लड़की के पांवों में बांध दी. नारियल के पेड़ पर लटका हुआ चांद हैरत से देख रहा था सब कुछ. उसकी आंखें नम थीं. लड़की ने समंदर को गले लगाया और समंदर के किनारों पर घुंघरुओं की छम्म छम्म छम्म...फिर से गूंज उठी. 

उस रोज लड़की ने ऐसा नृत्य किया...ऐसा नृत्य किया... कि वैसा उसके पहले किसी ने देखा था न बाद में किसी ने देखा. चांद खुद टूटकर उसके बालों में टंक गया था. मोगरे के फूल उस रोज वहीं किनारे पड़े थे. लड़की का चेहरा चमक रहा था. उसकी आंखों का सारा खारापन समंदर ने सोख लिया. लड़की अब हवा से हल्की हो उठी थी. उसका मन मुक्त था. उसी दिन से समंदर का पानी खारा हो गया और उसकी लहरों में संगीत घुल गया. 

लड़की अब अपने बालों में फूल नहीं चाँद सजाती है. समंदर की लहरों से अब भी छम्म... छम्म... की आवाजें आती हैं. समंदर और लड़की के प्रेम की दास्तान किसी इतिहास में दर्ज नहीं है...

Tuesday, May 24, 2011

I love this IDIOT...

- निधि सक्सेना

सर्दी लग रही है...बहुत, मैंने सोचा भी नहीं था कि अपने देश में इतनी सर्दी होगी। आदत नहीं रह गई है ना! दोस्तोव्यस्की की बौड़म के प्रिंस से मेरी पहली मुलाकात ट्रेन में हुई। ठीक वैसे ही, जैसे पंद्रह साल की किसी लड़की से नायक की मुलाकात होनी भी चाहिए। नवंबर के अंत में सवेरे जब रोशनी नमी और कोहरे में डूबी हो, कुछ गज की दूरी पर भी किसी को पहचानना मुश्किल हो, रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे के डिब्बे की खिड़की से चेहरा सटाए 26-27 साल का घने सुनहरे बालों, छोटी-सी नुकीली दाढ़ी, धंसे गालों और बड़ी-बड़ी नीली, बींधती हुई आंखों वाला प्रिंस मिशिकन बैठा था। स्पष्ट था कि नवंबर की भीगी-भीगी रात का उसे पूरा मज़ा मिल चुका था और उसके तीखे नाक-नक्श नीले पड़े थे। हाथों में छोटी-सी पोटली झूल रही थी, जो उसका सर्वस्व थी। मेरा और दोस्तोव्यस्की का ये भोला-भोला नायक ट्रेन के उस डिब्बे में खास तरह के लोगों से घिरा बैठा था, जो दुनिया के हर बड़े आदमी और खासकर बड़ी औरतों से कैसे ना कैसे संबंध होने और उनके गुप्त राज़ जानने का दावा करते हैं और बड़ी अजीब मुद्रा में खाज मिटाते हुए हंसते हैं। हमारा प्रिंस इन लोगों को बड़े आराम से बता रहा था कि वह लगातार पांच साल से मिर्गी का इलाज करा रहा था और लगभग बौड़म रह चुका था। लगातार उन लोगों की हंसी के व्यंग्य भरे फव्वारे के बीच हमारा प्रिंस भी अपने बौड़मपने पर खुद भी मासूमियत से हंस पड़ा। 

हां, ये अजीब लग सकता है—खुद पर हंस पड़ना, वो भी तब, जब कई-कई लोग आपको घेरे आपकी चीराफाड़ी कर रहे हों, लेकिन यही तो मेरा नायक है। मेरा और दोस्तोव्यस्की का भी। साहित्य में कहते हैं न, `वह महान पात्र आज भी सामयिक है।‘ मैं कहती हूं—नहीं, वो इस सदी का लड़का नहीं है। हमारे समय में प्रिंस मिशिकन जैसे लड़के होते ही नही हैं। आपको अपने हर ओर दोस्तोव्यस्की के उपन्यास बौड़म के पात्र अपनी सारी चारित्रिक विशेषताओं के साथ मिल जाएंगे, बस—एक प्रिंस मिशिकन नहीं मिलेगा। मैंने बौड़म पढ़ा और प्रिंस को पसंद करने लगी, तब से हमेशा के लिए। पहली बार में तो मैं खुद समझ नहीं पाई कि क्यों मैं एक शर्मीले, कुछ-कुछ बचकाने, बेतरतीब और बीमार प्रिन्स पर इस कदर फ़िदा हो रही हूं, जबकि नायक तो एक मज़बूत किरदार होता है, जो सफल होता है। पता है जबकि, ये है जो, न जीतता है, न जीतना चहता है। ये क्यों मुझे लुभा रहा है? तब मैंने दुबारा बौड़म पढ़ी। प्रिंस मिशिकन को फिर से छूकर गुजरने के लिए। एक बच्चा है, जिसके कपड़ों का नाप बढ़ गया है और बच्चे-सी ही साफ़, साहसी नज़र है, जो न केवल लोगों को पहचान सकती है, अपनी साफ़गोई से उन्हें भेद भी सकती है। कभी वो मुझे एक ऐसा राजकुमार लगता, जो अपनी विनम्रता में संन्यास लिए है और लोग उसे प्यादा समझे बैठे हैं। कभी लगता ये क्यों खड़ा नही होता? इसको कभी भी, कोई भी मुंह पर मसखरा और बौड़म कहकर हंसने लगता है।

एक बेवकूफ सज्जन को धोखा देकर लोग कितने खुश हो जाते हैं। प्रिंस उनकी हंसी के लिए पात्र बनता है और उसका दया से भरा मन कहता है—`नहीं! इनके बारे में फैसला करने में इतनी बेरहमी न करूं। ईश्वर जानता है, इन कमज़ोर और शराबी दिलों में क्या-क्या बसा हुआ है।‘ संशय और असुरक्षा में जीते लोगों को सहने और माफ़ करने की क्षमता है प्रिंस के साहसी और सच्चे दिल में। उसमें अपनी एक चेतना है, जो किसी के, कुछ भी कहने से बेचैन हो कर डिगती नहीं है। उसमें रीढ की हड्डी है, लेकिन आजकल अनिवार्य सी हो गई सेल्फिशनेस और अभिमान नहीं। वह दूसरों की ख़ुशी के लिए खुद भी, खुद पर हंस सकता है। कितनी बड़ी बात है, न किसी अजनबी के सामने भी यूं खुद पे हंस पड़ना? मैं अपनी हंसी नहीं उड़ा सकती। मैं तो नाराज़ हो जाऊंगी। हमारे मन उतने निर्मल थोड़े ही हैं...हमारे दिलो में तो कई बार दूसरो की हंसी चुभा भी करती है। प्रिंस...जिसे हर आदमी बौड़म समझता है और धोखा तक देता है। तब हर बार लगता है—उफ़! ऐसे भोले आदमी को छलते शर्म नहीं आती। लोगों को प्रिंस प्रेम करता है, लेकिन दिल को वस्तु समझ हक़ नही जताता। प्रेमिका के सुख में उल्लसित और दुःख में व्यथा झेलता है। किसी की प्रेमिका छोड़ कर चली जाए, तब लोग दिल में नहीं, अहम पर चोट खाकर तिलमिलाते हैं और प्रिंस प्रेमिका की किसी और से शादी होने पर भी ख़ुशी में आंखें भिगो सकता है। वह समझ और विश्वास का साथी है, अहंकार का नहीं। उसकी सबसे ख़ास बात है उसका वो विश्वास कि औरत बेहया हो ही नहीं सकती और नस्तास्या जब गंभीर निराशा में फंसी, दूसरों की खिल्ली उड़ा रही है, तब वह नस्तास्या को डांट कर कहता है—"आप को शर्म तो नहीं आती ? क्या आप ऐसी ही हैं. जैसी आप अपने आप को जता रही हैं?" और नस्तास्या विनम्रता से लौट जाती है। ये एक पुकार थी गंभीर और असली पुकार, जो लोगों को जगा सकती है। बहुत दूर से बुला सकती है...।

ना, यहां औरत को पुरुष से सर्टिफिकेट की दरकार नहीं, उसके हयादार या बेहया होने के बारे में, लेकिन एक साथी, एक रिश्ते से औरत विश्वास और समझ की उम्मीद करती है। कितनी बड़ी बात है कि प्रिंस से पहली मुलाकात में ही वह सबकुछ मिलता है। भोला-भला प्रिंस, जो दौलत, प्रेम, रोमांस के बीच फंस गया है...एक ऐसे समाज में, जिसमें तमाम भौतिक चीज़ें और इंसान, एक साथ रहते हैं। यहां शक्की और ईर्ष्यालु लोगों का जमघट है, जो हर बुराई को ज्यादा से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और प्रिंस इन सब से ठीक उलट, किसी की छोटी सी अच्छाई पर भी खुश हो उसे इज्ज़त से स्वीकारता है। सोसायटी के मंझे हुए, व्यवहार कुशल खिलाड़ियों के बीच जब उसे अजूबे की तरह देखा जाता है, उनकी तमीज और तहजीब में उठने बैठने लायक नहीं। वहां, वही अकेला, एक मौलिक, एक असली इंसान है, जिसके चेहरे और दिल का आपसी सम्बन्ध अब तक कायम हैं। इस सोसायटी में प्रिंस की बेदखली देखकर लगता है—जाने इंसान को गरिमा और शालीनता उसका दिल सिखाता है या नाच सिखाने वाला मास्टर!

नहीं! वह ऐसा इंसान नहीं है, जो आपको ढेर सारे उत्साह और यौवन से भर दे। तूफ़ान और ताजगी दे, लेकिन आपको उसका साथ अच्छा लगेगा, क्योंकि उसमें एक सहज, सुन्दर सकारात्मकता है। शीतलता और प्यार है। प्यार बिना किसी नाटक और दिखावे के। वह धीरे से आता है और ख़ामोशी से आप में शामिल हो जाता है...मुस्कुराते हुए...शायद इसलिए ही मैं पहली बार में जान भी नहीं पाई कि ये मुझे क्यों अच्छा लग रहा है...प्रिंस को देखकर मुझे लगता है, जो जितना अविकसित होता है, वो उतना ही अधिक इंसान होता है। दुनिया की दुकानदारी में अपने फायदे के सौदे जो नहीं करता। रिश्तों में ताकत के गणित नहीं बिठाता। शायद प्रिंस की ये सहजता, ये निर्मलता इस ज़माने में किसी को नाटकीय लगे, लेकिन मुझे लगता है—बहुत पहले, कभी किसी जमाने में, शायद हर ओर, हर आदमी ऐसा ही हुआ करता होगा।
दोस्तोव्यस्की बरसों से प्रिंस मिशिकन जैसे अच्छे, भोले इंसान का चित्रण करना चाहते थे, जो सुंदर हो, आदर्श हो। उनके अनुसार, जो आदर्श है और उसका अभी तक पूरी तरह विकास नहीं हुआ है। उन्हें भी लगा कि ऐसे पात्र के चित्रण से कठिन कोई दूसरा काम नहीं। उन्हें सही लगा था—ऐसे पात्र का मिल जाना कितना कठिन है, मुझसे पूछिए...मैं दस साल से ढूंढ रही हूं, तो ऐसा ही है हमारा प्रिंस...खुद के मखौल के बीच, खुद पर हंस देने वाला, दुनियादारी से एकदम अनजान, साफ बल्कि बौड़म ....

Monday, May 23, 2011

कोई कला समाज नहीं बदलती-मानव कौल


मानव कौल युवा नाटककार, कवि, कहानीकार और अब फिल्मकार भी  हैं. उनकी प्रयोगधर्मिता उनकी पहचान है. नाटक शक्कर के पांच दाने, पार्क, मम्ताज भाई ने अंतरराष्ट्रीय सक्सेस पाई. शक्कर के पांच दाने का मंचन जल्द ही न्यूयॉर्क में डायरेक्टर मार्क ब्लूम करने वाले हैं. उन्होंने जजंतरम ममंतरम, १९७१ और आई एम् फिल्मों में बतौर अभिनेता भी काम किया है .उनकी खासियत है कि वो अपनी जमीन खुद तलाश करते हैं और लगातार कुछ नया करने की फ़िराक में रहते हैं. पिछले दिनों उनकी मनोभूमि की बाबत उनसे कुछ बातचीत हुई- प्रतिभा 

सवाल- क्या नाटक या कोई और रचनात्मक विधा समाज के अंतिम छोर से संवाद कर पाने में सचमुच सफल हो पाती है? 
माफी चाहता हूं, पर मुझे लगता है कि कोई भी विधा अगर यह दंभ भरे तो वह उस विधा की कोरी कल्पना है. कोई भी विधा या कलाकार अगर एक शब्द भी कहता है तो वह शब्द इस समाज का ही शब्द है... उसी के द्वारा दिया गया... जिसे वह वापस समाज के सामने परोस कर रख देता है. उसका समाज के विरुद्ध कहना... समाज की गलतियां निकालना... नए समाज की कल्पना करना सभी उसके आसपास के जिए का हिस्सा है. उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं.

सवाल- इन रचनात्मक अभिव्यक्तियों से क्या सामाजिक परिवर्तन में कोई असर पड़ता है? या ये महज सेल्फ सैटिस्फैक्शन के लिए है? 
मैं समाज बदलने के बिलकुल खिलाफ हूं. ना तो मेरी समाज बदलने में, और ना ही उन लोगों में कोई दिलचस्पी है जो समाज बदलने के लिए कला का सहारा लेते है. सत्य इतना सरल और सामान्य है... जो लगभग सभी जानते हैं... उन सत्यों को लगातार दोहराते रहने से हम उन सारे सत्यों को गांधी बना देते है... जिसका अब किसी पर कोई असर नहीं होता.
शायद हमारी कला से हम एक सा संसार रच लेते हैं जिस संसार में बार-बार जाने से हमें शांति मिलती है...(या वह हमें असहज करता है). हमारी कला एक कन्फेशन बॉक्स  की तरह काम करती है जहां जाकर हम एक बच्चे की तरह अपनी सारी कमियों, छलनाओं, कमीनेपन, अवसादों और पीड़ाओं को कह देते हैं.... उसे कह देने के बाद हम बहुत असहनीय हलकापन महसूस करते हैं.... और शायद जब कोई उस विधा को पढ़ता है या देखता है... तो यही बात उसे उसकी तरफ खींचती है...हम समाज के भीतर रहते हुए .. बहुत छोटे-छोटे संसार गढ़ते रहते हैं. इससे जीने में.... जीते रहने में एक तसल्ली बनी रहती है.

सवाल- नाटकों को लेकर मिलने वाला ऑडियंस का रिस्पांस किस तरह के भविष्य को रेखांकित करता है?
 मैंने कभी इसके बारे में नहीं सोचा... पर मुझे लगता है कि मनोरंजन के इतिहास को अगर मैं देखूं तो जिस किस्म के मनोरंजन की आशा इस वक्त हमारा समाज करता है... (उदाहरण के बतौर जिस किस्म के नाटक और फिल्में ज़्यादा चलती हैं) उससे मेरा कोई वास्ता नहीं है. क्योंकि जिस तरह के नाटक मैं देखना चाहता हूं, जिस तरीके की कहानियां मैं पढऩा चाहता हूं मैं अंत में वही लिख रहा होता हूं. तो एक तरह से मैं कह सकता हूं कि मैं अपने मनोरंजन के साधन खुद जमा कर रहा होता हूं.
अब इसमें एक बात और है कि जैसे हम इस दुनिया में रहते हुए सब लोगों के करीब नहीं हो पाते, ठीक उसी तरह जब आपका नाटक देखने 400 या 500 लोग आते हैं तो कुल जमा चार पांच या ज़्यादा से ज़्याद दस लोग उसे करीब से समझ लेते हैं.. और यह काफी है.
नाटक यूं भी क्षणिक विधा है... नाटक के चलते हुए जो भी घट रहा होता है नाटक बस उतना ही है... भविष्य में आप उस नाटक को पढ़ सकते हैं.. पर खेला गया नाटक वहीं.. उसी वक्त खत्म हो जाता है.

सवाल- अपने किये काम को लेकर कोई मोह न रखना कैसे संभव होता है, जबकि आजकल जरा सी सफलताएं लोगों के सर पर बैठ जाती हैं?
आपका खुद का लिखा हुआ आपको कुछ भी देता नहीं है... नाटक या कहानी के खत्म होते ही मैं बहुत गहरा ख़ालीपन महसूस करता हूं... कहीं कुछ बदल जाता हूं... मैं वह नहीं रहता जिसने वह नाटक या कहानी लिखी थी. सो मैं अपने नाटकों के सामने ही दर्शक सा हो जाता हूं.
मोह रखना तो दूसरी बात है मेरा उससे बहुत संबंध भी नहीं बचता है. 

सवाल- अपने नाटक खुद लिखने का क्या कारण है?

 कारण वही है जैसा मैं देखना सुनना चाहता हूं... वैसा ही लिख देता हूं. और लिखने के अलावा मैं अपने साथ और कुछ भी नहीं कर सकता हूं.

सवाल- एक साथ कई विधाओं में काम करने के बाद सबसे ज्यादा जुड़ाव कहां पाते हैं?
सबसे ज़्यादा जुड़ाव कोरे पन्नों से है...
जहां तक उत्साह की बात है मैं इस वक्त अपनी नई फिल्म, जो कि मैंने पूरी उत्तराखंड में बनाई है... से बहुत ही उत्साहित हूं. यह फिल्म हमारे ग्रुप अरण्य के काम का ही एक हिस्सा है.... मैं इस तरीक़े के कामों को लेकर हमेशा से उत्साहित रहता हंू, जब कुल जमा बीस लोग.. बिना किसी पैसे के... किसी एक विचार के पीछे आपके साथ हो लेते हैं. हम सब लोगों ने मिलकर यह फिल्म बनाई है... आशा है जल्द ही लोगों के सामने आएगी.

(आई नेक्स्ट के सम्पादकीय पेज पर २२ मई को प्रकाशित)


Saturday, May 21, 2011

चलो कि अब हम गुनहगार ही सही...



सियासत के मायने हम क्या जानें
हम तो बस गेहूं की बालियों
के पकने की खुशबू को ही जानते हैं
दुनिया की सबसे प्यारी खुशबू
के रूप में,

क्या पता कैसा होता है जंतर मंतर 
और कैसा होता है जनतंतर
देश दुनिया की सरहदों से
हमारा कोई वास्ता कैसे होता भला
हम तो घर की दहलीजों से ही 
लिपटे हैं न जाने कब से

बस कि हमने पलकों को झुकाना 
जरा कम किया
आंखों को सीधा किया,
शरमा के सिमट जाने की बजाय
डटकर खड़े होना सीखा

आंचल को सर से उतार कमर में कसा 
कि चलने में सुविधा हो जरा
कहीं पांवों की जंजीर न बन जाए पायल
सो उससे पीछा छुड़ाया, 

न कोई तहरीर थी हमारे पास
न तकरीर कोई
हमने तो ना कहना 
सीखा ही नहीं था
बस कि हर बात पे हां कहने 
से जरा उज्र हो आया था
इसे भी गुनाह करार दिया 
तुम्हारे कानून ने

चलो कि अब हम गुनहगार ही सही...

Friday, May 20, 2011

डोंट फॉलो द रूल्स...


मैं अक्सर अपने छात्रों से कहती हूं कि 'डोंट फॉलो द रूल्स.' जब मैं ऐसा कह रही होती हूं तो मेरे मन में यह कामना होती है कि वे अब तक के पढ़ाये, सिखाये, बताये गये से आगे जाकर कुछ नया वितान रचें. कक्षाओं की सारी दीवारों को तोड़कर किताबों को हवाओं में उछालकर, ढेर सारे सवालों के हाथ थामे दुनिया की सैर को निकल पड़ें. 


इन दिनों छोटे बच्चों से रू-ब-रू हूं. गर्मी की छुट्टियां हैं. अब शहरी बच्चे गर्मी की छुट्टियां समर कैम्प में बिताते हैं. बेरियों के बेर तोड़ते, बागों में आम चुराते, दिन भर बुर्जुर्गों की डांट खाने के बाद भी घपड़चौथ करने का सुख बच्चों के हाथ से फिसलकर दूर जा चुका है. उनके हाथ में रिमोट आ गये हैं, कार्टून नेटवर्क, वीडियोगेम्स. बहुत हुआ तो कुछ समर कैम्प की एक्टिविटीज. ऐसे में मेरे कुछ साथियों ने एक कोना खोजा और गली के 
बच्चों के मुरझाये चेहरों पर मुस्कान सजाने की कोशिश शुरू की. बिना कोई रुपया पैसा लिये बच्चों को इकट्ठा किया और उन्हें संगीत की शिक्षा देने का काम शुरू हुआ. इनमें से कुछ अब विधिवत संगीत की शिक्षा हासिल कर रहे हैं.


फिलहाल इन दिनों इस कोने में खूब धमाल मचा है. बच्चे शाम को जमा होते हैं, म्यूजिक प्लेयर पर गाने शुरू होते हैं, सबका मटकना शुरू हो जाता है. सिखाने की कोशिश करने वाली मेरी दोस्त का फोन आया, 'यार ये बच्चे मुझसे संभलते ही नहीं. तुम आओ.' मैं हंसती हूं. वक्त की कमी के चलते जाना टलता ही जाता है. बच्चों का मटकना जारी है. दोस्त का परेशान होना भी. आखिर एक टुकड़ा फुरसत लेकर पहुंच जाती हूं. बच्चे घेरकर मुझसे चिपक जाते हैं. उनकी आंखों में प्यार भी है और शिकायत भी. 'कितनी मुद्दत बाद मिले हो' का उलाहना भी. हम साथ में चाय पीते हैं, गप्पें मारते हैं. गर्म हवा भी गर्म नहीं लगती. दोस्त अब भी यही सोच रही है कि असली चैलेंज तो अभी आना है. 
मैं पूछती हूं, 'कौन सा गाना?' 
सब चिल्लाते हैं...'चार बज गये, पार्टी अभी बाकी है.'
मैं हंसती हूं. गाना प्ले करती हूं. सब बंदरों की तरह कूदते हैं, उछलते हैं. कोई स्टेप नहीं, कोई नियम नहीं, कोई कायदा नहीं. बस एक मूड है मस्ती का. सब दिल से नाच रहे हैं. उन्हें देखकर याद आता है संगीत के गुरू का कहा कि 'संगीत की किसी भी विधा में उतरने का पहला नियम है कि उसे अपने दिल में उतरने दो.' उन बच्चों की आंखों में उस वक्त कुछ भी नहीं था. बस गाने के बोल और मस्ती. दोस्त मेरी ओर देखती है. 
मैं हंसती हूं...ठीक तो है. 
वो म्यूजिक टीचर है. उसे ये बंदरों की तरह कूदना ठीक कैसे लग सकता है. 
मैं उससे कहती हूं आओ हम भी इनके साथ कूदते हैं. भूल जाओ कि तुम म्यूजिक टीचर हो. आओ हम इन्हें फॉलो करें. हम करते हैं...चार कबके बज चुके थे. टेढ़े मुंह वाला चांद हमें देख हंस रहा था. हम थक चुके थे. बच्चे खुश थे. 

हम थककर बैठते हैं. दोस्त की चिंता है, मस्ती तो ठीक है लेकिन ऐसे डांस पे इन्हें इंट्री कहां मिलेगी. मैं उसे शान्त रहने को कहती हूं. बच्चे हमें फिर घेर लेते हैं.
'मजा आया?' मैं पूछती हूँ 
'हां,'  वे एक सुर में चिल्लाते हैं.
'कल कौन सा गाना...?'  एक के बाद एक गानों की लिस्ट बाहर निकलती है. 

'रेन डांस कैसा आइडिया है?'
इस चिलचिलाती गर्मी में इस आइडिया को कौन कम्बख्त खारिज करेगा?
'बढिय़ा.' बच्चों की आंखों में चमक आती है.
'तो फिर चक धूम..धूम..?'
मैं पूछती हूं.
'ठीक है.'

' दो-तीन दिन पहले उन्हें उनके मन से खूब कूद लेने दो. उनके भीतर जो है, उसे निकल जाने दो फिर अपना उनके भीतर बोओ...' दोस्त से कहती हूं. वो समझ जाती है.

बच्चे अब सुर में हैं...दोस्त भी, हवाएं भी, फिजाएं भी. चांद देख रहा है टुकुर-टुकुर... 'घोड़े जैसी चाल, हाथी जैसी दुम... ओ सावन राजा कहां से आये तुम...' चिलचिलाती गर्मी वाला दिन चौंककर अपनी सूरत निहारता है...उसे अपना चेहरा बदला हुआ लगता है. 

तब पहचानोगे क्या..?



'बहुत घुटी घुटी रहती हो
बस खुलती नहीं हो तुम'
खुलने के लिए जानते हो 
बहुत से साल पीछे जाना होगा
जहाँ से कंधे पर बस्ता उठाकर 
स्कूल जाना शुरू किया था
इस जेहन को बदलकर 
कोई नया जेहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोज 
खुलकर
खिलखिलाकर 
ठहाका लगाकर 
किसी बात पे जब हसूंगी
तब पहचानोगे क्या..?
- दीप्ति नवल 

Sunday, May 15, 2011

अच्छी नहीं लगतीं अच्छी लगने वाली चीजें



इन दिनों
अच्छी नहीं लगतीं मुझे 
अच्छी लगने वाली चीजें
बिलकुल नहीं भातीं मीठी बातें
दोस्तियों में नहीं आती है 
अपनेपन की खुशबू 
सुंदर चेहरों पर सजी मुस्कुराहटों से
झांकती है ऊब
नज़र आ जाता है
कहकहों के भीतर का खोखलापन,
सहमतियों से हो चली है विरक्ति 
इन दिनों.
दाल पनीली लगती है बहुत
और सब्जियां बेस्वाद
मुलाकातें बहाना भर लगती हैं
सिर टकराने का,
महीने के अंत में आने वाली तनख्वाह भी 
अच्छी नहीं लगती
वो हमेशा लगती है बहुत कम
अख़बारों में छपी हीरोइनों की फोटुएं
अच्छी नहीं लगतीं,
न ख़बरें कि बढऩे वाले हैं 
रोजगार के अवसर
सुबह अब अच्छी नहीं लगती
कि धूप के पंखों पर सवार होकर 
आती हैं ओस की बूंदें
और रातें दिक करती हैं
कि उनके आंचल में 
सिवाय बीते दिनों के जख्मों की स्मृतियों के
कुछ भी नहीं
चांद बेमकसद सा 
घूमता रहता है रात भर 
नहीं भाती  है उसकी आवारगी 
अमलताश अच्छे नहीं लगते 
जाने किसके लिए 
बेसबब खिलखिलाते हैं हर बरस
और गुलमोहर अच्छे नहीं लगते 
दहकते रहते हैं बस यूं ही
जाने किसकी याद में
तुम्हारा आना अच्छा नहीं लगता
कि आने में हमेशा होती है 
जाने की आहट
और जाना तो बिलकुल नहीं रुचता 
कि जाकर और करीब जो आ जाते हो तुम
अजब सा मौसम है
अच्छी लगने वाली चीजें
मुझे अच्छी नहीं लगतीं इन दिनों...

Saturday, May 14, 2011

हल्का सा कोसा, सुबह का बोसा


सुरों के समंदर में डुबकी लगाई तो ये मोती हाथ लगे. सुरेश वाडकर की आवाज और विशाल भारद्वाज के संगीत में गुलज़ार के साहब के ये शब्द डूबते-उतराते किसी झील के कमल से मालूम हुए. इन्हें अलग से छुआ तो लगा मानो कमल को झील से तोड़कर हाथ में ले लिया हो. कोई इतने प्यार से जगाये तो उम्र भर सोये रहने को जी क्यों न चाहे...

जग जा री गुडिय़ा
मिसरी की पुडिय़ा
मीठे लगे दो नैना
नैनों में तेरे, हम ही बसे थे
हम ही बसे हैं, है ना...
ओ री रानी, गुडिय़ा
जग जा, अरी जग जा...मरी जग जा...

जग जा री गुडिय़ा
मिसरी की पुडिय़ा
मीठे लगे दो नैना...

हल्का सा कोसा
सुबह का बोसा
मान जा री, अब जाग जा
नाक पे तेरे काटेगा बिच्छू
जाग जा, तू मान जा
जो चाहे ले लो, दशरथ का वादा
नैनों से खोलो जी रैना
ओ री रानी, गुडिय़ा
जाग जा, अरी जग जा, मुई जग जा..

किरनों का सोना
ओस के मोती
मोतियों सा मोगरा
तेरा बिछौना, भर-भर के डारूं
गुलमोहर का टोकरा
और जो भी चाहो
मांगो जी मांगो
बोलो जी, मेरी मैना
ओ री रानी, गुडिय़ा
जग जा, अरी जग जा, ओए जग जा...

(http://www.youtube.com/watch?v=RozrGjt9p_w&feature=related)

Monday, May 9, 2011

स्मृतियों की पांखें कितनी बड़ी होती हैं


धूप कई रोज बाद आई थी. उसकी आमद में एक अनमनापन था. कुछ सुस्त कदमों के साथ धीरे-धीरे रेंगते हुए आने की रस्म सी निभा रही थी. बीते कई सारे ठहरे हुए, सीले से दिनों के बाद उसका यूं रेंगते हुए आना मौसम को खुशरंग बना रहा था. थोड़ी ही देर में धूप ने अंगड़ाई ली और आलस को परे धकेला. अब वो पूरी तरह से खिलकर फैल गई थी. लड़की धूप की मटरगश्ती देखकर मुस्कुरा रही थी. जब उसने देखा कि धूप पूरी तरह धरती पर उतर आई है और कोनों में छुपी सीली हुई उदासियों को खींच-खींचकर बाहर निकाल रही है, तो उसे भी कुछ चीजें याद आ गईं. उसे ध्यान आया कि उसके मन के अहाते में न जाने कितने उदास दिन कबसे जमा हैं. सोचा, क्यों न उन्हें भी आज जरा सी धूप दिखा दी जाए.


सदियों से मन के कोनों में रखे-रखे उनमें सीलन सी जमने लगी थी. उसने चुन-चुनकर सारे कोने खंगाले. पोटलियां निकालीं. कैसे-कैसे दिन निकले थे. लम्हे कैसे-कैसे. हर लम्हे की न जाने कितनी दास्तानें. किसी सीले से दिन के पहलू में कोई आंसू छुपा बैठा था तो किसी के पहलू में कोई गीली सी मुस्कुराहट थी. लड़की अजब अजाब से घिरी थी. उसने अपनी ओढऩी को छत पर बिछाया और सारे उदास दिनों को धूप में पसरा दिया. एक-एक दिन को वो उलट-पुलट के देखती जा रही थी. स्मृतियों की पांखें कितनी बड़ी होती हैं. पलक झपकते ही युगों की यात्राएं तय कर लेती हैं. इधर धूप उसके उदास दिनों को सहला रही थी, उधर उसकी स्मृतियां अतीत के बियाबान में भटक रही थीं.


वो भादों के दिन थे. फिजां में रजनीगंधा की खुशबू पहले से बिखरी हुई थी. लड़के की आमद ने उस खुशबू में मोहब्बत घोल दी थी. न चाहते हुए भी उस खुशबू से खुद को बचा पाना आसान कहां था उसके लिए. अभी-अभी गये सावन के निशान अभी बाकी थे. उसके आंचल में गीली मिट्टी की खुशबू और बूंदों की नमी खूब-खूब भरी हुई थी. ऐसे में लड़के ने जब उसके जूड़े में चढ़ते भादों की छोटी सी शाख लगा दी, तो उसके पास सचमुच अपना कुछ भी नहीं रहा. कैसी उमंगों भरे दिन थे वो. चांद निकलता तो उन दोनों को छोड़कर जाने को तैयार ही नहीं होता. हवाएं उनके वजूद से लिपटकर बैठी रहतीं. टकटकी बांधे उन्हें देखती रहतीं. वो पास होते तो मौसम मुस्कुराता था और दूर जाते तो वे दोनों मुस्कुराते. दूर जाकर पास आने का हुनर वे कब का सीख चुके थे. चुप्पियों में उन्होंने अपनी मोहब्बत संभालकर रख दी थी.


उसने सुना था कि सावन की पहली बूंद अगर आपकी नाक पर गिरे तो जिंदगी का बदलना तय है. जिंदगी में मोहब्बत का आना तय है. मुस्कुराना भी तय है. न जाने कितने सालों से वो हर सावन में अपनी नाक आसमान की ओर किये घूमती फिरती थी लेकिन मजाल है कि पहली तो क्या दूसरी बूंद ही नाक को छूकर भी निकल जाये. पर बीते सावन उसकी नाक पर एक बूंद गिरी थी. उसने उस इत्तिफाक को एक लिफाफे में बंद करके रख दिया था. भूल भी गई थी. हां, मुस्कुरा जरूर दी थी. लड़के के आमद की खुशबू ने जब उसे सहलाया तो उसे वो लिफाफा याद आ गया. जिसके भीतर उसकी नाक पर गिरी सावन की पहली बूंद की नमी भी बंद थी.


अमावस की वो काली रात कितनी चमकदार हो उठी थी, जब लड़की ने उस लिफाफे में से वो खूबसूरत इत्तिफाक निकालकर लड़के को दिखाया था. खुशी लड़की की आंखों से छलकने को व्याकुल थी. ठीक उसी वक्त उन दोनों के बीच न जाने कैसी सरहद उग आई थी. न जाने कैसे कोई सिरा टूट गया था. मानो बजते-बजते सितार का तार टूट गया हो...लड़के ने अपनी सारी खुशबू समेट ली थी. उसने आसमान की ओर देखा और उठने को हुआ. 

लड़की ने रोका नहीं. वो जानती थी रोकने से इश्क रुकता नहीं, सिर्फ देह रुकती है. उसने अपनी आंखों के समंदर को वापस अंदर भेज दिया. मुस्कुराकर विदा किया उसे. कुछ भी नहीं पूछा. न कारण आने का, न वजह जाने की. बस एक मुस्कान थी उसके पास जो उसने विदा के समय भेंट कर दी. नाक पर गिरी पहली सावन की बूंद का बाद में क्या हश्र होता है ये क्यों किसी कहावत में दर्ज नहीं...वो यह सोचकर मुस्कुरा दी. 


आज इतने सालों बाद भी वो छूटा हुआ लम्हा धड़क रहा है. धूप लगते ही खिल उठा है. उसे तेज आवाज सुनाई दी धक धक धक... ये उसकी धड़कनों की आवाज तो नहीं थी...तो क्या यहीं आसपास कहीं कोई और भी है...दूर-दूर तक तो कोई नहीं. बस खामोशी का सहरा फैला हुआ था.  उसके सारे सीले दिन धूप पाकर खिल उठे थे. उसने उन्हें फिर से सुभीते से मन की कोठरी में वापस सजाया...लेकिन ये जेठ की दोपहरी में रजनीगंधा की खुशबू न जाने कैसे छूटी रह गई. आंखों के सामने तो सुर्ख गुलमोहर खिले हैं...

Sunday, May 8, 2011

सच तो ये है कुसूर अपना है..




सच तो ये है कुसूर अपना है ...
चाँद को छूने की तमन्ना की
आसमा को जमीन पर माँगा 
फूल चाहा कि पत्थरों  पर खिले..
काँटों में की तलाश खुशबू की 
आरजू  की कि आग ठंडक दे 
बर्फ में ढूंढते रहे गर्मी 
ख्वाब जो देखा, चाहा सच हो जाये 
इसकी हमको सजा तो मिलनी थी 
सच तो ये है कुसूर अपना है..

Friday, May 6, 2011

प्रेम की एक कथा


यह प्रेम की कथा है
किसी दर्शन की नहीं
किसी सत्य की नहीं
किसी साधना की नहीं
न किसी मोक्ष की

वह घटी थी धरती पर
जैसे घटता है प्रेम
जिसमें समाहित हैं
दर्शन, सत्य, साधना, मोक्ष
सौंदर्य

कहां समाप्त हुई वह कथा अभी
अहर्निश वह जागती है
इस धरती पर
वह इस धरती की 
प्रेमकथा...
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मृत्यु को जीतने नहीं

किसने कहा कि वह संतप्त था
मृत्यु को देखकर?

वह मृत्यु को जीतने निकला था
किसने कहा?

साक्षी हैं उसके वचन कि 
उसने सिर्फ जीवन को खोजा
बस यह चाहा कि 
काया की मृत्यु से पहले 
न मरे मनुष्य....


- आलोक श्रीवास्तव

(कविता संग्रह दुख का देश और बुद्ध से)

Wednesday, May 4, 2011

दु:ख को समझना ही दु:ख को जीतना है...


- प्रतिभा कटियार 
धरती के इस छोर से उस छोर तक दुख की कारा है. संसार का कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो दुख की इस कारा में कैद न हो. जैसे काली अंधियारी रात में अचानक टिमटिमाता है कोई तारा, वैसे ही दुख के इस गहनतम अंधकार के बीच उदित होता है एक नाम बुद्ध. इस धरती पर जहां भी कोई अपने दुख से लड़ रहा है, बुद्ध वहीं हैं. दु:ख को समझना ही दुख से लडऩा है. बुद्ध कहते हैं अपना दीपक खुद बनो. दुख की कारा से बाहर निकलो और काया के खत्म होने से पहले मत मरो. दु:ख के देश में बुद्ध का आना एक दुर्लभ संयोग है. यह आना कविताओं के माध्यम से हो तो संयोग और भी दुर्लभ हो जाता है. आलोक श्रीवास्तव का नया कविता संग्रह दु:ख के देश में बुद्ध यह संयोग रचता है. 

मनुष्य की संभावनाओं के प्रतीक बुद्ध की प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है. आलोक की कविताओं में आम आदमी के जीवन के कष्ट और उनसे लडऩे के लिए बुद्ध का दर्शन बेहद सहज ढंग से आता है. कोई राजपुत्र, कोई विरागी महात्मा नहीं, दु:ख के विरुद्ध संघर्ष की जनगाथा है बुद्ध. बुद्ध को समझना खुद को समझना है और मुक्त होना है दु:ख से. प्रस्थान करना है जीवन की ओर. आलोक की कविताएं हमारा ये काम बेहद आसान करती हैं. वे हमारा हाथ पकड़कर बुद्ध के हाथ में थमा देती हैं और हम मुक्त होता महसूस करते हैं. गहरी शांति का अनुभव करते हैं. महसूस होता है अपने भीतर प्रदीप्त होता उजास, जिसकी खोज में न जाने कितने साधू, सन्यासी घूमते फिरते हैं जंगल और पहाड़ों पर. कितना कम जानते हैं हम जीवन को. कितना कम समझते हैं हम खुद को. यह पथ बुद्ध की ओर नहीं, जीवन की ओर ले जाता है, तृष्णा के पार, जहां न कोई धर्म है, न चीवर, कोई शरण न कोई बुद्ध...बुद्ध खुद को स्थापित नहीं करते जीवन को स्थापित करते हैं. जीवन का होना बुद्ध का होना है, दु:ख से लडऩा बुद्ध का होना है...

इंसान जान भी नहीं पाता स्रोत दु:ख के, थकता-टूटता, हारता फिर भी पूजता, नवाता शीष, दुख के निर्माताओं के सम्मुख, कैसी है यह कारा दु:ख की...इस संग्रह से गुजरते हुए दुख की यह कारा टूटती न$जर आती है. जब हर रोज कोई न कोई कारण जीवन के सम्मुख चुनौती बनकर खड़ा हो ऐसे में यह संग्रह उम्मीद की लौ बनकर उभरता है. साक्षी हैं उसके वचन कि उसने सिर्फ जीवन को खोजा, बस यह चाहा कि काया की मृत्यु से पहले, न मरे मनुष्य...यह कोई मामूली विचार नहीं है. आलोक वरिष्ठ कवि हैं. उनके पहले भी चार कविता संग्रह आ चुके हैं. अपनी पिछली कविताओं में जहां वो प्रेम का एक खूबसूरत रूमान गढ़ते हैं, वहीं इस संग्रह में उनका यही रूमान बौद्ध दर्शन में ढलता है. मनुष्य को बचाये रखने की कल्पना, मनुष्यता को सहेजकर रखने की कामना और उसे दु:ख से दूर करने की सदेच्छा इस संग्रह की हर कविता में झलकती है. यूं ही नहीं लिख देता है कोई कि दु:ख को समझना ही दु:ख को जीतना है...सुजाता हो या यशोधरा बुद्ध एक आम आदमी की तरह दोनों के प्रति आभारी हैं. यशोधरा के दु:ख से अनजान नहीं हैं वे. 'जिस तरह उसने मणि मााणिक, मुकुट, गवाक्ष और रथ छोड़े, ज्ञानीजनों, उसी तरह नहीं छोड़ गया था वह, इस स्त्री यशोधरा को, सुनो नीरांजना का शोर, शायद उनके किनारे, उस दिन, कोई रोया था...वो यशोधरा के प्रति क्षमाप्रार्थी रहे जीवन भर. यशोधरा विश्वास करना, जब जर्जर हो गई मेरी देह, दीठ मंद, पांव शिथिल, तब भी तुम्हें नहीं भूला..तप और ज्ञान नहीं, बहुत सारी रातों में रोने के बाद वह अच्छी तरह जानता था, आंसुओं के बारे में...' 

बुद्ध के जाने के बाद भी उनका होना मिटा नहीं पृथ्वी से. कविता विश्वास जगाती है कि वह तुम्हें मुक्ति देने नहीं, दीप बनाने लौटेगा, तुम सुनना उसकी आवाज, खुले रखना द्वार. इस संग्रह से गुजरते हुए महसूस होती है दरवाजे पर दस्तक कि मानो बुद्ध लौट आये हैं. अचानक टूटने लगती है दुख की कारा, खिल उठते हैं तमाम फूल क्योंकि बुद्ध का होना, धरती का, रंगों का, ऋतुओं का, राग का होना है...यह संग्रह आज के दौर की जरूरत है. इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए कविता संग्रह के तौर पर भी और दु:ख की कारा को तोडऩे के हथियार के तौर पर भी. 

पुस्तक- दुख का देश और बुद्ध- कविता संग्रह
कवि- आलोक श्रीवास्तव
मूल्य- रुपये 75 
प्रकाशन- संवाद प्रकाशन, शास्त्रीनगर, मेरठ. 
(दैनिक जागरण में २ मई को प्रकाशित  )
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आइये इसी संग्रह से पढ़ते हैं एक कविता- 

बुद्ध का होना 
एक फूल का खिलना  है
हवा में महक का बिखरना
और दिशाओं में रंगों का छा जाना है

बुद्ध का होना 
अपने भीतर होना है
 दु:ख को समझते हुए जीना

पता नहीं पृथ्वी पर 
कितने कदम चले बुद्ध ने
कितने वचन कहे
कितनी देशना  दी 
पर बुद्ध का होना 
मनुष्य में बुद्ध की संभावना  का होना है
दु:ख की सहस्र पुकारों के बीच
दु:ख से मुक्ति की एक वचनश्रुति का होना है

बुद्ध का होना
धरती का, रंगों का, ऋतुओं का
राग का होना है...
(कवितायेँ जारी....)

Sunday, May 1, 2011

खुश्बू दीवार पे नहीं है...



कहते हैं कि हमारा एकान्त हमें मांजता है. परिमार्जित करता है. एक समय में मैंने इस एकान्त को खूब-खूब जिया है. इतना कि मेरा 'मैं' मेरे सामने किसी नन्हे बच्चे की तरह अनावृत पड़ा होता था. अच्छा, बुरा सब स्पष्ट. अवसाद के ढेर सारे टुकड़ों ने उस 'मैं' को छलनी कर रखा था. वो लहूलुहान सा कातर सा सामने पड़ा होता था और मेरे पास उसे देखकर रो देने के सिवा कोई उपाय नहीं होता था. हम दोनों खुलकर गले मिलते. लंबी सिसकियां अक्सर सीने में छुप जातीं. जल्दी ही हमने एक-दूसरे की मजबूरियां समझ लीं और एक-दूसरे को जैसे हम थे, अपना लिया.

फिर एकान्त से भागने का सिलसिला  शुरू हुआ. तूफान की तरह काम को अपने जीवन में आने दिया और उसमें खुद को डुबो दिया. अब उस घायल 'मैं' को देखती नहीं थी. उससे नजरें चुराकर खुश थी कि चलो, सब ठीक ही है. लेकिन अचानक काम की रफ्तार के बीच कभी सीने में दर्द उठता तो लगता कि ये दर्द जाना पहचाना है.

हम अपने अतीत से भागकर अपना वर्तमान या भविष्य नहीं बना सकते. अतीत को अपनाकर उसे समझकर और उससे खुद को मुक्त करके जरूर आगे बढ़ सकते हैं. इसी जद्दोजहद में नींद से रिश्ता टूट चुका था. उसे मनाने की सारी कोशिशें थकी हारी कमरे में बिखरी पड़ी रहतीं. बस कुछ दवाइयों के रैपर ही अपनी जीत पर मुस्कुराते.

आज ऐसी ही उधार की एक नींद के बाद घंटों दीवार के उस खाली पड़े कोने को ताकते हुए जिस पर कभी सोचा था कि वॉन गॉग की पेंटिंग लगाऊंगी...अतीत के न जाने कितने टुकड़े सिनेमा की रील की तरह खुलने लगे . शुरुआत में अतीत के वे टुकड़े डरे-सहमे से पलकों की ओट से झांकते कि कहीं डांटकर भगा न दिए जाएं. फिर हिम्मत कर सबके सब कमरे में धमाचौकड़ी करने लगते. कोई टुकड़ा दीवार पर जाकर चिपक जाता और खुलना शुरू हो जाता.

वो भी क्या दिन थे जब कॉलेज से छूटकर अक्सर श्मशान घाट के किनारे घंटों बैठा करती थी. जीवन का अंतिम पड़ाव देखने का जाने कैसा मोह था.. कई बार डांटकर भगाई भी गई. फिर भी जाना जारी रहा...एक बार बहुत बारिश हो रही थी और एक गरीब मां सूखी लकडिय़ों के लिए एक मोटे आदमी के सामने गिड़गिड़ा रही थी. उस रोज उसके बच्चे के मरने के दु:ख पर सूखी लकडिय़ों के लिए तरसने का दुख भारी हो आया था.

आज दीवार पर न जाने क्या-क्या दर्ज हो रहा है. भीतर का गहरा खालीपन अतीत के टुकड़ों को डपटता है तो मैं उसे मना करती हूं. सब अपना ही तो हिस्सा है. रिल्के को याद करती हूं. हंस देती हूं. 'अगर तुम्हारे भीतर अब तक के अवसाद से बड़ा अवसाद जन्म ले रहा है तो समझो कि जीवन ने तुम्हें बिसारा नहीं है. वो तुम्हारा हाथ थामे चल रहा है.' रिल्के भी ना कसम से क्या-क्या लिखते हैं, कभी मिलें तो पूछूं कि ये जो इतना अवसाद है इसे रखें कहां यह भी तो बताइये. और जो न होना चाहूं जीवन में, बस सांस लेना चाहूं बहुत सारे लोगों की तरह तो..जीवन आसान न हो जाए...नहीं, प्रतिभा तुम अभिशापित हो जीवन में होने को. कोई आवाज आती है. मैं अवसाद से समझौता कर लेती हूं. उसका स्वाद मीठा सा लगता है.

दीवार के उस खाली कैनवास पर अतीत की तमाम डॉक्यूमेंट्रीज चल रही हैं. उधार की अधूरी सी नींद आंखें मल रही है. गंगा की लहरों में खुद को मुक्त करने की इच्छा...मणिकर्णिका घाट पर उठती ऊंची लपटों में एक उत्सव की तरह लुभाती मृत्यु. ठीक उसी वक्त प्रकाश की आवाज उभरती है... जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मरके भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा...प्रकाश की आवाज गंगा की लहरों से धुली हुई मालूम होती है. गंगा आरती की आवाज बहुत पीछे छूट गई है कहीं...दीवार पर आसमान तक ऊंची उठती लपटें हैं, गंगा की लहरें हैं और प्रेम की असीम कामना लिए एक आवाज...अरे हां, मोगरे के फूलों की खुशबू भी है कहीं आसपास...वो दीवार पे नहीं है...