Friday, March 4, 2011


रात दर्जिन थी कोई
सीती थी दिन के पैरहन
के फटे हिस्से...

वो जाने कैसा लम्हा था
धागे उलझ गए सारे
सुईयां भी गिरकर खो गईं.

दिन का लिबास
उधड़ा ही रहेगा अब...

4 comments:

अमिताभ मीत said...

क्या बात है !

पारुल "पुखराज" said...

vaah !

Swapnrang said...

char panktiyo main saara dard.khub hai

प्रवीण पाण्डेय said...

उफ, गहरा। जब सीने का धागा ही न हो तो जीवन उधड़ा ही रहेगा।