Saturday, December 31, 2011

स्वाति...अंतिम किश्त

(अचानक स्वाति के मुंह का स्वाद कसैला हो उठा.
क्या हुआ मैम, कॉफी अच्छी नहीं बनी क्या?
वैभव ने पूछा तो स्वाति मुस्कुरा दी. अच्छी है. बहुत अच्छी.
आपको देखकर ऐसा नहीं लगता. वैभव ने फ्रैंकी को कुतरते पलकें नीचे किए हुए ही कहा.
स्वाति चुप रही.)


आगे...
मैम एक बात कहूं अगर आप बुरा न मानें तो?
वैभव ने संकोच के साथ कहा.
स्वाति चुप ही रही.
मैं छोटा हूं आपसे फिर भी कहता हूं मैम आप परेशान न रहा करिये. अच्छा नहीं लगता.
स्वाति ने पलकें उठायीं. वैभव उसी तरह फ्रैंकी को कांटे से काटने की झूठमूठ की कवायद कर रहा था.
क्या हुआ? स्वाति ने उसकी आंखों में देखना चाहा. मैं हूं. तुम्हें क्या हुआ?
स्वाति ने वैभव की आंखों में कुछ बादलों के टुकड़े तैरते देखे.
कुछ नहीं. वैभव ने खुद को छुपाना चाहा.
अरे...स्वाति को माजरा कुछ समझ नहीं आया.
मैं ठीक हूं वैभव. डोंट वरी. आई एम फाइन. तुम मेरी इतनी चिंता क्यों करते हो?
उसने प्यार से वैभव के बालों पर उंगलियां फिरा दीं.
एक बात बतायेंगी...?
वैभव ने सर झुकाये-झुकाये ही कहा.
क्या?
स्वाति अपनी आवाज को यथासंभव हल्का बनाने की कोशिश कर रही थी. असल में वो किसी इमोशनल क्राइसिस में अब नहीं पडऩा चाहती थी.
आपका डिवोर्स क्यों हुआ? आप जैसी स्त्री के साथ कैसे नहीं निभा पाया कोई...कहते-कहते वैभव की आवाज डूबने सी लगी.
हो सकता है मैं ही न निभा पाई हूं. और डिवोर्स इतनी बुरी चीज भी नहीं है कि उसके चार बरस बाद भी उसका मातम मनाया जाए.
बल्कि मेरे लिए तो यह जिंदगी जीने के दूसरे मौके जैसा है. मैं खुश हूं
लेकिन आपके आसपास उदासी की एक पर्त रहती है. मुझे लगता है आप दुनिया की सारी खुशियों की हकदार हैं. दुख आपको छूकर भी नहीं गुजरना चाहिए. कभी भी नहीं. इस बार वैभव की आवाज वाकई रुंध गई थी.
वैभव....आई एम फाइन.
स्वाति को अचानक तृप्ति की बात याद आ गई कि वैभव का क्रश है आप पर. अरे हां, यह बात तो वैभव की फियांसी शांभवी ने भी उससे कही थी. तो क्या सचमुच. स्वाति हैरत में थी. वैभव...जस्ट अ लिटिल किड...वो मन ही मन सोच रही थी.
बट आई एम नॉट फाइन. आप बताइये ना क्या हुआ था?
कहां क्या हुआ था?
आपका डिवोर्स क्यों हुआ?
जाने दो ना वैभव. वो बीता हुआ कल है. मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है. एक रिश्ता था जिसे प्यार से सींचा था. फिर वो जाने कैसे रिसने लगा. उस रिसने में हम भी रिसने लगे. और तब हम अलग हो गये. बस. रिश्ते जब जिंदगी पर भारी पडने लगें, तो उनसे आजाद होना जरूरी है. मुझे रवि से कोई शिकायत नहीं है. वाकई.
स्वाति खुद हैरत में थी कि वैभव को वो इस तरह क्यों कनविंस कर रही है. अचानक उसे महसूस हुआ कि वो वैभव को नहीं खुद को कनविंस कर रही है शायद.
जब हम दूसरों से बात करते हैं, तो खुद से भी तो बात करते ही हैं. स्वाति अपनी ही आवाज को बार-बार सुन रही थी.
अब मैं चलती हूं वैभव. काफी देर हो गई है. स्वाति ने सैंडल पहनते हुए कहा.
मैं आपको छोड़ दूं? वैभव ने पूछा.
अरे नहीं. मैं चली जाऊंगी.
रात के एक बज रहे हैं मैम. आपका अकेले जाना ठीक नहीं है.
इट्स ओके. मुझे कुछ नहीं होगा. वैसे भी अब मुझे अकेले ही चलने की आदत हो चली है.
उसने वैभव के गाल थपथपाये. मेरी चिंता मत किया करो बच्चे.
जी. वैभव ने अपनी न$जरें उसके चेहरे पर टिका दीं. अब भी उन आंखों में बादल तैर रहे थे.
स्वाति ने उसके चेहरे से अपनी न$जरें हटा लीं.
रास्ते भर उसके दिमाग में रवि, वैभव और आनंद गड्डमगड्ड होते रहे. उसकी आंखों में भी कई बादल तैरने को आतुर हो उठे.
तनहाई की ये कौन सी मं$िजल है र$कीबों.......कार के म्यूजिक सिस्टम पर यह ग$जल बाई डिफाल्ट बजे जा रही थी. स्वाति ने झटके से टर्न लिया तो ग$जल की तनहाई को मानो खरोंच आ गई.
ओ आनंद. व्हेयर आर यू...उसके मुंह से अनायास ही निकल गया. उसे आनंद बेतरह याद आ रहा था.
न चाहते हुए भी उसकी कार उस बिल्डिंग के सामने खड़ी थी. दुनिया जिसे उसका घर कहती थी. अपार्टमेंट की ऊंची दीवारें ऊंघ रही थीं. वॉचमैन के हिस्से की जिम्मेदारी चांद ने अपने सर ले रखी थी.
तेरस का चांद, स्वाति देखकर मुस्कुराई.........मुस्तैद पहरेदार. गाड़ी का हॉर्न सुनकर वॉचमैन ने दौड़कर गेट खोला.
बोझिल कदमों से वो कमरे की तरफ बढ़ी. कमरे का लॉक खोलने को हुई तो देखा आनंद ऑलरेडी कमरे में है. उसे हैरत भी हुई और खुशी भी. न जाने क्यों इस पल उसे आनंद का यूं कमरे में होना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत का होना लगा. आनंद की शायद आंख लग गई थी इंतजार करते-करते.
दरवाजा खुलने की आवाज से वो हड़बड़ा कर उठा. अरे, आ गईं तुम. उसने मुस्कुराकर स्वाति का वेलकम किया.
स्वाति बदले में सिर्फ मुस्कुराई.
कुछ खाओगी?
आनंद ने बिस्तर से उठने का उपक्रम करते हुए पूछा.
नहीं, रहने दो. स्वाति ने उसे रोका.
तुम कब आये?
दो घंटे हो गये.
फोन कर देते.
मैंने सोचा क्यों डिस्टर्ब करूं. काम हो जायेगा तो आ ही जाओगी.
स्वाति आनंद की बाहों में गिरकर रो लेना चाहती थी. कितना दर्द देता है ये आदमी. इसे क्या सचमुच पता नहीं. दर्द की एक लकीर उसके चेहरे पर खिंच गई जो आनंद को न$जर आ गई शायद.
परेशान हो?
नहीं तो...स्वाति ने अपना चेहरा सख्त रखते हुए कहा.
काम कैसा रहा?
ठीक.
उन दोनों के भीतर क्या चल रहा था क्या नहीं लेकिन जो कुछ भी था वो संवादों में तो बिल्कुल नहीं था. स्वाति बाथरूम में चेंज करने गई तो आनंद ने सिगरेट सुलगा ली.
वो अनमनी सी रात थी. जो कहा जाना था वो कहीं मौन में रख छोड़ा था दोनों ने. संवादों में वे खुद को ढंक रहे थे.
स्वाति लौटी तो किचन में बेवजह चली गई.
बड़ी देर तक वहीं खड़ी रही. उसकी आंखें बार-बार भर आ रही थीं और वो आनंद को अपने आंसू नहीं दिखाना चाहती थी.
क्या कर रही हो? आनंद ने पूछा.
कुछ नहीं दवा ढूंढ रही हूं.
फिर से दर्द उठा है क्या?
हां.
तुम अच्छे फिजीशियन को दिखा लो यार. ये रोज-रोज का दर्द ठीक नहीं है.
स्वाति चुप रही. वो जानती है उसके दर्द का इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है.
आखिर आनंद ने किचन में जाकर स्वाति को उसके आंसुओं के साथ पकड़ ही लिया.
क्यों इतना परेशान रहती हो. मैं हूं ना?
आनंद ने उसका चेहरा अपनी ओर किया. आंसुओं से भरा चेहरा.
आनंद के इतना कहते ही स्वाति का अब तक संभाला, सहेजा सारा धीरज छूट गया. कल रात से बूंद-बूंद उसने खुद को सहेजा था. कल रात से ही क्यों न जाने कितने बरसों से. नहीं रोयेगी वो कभी किसी के सामने तय किया था उसने...लेकिन आज सब छूट गया.
आनंद की एक छुअन ने उसे उससे ही अजनबी कर दिया. उस रात स्वाति ने खुद को अपने आंसुओं से मांजा था और आनंद के प्यार से चमकाया था.
सुबह के चार बज रहे थे और खिड़की के शीशे के पार से चांद उन दोनों को देखने की जुगत में ताकाझांकी कर रहा था.
स्वाति की उंगलियां आनंद की पीठ पर अपना नाम लिख रही थीं. यह उसका प्रिय काम है. आनंद को इसकी आदत है. वो कई बार कुछ और लिखती है और आनंद से बूझने को कहती है बोलो क्या लिखा? आनंद अक्सर गलत ही बूझता था बस जब वो स्वाति लिखती तब वो झट से बूझ लेता था.
चलो मेरा नाम तो पढ़ लेते हो अपनी पीठ पर. स्वाति चुपके से उन अनलिखे अक्षरों पर एक चुंबन रख देती. ये सरकारी मुहर लग गई है आप पर हमारी. समझे.
समझ गया. आनंद हंस देता.
सुनो. आनंद ने उसे खींचकर अपनी बाहों में लिया.
बोलो. स्वाति ने उसकी नाक पकड़ते हुए कहा.
ध्यान से सुनो मेरी बात. ध्यान से.
मैं तुम्हारी बात ध्यान से ही सुनती हूं...बोलो. नाक पकड़े होने के कारण आनंद की आवाज काफी कॉमिक हो रही थीे और स्वाति का हंसते-हंसते पेट फूला जा रहा था.
मजाक बंद करो. ध्यान से सुनो मेरी बात. आनंद ने उसका चेहरा अपने चेहरे के एकदम करीब लाते हुए कहा.
मैं अमेरिका जा रहा हूं. एक साल के लिए.
मैंने जिस रिसर्च के लिए अप्लाई किया था उसमें मेरा सिलेक्शन हो गया है.
अचानक उस कमरे में बड़ा सा मौन दाखिल हो गया. स्वाति एकदम खामोश हो गई.
ये क्या है, खुशखबरी?
स्वाति ने हैरत से पूछा?
जो भी है तुम्हें जानने का हक है.
स्वाति चुप रही.
हक? सिर्फ जानने का?
स्वाति मन ही मन हंसी.
आरती भी जा रही है?
आनंद चुप रहा.
यानी जा रही है. स्वाति ने आनंद के मौन को बांचा.
तुम्हारी बच्चे वाली ख्वाहिश का मैं क्या करूं बोलो? स्वाति मेरी जान, उन सपनों में खुद को मत भटकाओ जिनके देखने से आंखें दुखने लगें. तुम्हारा काम तुम्हें ऊंचाइयां देगा. तुम्हें भरेगा. अंदर से, बाहर से. बच्चे वच्चे के बारे में सोचना बंद करो. मेरे बारे में भी. अपने बारे में सोचो. सिर्फ अपने बारे में. आनंद बोले जा रहा था, स्वाति उसे सुन नहीं पा रही थी. बस देख रही थी. बीच में एक नदी उफना रही थी, जिसे स्वाति पार करके आनंद के सीने से लग जाना चाहती थी. लेकिन नदी का प्रवाह इतना तेज था कि स्वाति को आनंद के करीब पहुंचने ही नहीं दे रहा था. रात के साथ न जाने क्या-क्या गुजर गया था उस रोज.
सुबह एकदम खाली हाथ आई थी. स्वाति ने कॉफी का पानी चढ़ाया. कॉफी की खुशबू फैल रही थी. उसी खुशबू के बीच उसने अभी-अभी जाग रहे शहर को देखा. एक औरत अपने बच्चे के साथ सड़क पार कर रही थी. एक बूढ़ा अखबार पलट रहा था. बच्चे स्कूल जा रहे थे. अचानक स्वाति को लगा कि सड़क पर बच्चे ही बच्चे हैं...छोटे-बड़े बच्चे ही बच्चे. लड़कियां लड़के. पूरा शहर बच्चों से भर गया है. बच्चों की खिलखिलाहटों से गूंज उठा है. उसे यह मंजर अपनी किसी फिल्म का दृश्य सा लगा. चाय की सिप लेते हुए उसने आइने में अपना चेहरा देखा, उसे वहां भी बच्चा न$जर आया. अचानक वो मुस्कुरा उठी.
कंट्रासेप्टिव पिल्स अब भी फ्रिज पर पड़ी थीं...
तभी मोबाइल पर वैभव का मैसेज चमका.
गुड मॉर्निंग मैम...


Friday, December 30, 2011

स्वाति- अगला भाग

(कॉफी की तलब ज्यादा थी या मन का अनमनापन कहना मुश्किल था. लेकिन कॉफी की तलब का उसके पास इलाज था सो अपने जिस्म को उठाकर किचन तक ले जाना ही उसने मुनासिब समझा. )
आगे...
किचन से झांकने पर उसे शहर न$जर आता था. किचन में काम करते हुए शहर को हांफते हुए देखना उसके लिए बेस्ट टाइम पास था. लेकिन रात के दो बजे शहर हांफ नहीं, ऊंघ रहा था.
तभी उसकी न$जर फ्रिज के ऊपर रखे मेडिसिन बॉक्स पर पड़ी. वो मुस्कुरा उठी. कंट्रासेप्टिव पिल्स के रैपर उसमें से झांक रहे थे. उसे हर गोली में आनंद का चेहरा न$जर आने लगा.
बेड पर पड़ा मोबाइल शायद चीख-चीखकर थक गया था. रात के दो बजे भला कौन फोन करेगा उसने झुंझलाकर देखा. अरे आनंद की कॉल?
वो तो देर रात कभी फोन नहीं करता.
वो वैसे भी कम ही फोन करता है. क्या बात है? स्वाति को चिंता हुई. पलटकर फोन करने की हिम्मत नहीं हुई. आनंद ने साफ मना किया है कि वो उसे फोन और मैसेज न करे क्योंकि फोन कई बार उसकी पत्नी भी उठा लेती है. स्वाति का मन असमंजस में घिर गया. आरती के होते आनंद क्यों उसकी जिंदगी में आया. क्यों आने दिया उसने उसे. कितना युद्ध किया था स्वाति ने खुद से. लेकिन एक रोज आनंद ने उसके सारे युद्ध जीत लिये थे. वैसे भी स्वाति अपने समझदारियों का बोझ उठाये-उठाये थक चुकी थी. आनंद का उसके पास होना उसे जीवन का सबसे बड़ा सुख लगता था, वो सुख भी कितने बंधनों में बंधकर पहुंचा है उस तक. नैतिकताओं के तमाम पन्ने उसके जेहन में फडफ़ड़ा रहे थे. प्रेम के आगे सारे तर्क बौने पड़ जाते हैं. इसी उधेड़बुन में स्वाति को नींद ने धर दबोचा.
सुबह उस रोज जरा देर से आई थी. करीब दस बजे. कामवाली बाई के साथ.
दरवाजे पर किर्रर्रर्रर्र की आवाज के साथ एक कर्कश सुबह ने स्वाति को झिंझोड़कर उठाया.
क्या मैडम, इत्ती देर तक सोती हो? बीना ने आते ही उसे अखबार के साथ ताना टिकाया.
स्वाति ने अखबार को एक तरफ पटका और फिर से चादर तान ली.
लेकिन जल्द उसे उठना ही पड़ा. स्टूडियो से फोन आ चुका था. उसे वहां जल्दी पहुंचना था. उसकी डाक्यूमेंट्री की एडिटिंग का काम चल रहा है. जल्दी से एडिटिंग कंप्लीट नहीं हुई तो इस बार भी उसकी फिल्म जा नहीं पायेगी सिलेक्शन के लिए.
जल्दी-जल्दी नहा धोकर उसने सामान पैक किया. भूख के ख्याल को फ्रिज में पड़े सैंडविच के साथ वापस अंदर भेज दिया.
वैभव को फोन करके स्वाति ने फटाफट स्टूडियो आने को कहा और निकल पड़ी दिन के सीने पर बंदूक रखकर काम की धज्जियां उड़ाने. जितना समय शूटिंग में नहीं लगता, उससे ज्यादा तो एडिटिंग और बाकी कामों में लग जाता है. स्वाति सीढिय़ां उतरते-उतरते सोच रही थी. बीती रात का ख्याल दिमाग के बैकअप में लगातार जमा हुआ था, जिसे सामने आने की मनाही स्वाति ने खुद की थी.
मैम, आना को तेज बुखार है. आज नहीं आ पाऊंगी...ये तृप्ति का स्वर था.
स्वाति खामोश रह गई. आना का नाम आते ही उसके पास चुप लगा जाने के सिवा कोई चारा नहीं रहता. तीन बरस की मासूम आना का चेहरा उसकी आंखों के सामने घूम गया. आना तृप्ति के साथ कई बार स्टूडियो आती है. मां को काम करते हुए देखती है. स्टूडियो के सभी लोगों से उसकी जान-पहचान हो गई है. आना में स्वाति को अपने उदास बचपन की कोई तस्वीर न$जर आती है. पांच बरस की उम्र में स्कूल से अकेले आना. दरवाजे पर बड़ा सा ताला. पड़ोस वाली आंटी से ताला खुलवाकर घर के अंदर जाना. फिर दिन भर आवारगी. इसके-उसके घर झांकना. वो खाना खाये, न खाये कपड़े बदले, न बदले कोई कुछ कहने वाला नहीं था. मां सुबह ही काम पर निकल जाती थी और देर रात लौटती थी. पापा दूसरे शहर में रहते थे. मां कैसरोल में रखे पराठे और सब्जी के रूप में अपनी ड्यूटी पूरी कर जाती थी. मां को ऐसा करने में कितनी पीड़ा होती थी, यह उसके बचपन में कहीं दर्ज नहीं. शायद मां अच्छी अभिनेत्री थी. उसका चेहरा हमेशा सख्त रहता था. उसके गले से लिपट जाने का ख्याल जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ देता था.
तृप्ति तुम आना को पूरा वक्त दिया करो. स्वाति उससे अक्सर कहती.
मैं देती हूं मैम. क्वालिटी टाइम...तृप्ति के चेहरे पर तृप्ति के भाव उभरते. वो आना को भींच लेती अपनी बाहों में...आना अपनी मॉम के गाल पर मीठी सी किस जड़के उसकी बात का समर्थन करती.
स्वाति की आंखें भर आतीं उनके इस लवी-डवी सीन को देखकर. उसकी स्मृतियों में क्यों ऐसा एक भी दृश्य नहीं है. शायद हमारे पैरेंट्स को अपने बच्चों को खुलकर प्यार करना नहीं आता था. अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने को ही वे प्यार समझते रहे.
क्या हुआ मैम...काम शुरू करें?
वैभव की आवाज से स्वाति की स्मृतियों की यात्रा को विराम मिला.
तृप्ति नहीं आ रही है. आना को बुखार है. स्वाति ने बिना किसी भाव के कहा.
अरे, तो काम कैसे होगा? वैभव ने झुंझलाकर कहा.
तुम्हें पूछना चाहिए कि आना को क्या हुआ? कैसी है वो?
स्वाति ने उसे घूरकर देखा.
वैभव झेंप गया. मैम...वो...मेरा ध्यान काम पर था.
अच्छा है काम पर ध्यान देना लेकिन जिंदगी से बढ़कर काम नहीं है ना?
मैम, बच्ची के पापा भी तो उसका ख्याल रख सकते हैं. काम भी तो जरूरी है ना. आफ्टर ऑल प्रोफेशनल वल्र्ड है. फिर क्यों बच्चों की बीमारी मां की जिम्मेदारी ही है. जमाना बराबरी का है ना? वैभव को मौका मिल गया.
याद रखना. तुम्हारी भी शादी होने वाली है. स्वाति ने चुटकी ली.
याद रखूंगा मैम. नहीं कर पाया अगर तो कह दूंगा शांभवी से कि घर बैठो. नौकरी और घर दोनों के साथ नाइंसाफी करने कोई जरूरत नहीं.
ओह...तो यह फैसला भी आप ही करेंगे. आप क्यों नहीं छोड़ेंगे नौकरी, शांभवी क्यों? उसका करियर, करियर नहीं है?
वैभव अब फंस चुका था.
अरे मैम, मैं निभा लूंगा.
तृप्ति भी तो निभा रही है ना?
आप तो उसी का साइड ले रही हैं. काम तो सफर कर रहा है ना? मुझे क्या मैं भी घर जा रहा हूं. वैभव तुनक गया.
नहीं, तृप्ति वाला काम भी हम दोनों ही करेंगे. न हो तो थोड़ी देर को शेखर को बुला लेते हैं. काम पूरा करना है. इंट्री सब्मिट करने की लास्ट डेट ओवर होने वाली है.
शेखर तो बाहर गया है मैम. फिर पिछला काम कहां तक हुआ है, कहां से शुरू करना है यह तो तृप्ति को ही पता है.
क्यों तुम्हें भी तो पता है ना. तुम थे उसके साथ. स्वाति ने डपटा.
काम पूरा करते हैं.
एक बार स्टूडियो में घुसे तो दिन रात का पता ही नहीं चलता जमुहाई लेते हुए वैभव ने कहा. मैम...फस्र्ट एडिटिंग तो कम्पलीट हो गई. फिल्म बढिय़ा आई है. खासकर वो जंगलों वाले सीन तो कमाल हैं. दैट्स व्हाई आई अडोर यू मैम. यू आर जस्ट ब्रिलिएंट...वैभव ने सर झुकाकर नाटकीय अंदाज में स्वाति से कहा. बस...बस...हो गया. स्वाति खिलखिला दी.
काम हो जाने के बाद हंसी में एक हल्कापन सा आ जाता है. वो रूई के फाहों की तरह उड़ती फिरती है. स्वाति की हंसी भी रुई की तरह उड़ती फिर रही थी स्टूडियो में.
मैम, अपना असिस्टेंट बना लीजिए प्लीज. वैभव ने मनुहार की.
सोचेंगे...स्वाति ने बड़ी अदा से बालों को पीछे झटककर कहा.
फिलहाल बहुत भूख लगी है. कुछ खाने का जुगाड़ किया जाए. काम अगर ठीक से हो जाए तो भूख भी खुलकर लगती है.
वैभव दो वेज फ्रेंकी पैक कराकर लौटा तब तक स्वाति टेबल पर सर रखकर झपकी ले चुकी थी.
वैभव, अब मैं निकलूंगी. घर जाकर खाऊंगी. बहुत नींद आ रही है.
अरे मैम, प्लीज खाकर जाइये ना. मैं अकेले कैसे खाऊंगा.
क्यों, अकेले नहीं खाते क्या कभी?
खाता हूं पर अभी मन नहीं है. और आप भी खायेंगी नहीं. जाकर फ्रिज में डंप कर देंगी.
वैभव अगर मैंने अभी खा लिया न तो मैं ड्राइव नहीं कर पाऊंगी. मुझे अब जाना होगा.
तो शंकर काका छोड़ आयेंगे ना? वैभव ने मनुहार की.
कहां उन्हें परेशान करेंगे. सोने दो बेचारे को. बारह बज रहे हैं रात के.
बारह...कहते-कहते स्वाति का चेहरा बुझ गया. कल रात के बाद एक बार भी आनंद का फोन नहीं आया. कोई मैसेज भी नहीं.
चलो, अच्छा खाते हैं. कॉफी बना सकते हो? स्वाति ने आनंद के ख्याल को झटकते हुए कहा.
जरूर. वैभव खुश हो गया.
खाते-खाते स्वाति का मन बेचैन हो उठा.
क्यों कोई फोन नहीं किया आनंद ने? वो हमेशा ऐसा क्यों करता है? खालीपन की एक टीस सी उठी उसके मन में. रात के सीने को चीर देने वाली चीख उसके गले में फंसी थी.
अचानक स्वाति के मुंह का स्वाद कसैला हो उठा.
क्या हुआ मैम, कॉफी अच्छी नहीं बनी क्या?
वैभव ने पूछा तो स्वाति मुस्कुरा दी. अच्छी है. बहुत अच्छी.
आपको देखकर ऐसा नहीं लगता. वैभव ने फ्रैंकी को कुतरते पलकें नीचे किए हुए ही कहा.
स्वाति चुप रही.
जारी... 

Friday, December 23, 2011

स्वाति

- प्रतिभा कटियार 
(कल के लिए पत्रिका के दिसंबर अंक में छपी इस कहानी को ब्लॉग पर सहेज रही हूँ बस )

सड़कें किसी मुर्दा देह की तरह ठंडी और अकड़ी हुई पड़ी थीं. उन पर रेंगने वाले लोग और धमाचौकड़ी मचाती गाडियां मानो सीने पर प्रहार करके मुर्दे की सांसें लौटा लाने की कोशिश कर रहे हों. नाकाम कोशिश. 

दिसंबर की सर्द रात में शहर की एक ऐसी ही मुर्दा सड़क पर चलते हुए स्वाति ने आनंद को चूम लिया था. अचानक सड़कों की सांसें मानो लौट आई थीं. वे फटी आंखों से उन्हें देख रही थीं. चूंकि यह कार्रवाई महज कुछ सेकेंड्स में संपन्न हो गई थी इसलिए सिवाय उस कचहरी के पास वाले पीपल के पेड़ के, रामआसरे मिठाई वाले के बंद शटर और अभी-अभी अपनी मुर्दगी छोड़ लौटी सड़क के इस घटना की किसी को भनक भी न मिली.

आनंद के भीतर इस घटना का क्या प्रभाव पड़ा कहना जरा मुश्किल है क्योंकि आनंद बाबू खुद को छुपाकर रखने वाले प्राणियों में से हैं. अपनी शख्सियत पर बड़ा सा ताला लटकाकर रखते हैं वो. उनके होठों के आसपास एक मुस्कुराहट को जरूर देखा गया.
दोनों के कदम एक लय में बढ़ रहे थे. स्वाति ने अपने शॉल को मजबूती से कसते हुए कानों को बांधा. ठंड खूब बढ़ गई है नईं?
स्वाति ने आनंद से पूछा.
अभी-अभी कम हुई है कुछ. 
आनंद ने शरारत से कहा. 
अच्छा? स्वाति हंस दी.
काफी दूर तक सन्नाटा उनके साथ चलता रहा.
आनंद...मुझे कुछ कहना है. 
स्वाति ने सन्नाटे को परे धकेलते हुए कहा.
आनंद को स्वाति की शरारतों की तो आदत थी, उसके खिलंदड़ेपन की, उसके धौल-धप्पों की भी लेकिन उसकी गंभीर आवाज से वो डर जाता था. 
बोलो? आनंद ने उसके चेहरे में वो तलाशना चाहा, जिसे कहने के लिए स्वाति शब्द तलाश रही थी. चेहरा एकदम निर्विकार था. वहां कोई भाव नहीं था. 
मैं मां बनना चाहती हूं. स्वाति ने एक झटके में अपना वाक्य पूरा किया और खुद को खामोशी की चादर में समेट लिया.
ओह...ये क्या हुआ, सोचते हुए सड़क वापस अपने आलस के खोल में मुर्दा होकर सोने चली गई. मानो उसे यकीन हो कि अब यहां कुछ भी ऐसा नहीं बचा जिसे देखने के लिए उसे अपनी नींद खराब करनी चाहिए. 
गहराती रात में स्वाति की ये ख्वाहिश मानो पूरी फिजा में तैर गई. सर्द लहर का एक झोंका दोनों की हड्डियों तक को कंपा गया. 
घर चलें? आनंद ने कहा. 
स्वाति की आंखें भर आईं जिसे उसने हमेशा की तरह समेट लिया.
ठीक है? 
उसने आनंद की ओर मुस्कुरा कर देखा. ये विदा की बेला के पल थे. आनंद से उसकी मुलाकातों का अंत अक्सर ऐसे ही होता है. अचानक जैसे कोई राग विखंडित हो गया हो. वो अचानक बातों को बीच में अधूरा छोड़कर चल देता है. फोन काट देता है. स्वाति पहले लड़ती थी उसकी इन हरकतों पर लेकिन अब उसे इसकी आदत हो गई है.
चलो तुम्हें छोड़ दूं?
नहीं, मैं चली जाऊंगी. तुम जाओ. स्वाति ने आनंद की आंखों में झांकते हुए कहा. 
ठीक है. मिलते हैं फिर. बाय. 
विदा की औपचारिकताएं अगर ढंग से न निभाई जाएं तो मिलन का सारा मजा जाता रहता है. एक किरकिराहट सी शामिल हो जाती है पूरी मुलाकात में. आनंद उस मुर्दा सी सड़क पर स्वाति की ख्वाहिश के साथ उसे अकेला छोड़कर चला गया. 
स्वाति अपने कमरे में लौट आई थी. कमरा जिसे लोग उसका घर कहते हैं. जिस पर उसके नाम की चिठ्ठियाँ  और पार्सल आते हैं. उसने कमरे की बाजुओं में खुद को सौंप दिया. बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई. 
सर्दी की रातों में कोहरे की चादर के बीच यूं सड़कों पर टहलना उसे बहुत पसंद है. वो कोहरे की खुशबू को अपने भीतर भर लेती है. उसी खुशबू में कॉफी की खुशबू मिक्स करना उसे काफी रोमैंटिक लगता है. लेटे-लेटे ही स्वाति ने सैंडल उतारकर फेंके और जीन्स की बटन खोलकर कमर को जरा राहत दी.

कॉफी की तलब ज्यादा थी या मन का अनमनापन कहना मुश्किल था. लेकिन कॉफी की तलब का उसके पास इलाज था सो अपने जिस्म को उठाकर किचन तक ले जाना ही उसने मुनासिब समझा. 
जारी...

Monday, December 19, 2011

दर्द तो होता रहता है, दर्द के दिन ही प्यारे हैं

जब चाहा इकरार किया, जब चाहा इनकार किया
देखो, हमने खुद ही से, कैसा अनोखा प्यार किया.

ऐसा अनोखा, ऐसा तीखा, जिसको कोई सह न सके
हम समझे पत्ती पत्ती को, हमने ही सरशार किया

रूप अनोखे मेरे हैं और रूप ये तूने देखे हैं
मैंने चाहा, कर भी दिखाया, जंगल को गुलज़ार किया

दर्द तो होता रहता है, दर्द के दिन ही प्यारे हैं
जैसे तेज़ छुरी को हमने रह रहकर फिर धार किया

काले चेहरे, काली खुशबू, सबको हमने देखा है
अपनी आँखों से इन सबको, शर्मिंदा हर बार किया

रोते दिल हँसते चेहरों को कोई भी न देख सका
आंसू पी लेने का वादा, हाँ, सबने हर बार किया

कहने जैसी बात नहीं है, बात तो बिलकुल सादा है
दिल ही पर कुर्बान हुए, और दिल ही को बीमार किया

शीशे टूटे या दिल टूटे, खुश्क लबों पर मौत लिए
जो कोई भी कर न सका वह हमने आख़िरकार किया

'नाज़' तेरे जख्मी हाथों ने जो भी किया अच्छा ही किया
तूने सब की मांग सजाई, हर एक का सिंगार किया.

- मीना कुमारी

Thursday, December 15, 2011

तेरे होने से 'होना' जाना



वो बारिशों के गांव में रहती थी. बारिश की बूंदों पर पांव रखते हुए उसने बचपन की दहलीज को लांघा था. वो बारिश की बूंदों को हथेलियों में और आसमान से गिरती ओस को पलकों पर सहेजना सीख गयी थी. अपने दुपट्टे के किनारों में वो सुनहरी धूप के कुछ वक्फे बांधकर रखती थी. उसके इस हुनर से कुदरत भी नावाकिफ थी. वो जंगल के रास्ते होकर बारिश के गांव से पार जाती थी. गांव के उस पार जहां दूसरी दुनिया रहती थी. वो दुनिया जिसमें उसकी चाहतों का सूरज उगता था. वो दुनिया जहां पहुंचकर उसके चंपई गालों पर चमक पैदा हो जाती थी और उसे अपनी मुस्कुराहटों को काबू करने में खासी मशक्कत करनी पड़ती थी.

लड़के की एक झलक पाने के लिए वो रास्तों को अपने सर पर रखकर भागती फिरती थी. अपनी अंजुरियों में बारिश को समेटे वो उसके सामने अचानक जा खड़ी होती. अपने कंधे पर पड़ी बूंदों से भीगकर वो बिना न$जर उठाये मुस्कुरा देता था. उसकी कूची से जितने भी रंग बिखरे होते थे, लड़की की खिलखिलाती आवाज का जादू अपनी अंजुरी में समेटी बारिश से सब बहा देता. फिजाओं में खिलखिलाहटें तैरतीं और कैनवास पर बारिश. रंग पानी से झगड़ा करते लेकिन हार जाते और गहरे लाल रंग की लकीर कैनवास पर बिखर जाती. बाकी के सारे रंग उसके आसपास चुपचाप बैठ जाते. कैनवास के इस खेल से वो दोनों बेखबर थे.

एक-दूसरे की पीठ से पीठ टिकाये वो जाते हुए लम्हों पर अपने दस्तखत करते जाते. दिन के बीतने की आहट लड़की के जाने का संदेशा होती थी. वो दिन को समेटकर चल पड़ती फिर जंगल के रास्ते बारिश के गांव. लड़का उसे हंसकर विदा देता और नया कैनवास उठा लेता. उस रोज उसने देखा कि लड़की की आंखों का काजल वहीं गिर गया है. उसने कैनवास पर उस काजल से काली रात रचनी चाही लेकिन जाने कैसे कैनवास पर दो सूनी आंखें चमकने लगी. लड़का घबरा गया. उसने अपनी आंखें बंद कर लीं. सारी रात वो बरसती बूंदों को अपनी पलकों पर समेटता रहा. सुबह का इंतजार करता रहा. लड़की रोज की तरह अंजुरी में बारिश लेकर आई लेकिन लड़के के तमतमाते चेहरे को देख उसने बारिश को सुभीते से दरवाजे पर रख दिया. दुपट्टे से हाथ पोछे और लड़के के माथे को छुआ. तपता हुआ माथा. लड़की की छुअन से लड़के ने आंख खोली. वो बेहद घबराया हुआ था. उसने लड़की कसकर भींच लिया.
'सुनो, मैं अब तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा. किसी की नहीं सुनूंगा...समझीं तुम. तुम्हारी भी नहीं...'
लड़की हंस दी.
'तो मैं कहां जहां रही हूं तुम्हें छोड़कर.'
'कल तुम्हारी आंखों का काजल यहां गिरा था. मैंने सोचा उससे रात रचता हूं. मुझे यह ख्याल ही नहीं रहा कि इसके बगैर तुम्हारी आंखें कितनी सूनी हो जाएंगी.'
'बस, इतनी सी बात. पगले, मेरी आंखों की चमक तुम्हारे होने से है किसी काजल से नहीं.'
'फिर मुझे डर क्यों लगा?'
'ये डर तुम्हारी कमजोरी है कि तुम मुझे खो दोगे.'
'तुम नहीं डरतीं?'
'नहीं. मैं जानती हूं कि मैं तुम्हें कभी नहीं खोने वाली.'
'क्यों नहीं डरतीं तुम?'
'क्योंकि मैं यह जानती हूं कि यह कायनात मुझसे है, मैं इस कायनात से नहीं. जानते हो मुझमें यह भरोसा कहां से आया?'
'कहां से? ' लड़का उसके दुपट्टे में लिपटा बैठा था.
'मेरे बाबा ने एक बार कहा था कि जो इंसान प्यार में होता है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. जिस दिन मैं तुमसे मिली मेरे सारे डर जाते रहे.' लड़की ने उसकी नाक खींचते हुए कहा.
'तुम्हें ठंड लग रही है ना?'
लड़के ने 'हां' में सर हिलाया.
'जिस दुपट्टे में छुपे बैठे हो उसके कोने में धूप के टुकड़े बंधे हैं. एक टुकड़ा खोल कर पहन लो. एकदम ठीक हो जाओगे.'
'धूप पहन लूं?'
'हां. जैसे मैं बारिश पहनती हूं.'
'तुम मुझे अपनी पनाह में ले लो ना?' लड़के ने अब समर्पण कर दिया.
'चलो ले लिया.' लड़की हंस दी.
दूर कहीं अंगीठी जल रही थी. लड़की उस आग की ओर चल दी.
'कहां जा रही हो?'
'तुम्हारे लिए आग लेने?'
थोड़ी ही देर में वहां आग जलने लगी. लड़के की नाक में कहवे की खुशबू घुलने लगी. उसने कैनवास की ओर विरक्ति से देखा और लड़की की ओर आसक्ति से.
'अब हम साथ-साथ रहेंगे. हमेशा.' लड़के ने घोषणा की. लड़की मुस्कुराई. उसी पल उन दोनों ने उस जलती आग को साक्षी मानकर वक्त के उस लम्हे पर अपने प्यार के हस्ताक्षर किये.

यह बारिश और धूप के बीच का संबंध था. छाया और धूप के बीच का. दिन और रात के बीच का, कहे और अनकहे के बीच का. वक्त के वो सारे लम्हे जिन पर उन दोनों अपने प्यार की मुहर लगायी थी, सदियों के लिए सुरक्षित हो गये. वो लम्हे अब भी वहीं ठहरे हुए हैं. उनकी खुशबू अब भी फिजाओं में तैर रही है. मौसम के हर रंग में उन दोनों का प्यार मुस्कुराता है.
दूर कहीं गांव से कोई औरत लालटेन लिए आ रही थी. ये वही लड़की है जो हर प्यार करने वाले को राह दिखाती है सदियों से.

Wednesday, December 7, 2011

मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूं शिकायत हो...




इन दिनों नाराज हूँ. किससे, पता नहीं. क्यों, पता नहीं. नाराजगी के मौसम में अक्सर साहिर को याद करती हूँ. शायद मैं उनसे भी नाराज ही हूँ और वो दुनिया से नाराज रहे. साहिर मेरे महबूब शायर हैं. अमृता आपा की जानिब से मैं उनसे झगडती भी हूँ और मोहब्बत भी करती हूँ. समंदर के इन्ही किनारों पर टहलते हुए उस रोज शिद्दत से अमृता आपा की याद आई थी. साहिर की भी...(तस्वीर- माधवी गुलेरी )

तुम्हें उदास सा पाता हूँ मैं कई दिन से
ना जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम
वो शोख़ियाँ, वो तबस्सुम, वो कहकहे न रहे
हर एक चीज़ को हसरत से देखती हो तुम
छुपा छुपा के ख़मोशी में अपनी बेचैनी
ख़ुद अपने राज़ की ताशीर बन गई हो तुम


मेरी उम्मीद अगर मिट गई तो मिटने दो
उम्मीद क्या है बस एक पास-ओ-पेश है कुछ भी नहीं
मेरी हयात की ग़मग़ीनीओं का ग़म न करो
ग़म हयात-ए-ग़म यक नक़्स है कुछ भी नहीं
तुम अपने हुस्न की रानाईओं पर रहम करो
वफ़ा फ़रेब तुल हवस है कुछ भी नहीं


मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूं शिकायत हो
मेरी फ़ना मीर एहसास का तक़ाज़ा है
मैं जानता हूँ के दुनिया का ख़ौफ़ है तुम को
मुझे ख़बर है ये दुनिया अजीब दुनिया है
यहाँ हयात के पर्दे में मौत चलती है
शिकस्त साज़ की आवाज़ में रू नग़्मा है


मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं
मेरे ख़याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम
ये तुम ने ठीक कहा है तुम्हें मिला न करूँ
मगर मुझे बता दो कि क्यूँ उदास हो तुम
हफ़ा न हो मेरी जुर्रत-ए-तख़्तब पर
तुम्हें ख़बर है मेरी ज़िंदगी की आस हो तुम


मेरा तो कुछ भी नहीं है मैं रो के जी लूँगा
मगर ख़ुदा के लिये तुम असीर-ए-ग़म न रहो
हुआ ही क्या जो ज़माने ने तुम को छीन लिया
यहाँ पर कौन हुआ है किसी का सोचो तो
मुझे क़सम है मेरी दुख भरी जवानी की
मैं ख़ुश हूँ मेरी मोहब्बत के फूल ठुकरा दो


मैं अपनी रूह की हर एक ख़ुशी मिटा लूँगा
मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता
मैं ख़ूद को मौत के हाथों में सौंप सकता हूँ
मगर ये बर-ए-मुसाइब उठा नहीं सकता
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे
निजात जिन से मैं एक लहज़ पा नहीं सकता


ये ऊँचे ऊँचे मकानों की देवड़ीयों के बताना या कहना
हर काम पे भूके भिकारीयों की सदा
हर एक घर में अफ़्लास और भूक का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये करख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिस में
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा


ये शरहों पे रंगीन साड़ीओं की झलक
ये झोंपड़ियों में ग़रीबों के बे-कफ़न लाशें
ये माल रोअद पे करों की रैल पैल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छाई हुई


ये ज़ंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानून और ज़ब्ते की गिरफ़्त
ये ज़ीस्क़ ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म हैं बहुत मेरी ज़िंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज़ न दो...
- साहिर लुधियानवी

Saturday, December 3, 2011

अंतिम शरण्य



ये लहरों के समन्दर में जन्म लेने से पहले की कथा है. ये धरती पर पहली फसल उगने से पहले की कथा है. यह पहाड़ों पर गिरने वाली पहली बर्फ से भी पहले की बात है. ये किसी स्त्री की आँख में उगने वाले पहले आंसू से पहले की कथा है. ये कथा है इस दुनिया में कोई भी प्रेम कहानी शुरू होने और लिखे जाने से पहले की. असल में ये कोई कथा है ही नहीं. ये सिर्फ बात है. दो स्त्रियों की बात. शरद की रात में आसमान से झांकता चाँद उस रोज अलसाया सा बस आसमान में रखा हुआ था. वो रखे हुए ही लुभा रहा था. दुःख से भरी उस स्त्री को भी वो चाँद लुभा रहा था.

नंगे पैरों से विदेशी घास को रौंदते हुए इस दुनिया की हर चीज़ के प्रति उसका मन बेजार हुआ जाता था. उसे न जाने क्यों न जाने कहाँ ला खड़ा किया गया था. वो बस किसी यंत्र की तरह चलती जाती थी. इस बीच न जाने कितने ज्ञानी आये, कितने पाठ पढाये, कितने उपचार हुए लेकिन मन की बेजारी न ख़त्म होनी थी, न हुई. चाँद उसे देखकर मुस्कुरा दिया, 'तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता' उसने संकेत में कहा. लड़की ने भी सहमति में सर हिलाया.

तभी सफ़ेद वस्त्रों में एक भव्य स्त्री उसके सामने आई. लोग उनके पैरों में झुकने लगे. वो उन्हें आशीर्वाद देने लगी. अजीब द्रश्य था. लड़की ने उस स्त्री को हाथ जोड़कर प्रणाम किया. उस स्त्री ने नेह भरी नज़र डाली और सबको विदा होने का संकेत दिया. लड़की का हाथ किसी सखी की तरह हाथ में लेकर पूछा, क्यों परेशान हो? उस छुअन ने लड़की के मन को मुक्त किया...उसने बस इतना कहा, जीवन में होने का जी नहीं करता...

इसके बाद देर तक ख़ामोशी की चहलकदमी कमरे में होती रही. देर तक दोनों स्त्रियाँ रोती रहीं. उस रुदन में चीखना भी शामिल था, मारना भी, खुद को नोचना भी.

हम दुःख से भागना क्यों चाहते हैं. क्यों पीछा छुड़ाना चाहते हैं. क्या दुःख जीवन का हिस्सा नहीं. क्यों जी भर के रोने की इज़ाज़त नहीं. क्यों सुख से दुःख को हमेशा रिप्लेस करने को कहा जाता है. क्यों दुःख का जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए. वो दुःख जो किसी अपने से होकर आया है. वो दुःख जिसे भाग्य ने हमारे लिए चुना है. दोनों स्त्रियाँ खामोश थीं और ये सवाल हवा में तैर रहे थे.

तुम क्या करना चाहती हो? बूढी स्त्री ने पूछा.
मै जीवन की इस नदी के उस पार जाना चाहती हूँ?
क्यों? कौन है वहां?
कोई नहीं?
फिर?
पता नहीं. लेकिन जीवन में जी नहीं लगता.
तो मत लगाओ जी.
छोड़ दूं इस काया को?
हाँ, लाओ मुझे दे दो. तुम्हारी काया. पर एक बात कहूं. अपना मन मत देना किसी को. तुम्हारा मन अनमोल है. ऐसा निर्मल मन मैंने पहले नहीं देखा.
क्या करूँ इस निर्मल मन का?
जियो इसे.
मन को जीना आसान नहीं होता.
तो मुश्किल जियो.
इसके लिए देह में होना ज़रूरी है क्या?
नहीं, देह में होना नहीं अपने मन में होना. अपने मन को समझना है. अपनी देह से पार जाकर खुद को देखना है जीवन. तुम देह का त्याग करके भी जीवन से दूर नहीं जा सकोगी.
ये कैसी बात है?
हाँ, कुछ आत्माएं अभिशप्त होती हैं हमेशा जीवन में होने को. तुम उनमें से एक हो.
मेरा गुनाह?
तुम्हारा विशिस्ट होना.
इससे मुक्ति?
सेवा...अपने होने से दूसरों को सुख दो.
और मेरी मुक्ति? मेरा सुख?

ज्ञान की सारी परिभाषाएं चुक चुकी थीं. वो स्त्री भी रो रही थी. वो खुद मुक्ति की तलाश में थी. और अब उस चाँद रात के साये में एक नहीं दो आत्माएं मुक्ति की तलाश में छटपटा रही थीं. धम्मम शरणम् गच्छामि...की आवाज सुनाई दी थी तभी...सुना है अभी-अभी बुध्द गुजरे हैं यहीं से....जहाँ कोई दुःख से लड़ रहा है बुध्द वहीँ हैं...सचमुच...

Thursday, December 1, 2011

कोई प्यार काफी नहीं होता उम्र भर के लिए



'बीत जाएगी दुःख की रात
दर्द कम हो ही जाता है सबका
एक न एक दिन,
धीरे-धीरे कम होती जाएगी याद.
खामोश काली रातों में
नहीं चमकेंगी किसी की आँखें,
एक दिन आ जायेगा जीना
मेरे बिन,
यकीन मानो कोई प्यार
काफी नहीं होता उम्र भर के लिए'
इतना कहके उसने पीठ घुमाई थी
उसकी पीठ अब तक
आँखों से ओझल नहीं हुई
क्या उसको भी
अपनी पीठ पर कुछ नमी लगती होगी?

Monday, November 14, 2011

तुमने उसे कहीं देखा है क्या...


वो रात का मुसाफिर था. उसके कंधे पर एक पोटली रहती थी. जो खासी भारी सी मालूम पड़ती थी. उस पोटली के बोझ से मुसाफिर अक्सर झुककर चलता था. अपने कंधे के बोझ को अपने दूसरे कंधे पर रखकर पहले कंधे को बीच-बीच में आराम देता था. रास्ते में कोई कुआं या बावड़ी मिलती, तो उस पोटली को वहीं रखकर पानी को हसरत से देखता. पानी पीने के लिए वो बावड़ी में उतर नहीं सकता था और कुएं से पानी खींचने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं होता था. पोटली की निगरानी की ताकीद इतनी सख्त थी कि वो पलक झपकाये बगैर उसे देखता रहता. कभी थकान से जब जिस्म दोहरा हो जाता तो उसी पोटली पर सर रखकर कुएं की जगत पर चंद नींद की झपकियां लेता. फिर किसी सपने के बीच से हड़बड़ाकर उठ बैठता. वो सपने में देखता कि कोई उसकी पोटली लेकर भागा जा रहा है. वो उसके पीछे दौड़ रहा है. चिल्ला रहा है...अरे सुनो. रुको तो सही. उसमें तुम्हारे काम का कुछ भी नहीं है. पर जो पोटली लेकर भाग रहा था, उसके कदमों में ताकत भी बहुत थी और उसकी टांगें काफी लंबी थीं. मुसाफिर अपनी पूरी ताकत से दौडऩे के बावजूद लगातार पीछे छूटता जा रहा था...और एक मोड़ पर अचानक वो किसी चीज से टकराकर गिर पड़ा. उसके दोनों घुटनों से खून निकलने लगा...आ....ह. उसके हलक से दर्द भरी एक चीख निकली और वो चौंककर जाग गया. उसका पूरा जिस्म पसीने से भीगा था लेकिन उसका सर उसकी पोटली पर. ऐसे सपने टूटने के बाद उसे हमेशा सपने टूटने के सुख का अहसास होता. उसे समझ में नहीं आता था कि लोग ख्वाब टूट न जाने को लेकर इतने परेशान क्यों रहते हैं, जबकि उसे अपना सपना टूटने में जो सुख मिला वो कहीं नहीं मिला. बचपन में वो जब मां के मर जाने का सपना देखता था और नींद खुलने पर खुद को मां की छाती से चिपका पाता, तो चैन की सांस लेता था. मां की सांसों को चूमता, उसके दिल की धड़कनों पर अपना सर रख देता और मन ही मन उस खुदा का शुकराना करता, जिसे उसने कभी देखा नहीं है.
एक रोज उसे एक बावड़ी से निकलती हुई एक स्त्री मिली. रात इतनी गाढ़ी थी कि हाथ को हाथ न सूझता था. इसलिए मुसाफिर को उस परछांई के पहनावे से यह अंदाजा हुआ कि वो कोई स्त्री है. उसकी चाल में एक आत्मविश्वास था. उसका आंचल हवा के नामालूम से झोंकों में भी खूब लहरा रहा था. उसने उस परछाई को अपने करीब आते देखा और पोटली को कसकर पकड़ लिया. उसने सुना था रात-बिरात पीपल के पेड़ और कुएं बावडिय़ों के आसपास कुछ बुरी आत्माएं भटकती रहती हैं. वो डरकर अपनी तावीजों पर हाथ रखने लगा.
उस परछाई ने पास आकर पूछा, प्यास लगी है क्या?
मुसाफिर ने हकलाते हुए कहा, हां लगी तो है लेकिन...
लेकिन क्या. जाओ और पानी पीकर आओ. बावड़ी गहरी होगी ना? मुसाफिर ने पूछा.
यह सुनकर परछाई हंस दी. उस हंसी की खनक से उसे अंदाजा हुआ कि वो निहायत खूबसूरत होगी. मुसाफिर ने फिर डरते-डरते कहा, मैं नहीं जा सकता. मेरी ये पोटली है ना, मैं इसे जब तक इसके मालिक तक सही सलामत ना पहुंचा दूं, मैं कहीं नहीं रुक सकता. और यह सफर रात भर में ही पूरा करना है. मैं प्यासा रह लूंगा. कहते हुए मुसाफिर ने अपना हलक सूखता हुआ महसूस किया. तुम जाओ पानी पीकर आओ मैं संभालती हूं पोटली. परछांई ने उसे आश्वस्त किया. मुसाफिर एक पल अपनी प्यास देखता, दूसरे पल पोटली. इन दोनों के बीच एक बार उसकी न$जर परछाई से भी टकरा गई. उसी पल मुसाफिर उस परछाई की बात मान गया. उसने उस स्त्री को पोटली थमाई और कहा, तुम यहीं बैठो मैं आता हूं प्यास बुझाकर. स्त्री ने अपने दोनों हाथों से पोटली को थाम लिया. वहीं सीढिय़ों पर बैठ गई. मुसाफिर बावड़ी की तरफ बढ़ा. बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता. उस अंधेरे में जाने क्यों उसे कोई मुस्कुराहट सी खिलती न$जर आती. उसे लगता कि वो मुस्कुराहट उसे छू रही है. वो कोई तिलिस्मी रात थी शायद. आसमान चांद सितारों से खाली था. बस एक सितारा टिमटिमा रहा था. पूरे आकाश पर आज उस अकेले का राज था. वो स्त्री उस अकेले तारे से न$जर जोड़ बैठी. उसने पोटली पर सिर टिकाया और आंचल को हवा से खेलने के लिए छोड़ दिया. उस रात उस अकेले तारे को देखते हुए उसे बीते जमाने की सारी चांद रातें याद आने लगीं. वो रातें जब वो आसमान के इस तारे की तरह अकेली नहीं हुआ करती थी. इसी बावड़ी में एक जोड़ी हंसी खिलखिलाती फिरती थी. स्त्री की आंखों से बहते हुए एक बूंद उस पोटली में जा समाई.
उधर मुसाफिर की प्यास बुझने को न आती थी. वो बावड़ी में उतरता जाता. अंजुरी में भर-भरकर पानी पीता जाता. न जाने कितने जन्मों की प्यास थी जो बुझने को राजी ही न थी. वो भूल गया कि वो रात का मुसाफिर है. सुबह होते ही उसका और उसके सफर का कोई वजूद न रह जायेगा. वो पोटली वहां तक न पहुंच पायेगी, जहां उसे पहुंचना है. वो बावड़ी की ओर बढ़ता गया, स्त्री पोटली हाथ में लिये उसके लौटने का इंत$जार करती रही. इस बीच रात का सफर पूरा हुआ.
सुबह की किरन देखते ही स्त्री ने बावड़ी का रुख किया. मुसाफिर का कोई पता न था. वो बावड़ी के और करीब गयी...उसने उसे आवाजें दीं, अरे ओ मुसाफिर...कहां हो तुम. अपना सामान तो ले जाओ... लेकिन वो तो रात का मुसाफिर था. स्त्री को यह भी पता नहीं था कि यह पोटली किसके लिए है. किस पते पर इसे जाना है. उसने बावड़ी की उन्हीं सीढिय़ों पर पोटली को खोलकर देखा. उसमें चमकते हुए गहने थे, बड़े-बड़े हार, कानों के कुंडल, हाथों के कंगन, पैरों की पायल...श्रृंगार का सामान भी था सारा. लिपिस्टिक, बिंदी, पाउडर, आलता और भी न जाने क्या-क्या. कीमती साडिय़ां भी थीं. एक छोटा बॉक्स भी था उसमें. उसने डरते-डरते उस बॉक्स को खोला. उसमें से चमचमाते हुए व्रत, त्योहार, रीति-रिवाज, परंपराएं, नैतिकताएं, नियम-मर्यादाएं निकल पड़े. स्त्री ने उस बॉक्स को झट से बंद कर दिया. पोटली को समेटा. उसे बांधा और सर पर रख लिया. रास्ते भर वो मुसाफिर को तलाशती रही. जिंदगी के सफर में तबसे हर स्त्री अपने सर पर वो पोटली लिए घूमती है, एक मुसाफिर की तलाश में. जो आकर उसके बोझ को कम करे...उसका सफर और तलाश दोनों जारी है...

(13 नवम्बर को जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित)

Friday, November 11, 2011

छूटना...


यात्राओं में सबसे सुन्दर क्या लगता है? ये मैंने अपने आपसे पूछा. एक चुप्पी जो मेरे ही भीतर थी, उसने भीतर ही भीतर चहलकदमी शुरू कर दी. जवाब जल्दी ही मिल गया. छूटना...मुझे यात्राओं में छूटना अच्छा लगता है. घर से छूटना, रिश्तों से छूटना, शहर से छूटना, रास्ते में मिलने वाले पेड़, पौधे, खेत, जानवर, नदी, पहाड़ सबका छूटना. यात्राओं की मंजिल का तय होना ज़रूरी नहीं लेकिन उस मंजिल का भी छूटना तय है. मै छूटती हुई चीज़ों को प्यार से देखती हूँ. बहुत प्यार से. आने वाली चीज़ों का मोह छूटने वाली चीज़ें अक्सर कम कर देती हैं. यूँ भी जो चीज़ छूट रही होती है उसका आकर्षण बढ़ता ही जाता है. वो खींचती है अपनी ओर. यही जीवन का नियम है. इस छूटने में एक अजीब किस्म का सुख होता है.जिस चीज के प्रति आकर्षण बढ़ रहा हो, उसका छूटना जीवन का सबसे सुखद राग है. जिसे हम अक्सर विषाद या अवसाद का नाम देते हैं असल में जीवन वहीँ कहीं सांस ले रहा होता है.

होने और न होने के बीच एक जगह होती है. जैसे आरोह और अवरोह के बीच. जैसे स्थायी और अंतरे के बीच. जहाँ हम राग को खंडित किये बगैर साँस लेते हैं. इन्ही बीच के खाली स्पेस में छूटने का सुख रखा होता है. अगर रियाज़ में जरा भी कमी हुई तो वो खाली स्पेस जहाँ छूटने का सुख और सांस लेने की इज़ाज़त ठहरती है वो जाया हो जाती है. मैं इस स्पेस में हर उस सुख को उठाकर रख देती हूँ, जिससे छूटना चाहती हूँ. इसके लिए यात्राओं में होना ज़रूरी नहीं सम पर होना ज़रूरी है. यात्रा इस सम पर होने को नए अर्थ देती है. जीवन को समझने का नया ढंग. ओह, मैं भटक गयी शायद. मैं छूटने की बात कर रही थी. हाँ तो मुझे जवाब मिला कि मुझे छूटना पसंद है यात्राओं के दौरान. जीवन यात्रा हो एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा.

सफ़र मुझे ट्रेन से किया हुआ ही पसंद है. दरवाजे पर खड़े होकर घंटो छूटते जा रहे संसार को देखना. हवा को मुठ्ठी में कैद करने की कोशिश करना और उसका लगातार छूटता जाना. ये छूटना छू जाता है दिल को. कभी कभी लगता है हमें जिन्दगी का ककहरा गलत पढाया गया. हम चीज़ों को पाने में सुख ढूँढने लगे, और उसके खोने में दुःख महसूस करने लगे. लेकिन इसके उलट की स्थिति भी कम आनंददायक नहीं थी. बस कि हम उस आनंद को जीना नहीं सीख पाए. जीवन के सफ़र में हर छूटती हुई चीज़ को याद करते हुए लगा कि कितना प्रेम था उन चीज़ों से जो छूट गयीं, उन लम्हों से जो छूट गए, वो लोग जीवन में आते आते रह गए. वो रह जाना, वो छूट जाना ही सुख कि ओर धकेलता है. मिल जाना या पा लेना सुख के प्रति विमुख होना है. तलाश है नए सुख की...मैंने छूटना स्वीकार किया, उसके सुख को सिरहाने रखा और महसूस किया कि हर उलझन से, हर दुविधा से, हर मुश्किल से छूटती जा रही हूँ. ट्रेन चलती जा रही है और मै खुद से भी छूटती जा रही हूँ. बस एक चाँद कमबख्त छूटता नहीं साथ दौड़ता रहता है...मै मन ही मन सोचती हूँ तू मेरा कितना भी पीछा कर ले बच्चू, भोर की पहली किरण के साथ तू भी छूट ही जायेगा. अचानक घडी पे निगाह गयी...सुबह सर पर खड़ी थी. अब चाँद के भी छूटने का समय आ गया था. एसी कम्पार्टमेंट का नीला पर्दा हटती हूँ और छूटते हुए चाँद को हसरत से देखती हूँ...वो मुझे देखकर मुस्कुराता है और बाय कहता है. ठीक इसी वक़्त सूरज की पहली किरण का जन्म होता है.

एक दोस्त की बात याद आती है अगर कुछ छूटता है तो नए के लिए स्पेस बनती है...इसलिए छूटना अच्छा ही होता है...वैसे इस जीवन को जिससे इतना लाड लगाये बैठे हैं इसे भी तो छूटना ही है एक दिन...


(प्रकाशित)

Tuesday, November 8, 2011

पंद्रह साल का समय कितनी कम जगह घेरता है


1832 में एक पोलिश कुलीन महिला बाल्‍ज़ाक का उपन्‍यास 'द मैजिक स्किन' पढ़ती है. अपने प्रिय लेखक द्वारा महिला चरित्र का इतना नकारात्‍मक वर्णन देखकर उसे निराशा होती है. अपनी चिढ़ जताने और लेखक को परेशान करने के लिए वह उसे एक बेनाम ख़त लिखती है, जिसमें पिछले उपन्‍यासों की तारीफ़ और नए की निंदा है. उसने उसमें कोई जवाबी पता नहीं लिखा. बाल्‍ज़ाक को समझ में नहीं आता कि वह कैसे जवाब दें. वह अगले दिन एक फ्रेंच अख़बार में एक विज्ञापन छपवाते हैं और उसके ज़रिए महिला को जवाब देते हैं. वह महिला शायद जीवन-भर उस विज्ञापन को नहीं देख पाती.

कुछ दिनों बाद महिला को अपने लिखे पर अफ़सोस होता है, और वह बाल्‍ज़ाक को फिर ख़त लिखती है, जिसमें उनके लेखन भूरि-भूरि प्रशंसा है. कुछ दिनों बाद और ख़त. और ख़त. लेकिन किसी में भी अपना नाम नहीं लिखती, पता नहीं लिखती. अंत में सिर्फ़ इतना- 'तुम्‍हारी, अजनबी.' लेकिन हर ख़त में वह यह ज़रूर कहती है कि मुझे जवाब देना. बाल्‍ज़ाक उसके सुंदर ख़तों का इंतज़ार करते हैं, लेकिन जवाब कहां दें? अगली बार महिला उन्‍हें वही आइडिया देती है, अख़बार में विज्ञापन छपवा कर जवाब देने का. वह किसी और अख़बार का नाम लेती है. बाल्‍ज़ाक उसमें विज्ञापन छपवाकर जवाब देते हैं.

अगले ख़त में महिला अपना परिचय और पता दे ही देती है- एवेलिना हान्‍स्‍का. वह एक पोलिश सामंत की पत्‍नी है, जो लगातार बीमार रहता है. वह उम्र में बहुत बड़े अपने पति की सेवा करती है और बाक़ी समय में बाल्‍ज़ाक की किताबें पढ़ती है. ख़तो-किताबत होती है और साल-भर में ही बाल्‍ज़ाक उसके प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन कर देते हैं. हान्‍स्‍का भी उनसे प्रेम करने लगती है. बाल्‍ज़ाक उस समय कुछ दूसरे प्रेम-संबंधों में हैं, लेकिन हान्‍स्‍का उनकी स्‍वप्‍नकन्‍या बन जाती है, जिसे उन्‍होंने नहीं देखा है.

अगले साल हान्‍स्‍का कुछ ऐसा मैनेज करती है कि बाल्‍ज़ाक स्विटज़रलैंड में उसके परिवार से मिलने आ जाते हैं. वह छद्म नाम से होटल में रहते हैं और पार्क में बैठ उनकी लिखी किताब पढ़ती स्‍त्री को देख मुग्‍ध हो जाते हैं. पांच दिनों में वह उस परिवार में घुल-मिल जाते हैं, पास के जंगल में भटकते हुए प्रेम करते हैं. अगले दो साल तक उनकी फुटकर मुलाक़ातें होती हैं.

हान्‍स्‍का अपने ख़तों में उन्‍हें नये उपन्‍यासों का आइडिया देती है. वह ख़ुद एक कहानी लिखना चाहती है, जो उसकी अपनी कहानी होगी, जिसमें वह अपने प्रिय लेखक से ख़तों में प्रेम करती है. वह उसे लिखकर जला देती है. तब बाल्‍ज़ाक कहते हैं कि यह कहानी तुम्‍हारे लिए मैं लिखूंगा. वह क्‍लासिक 'मोदेस्‍त मीग्‍न्‍यों' लिखते हैं.

1841 में बीमारी के कारण हान्‍स्‍का के पति मृत्‍यु हो जाती है. बाल्‍ज़ाक को लगता है कि अब वह हान्‍स्‍का से तुरंत शादी कर लेंगे, लेकिन वैसा संभव नहीं, क्‍योंकि हान्‍स्‍का ज़ायदाद के विवाद में फंस गई है. इस समय अगर वह शादी करेगी, तो उसे कुछ नहीं मिलेगा और पहले वह अपनी दोनों बेटियों का भविष्‍य सुरक्षित करना चाहती है. उसे अकेला जान कई लोग उससे प्रणय-निवेदन करते हैं, लेकिन वह सख़्ती से सबको मना करती है और बाल्‍ज़ाक से वफ़ा का वादा करती है. बाल्‍ज़ाक आग्रह करते हैं कि वे सब रूस चलें. ज़ार बाल्‍ज़ाक को पसंद करता है, वह ख़ुद हान्‍स्‍का से शादी करा देगा, लेकिन हान्‍स्‍का मना कर देती है.

1843 में हान्‍स्‍का को अख़बारों के ज़रिए वे ख़बरें मिलती हैं, जिनमें बाल्‍ज़ाक का नाम कई महिलाओं से जुड़ा बताया जाता है. वह बाल्‍ज़ाक से पूछती है, लेकिन वह साफ़ मुकर जाते हैं. एक के बाद एक कई झूठ लिखते हैं. हान्‍स्‍का हर झूठ को जज़्ब कर जाती है, लेकिन कहती है कि वह अपनी नौकरानी को ज़रूर घर से निकाल दें. उसे बार-बार लगता है कि बाल्‍ज़ाक उससे छल कर रहे हैं. वह बमुश्किल इस बात के लिए राज़ी होते हैं और एक दिन अचानक लिखते हैं कि नौकरानी ने उनके ख़त चुरा लिए हैं और उन्‍हें ब्‍लैकमेल कर रही है. हान्‍स्‍का को इस पर भी संदेह होता है, लेकिन वह कुछ नहीं कहती. एक दिन ख़त आता है कि उन्‍होंने हान्‍स्‍का के सारे ख़त जला दिए हैं, क्‍योंकि कोई भी उन्‍हें पढ़ सकता था. उन्‍होंने लिखा, ' ये पंक्तियां लिखते समय मैं इन काग़जों की राख देख रहा हूं और सोच रहा हूं कि पंद्रह साल का समय कितनी कम जगह घेरता है.'

अब तक उन्‍हें रूबरू मिले आठ साल बीत चुके थे. बहुत कोशिशों के बाद उनकी मुलाक़ात हुई. बाल्‍ज़ाक भीषण लेखक थे. लंबी बैठकों में लिखते थे. एक बार लिखने बैठे, तो 46-48 घंटे तक लिखते रहते थे. बीच में एकाध घंटे का ब्रेक. आर्थिक परेशानियां हमेशा रहती थीं और वह मदद के लिए हान्‍स्‍का की तरफ़ भी देखते थे. लेखन की इस मेहनत ने उनकी तबीयत बिगाड़ दी.

ज़ायदाद का निपटारा होने में छह-सात साल लग गए. तब तक वह ख़तों में ही प्रेम करते रहे. 1850 में एक दिन दोनों ने शादी कर ली. 18 साल तक शब्‍दों और ख़तों के ज़रिए एक-दूसरे से जुड़े रहने, इतने बरसों में बमुश्किल पांचेक बार कुछ घंटों के लिए एक-दूसरे से मिल पाने के बाद दोनों ने क़रीब दस घंटे का सफ़र पैदल और घोड़ागाड़ी में तय किया और समारोह में पहुंचे. और अगले ही दिन से दोनों की तबीयत ख़राब हो गई. शादी के सिर्फ़ पांच महीने बाद बाल्‍ज़ाक की मौत हो गई.

(गीत चतुर्वेदी की फेसबुक वॉल से उनकी अनुमति व आभार सहित)

Sunday, November 6, 2011

जीने का सलीका है प्रतिरोध


संकल्प के साथी भोजपुरी गीतों की खुशबू के साथ 
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार...नरेश सक्सेना 
अनुपमा श्रीनिवासन  
उमा चक्रवर्ती 
रमाशंकर विद्रोही 
नदियों के हमराही अपल 
मैं उन्हें नहीं जानती थी. कभी नाम भी नहीं सुना था. उमा, उमा चक्रवर्ती. संजय जोशी उनकी तारीफ करते नहीं थक रहे थे. उनकी ऊर्जा, उनका स्पष्ट दृष्टिकोण और समाज की नब्ज पर उनकी पकड़. सत्तर बरस की उम्र में पहली डाक्यूमेंट्री बनाने वाली उमा चक्रवर्ती की फिल्म मेरे सामने खुल रही थी. एक-एक दृश्य ऐसे सामने से गुजर रहा था जैसे सर पर कई मटके एक के ऊपर एक रखकर चलती कोई नवयौवना. मटकों का होना उसकी चाल में सौंदर्य और संतुलन की जो रिद्म पैदा करता है वह अप्रतिम होता है. वही सुख था उनकी फिल्म 'अ क्वाइट लिटिल कंट्री' का. नॉस्टैल्जिया का ऐसा पिक्चराइजेशन. एक बक्से में बंद एक स्त्री. उसका मन. कुछ कागज, कुछ स्मृतियां...दिल चाहा उस उर्जावान स्त्री को एक बार बस छू लूं कि उनकी ताकत का कुछ अंश मिल जाए शायद. फिल्म खत्म होते ही लोग उन्हें घेर लेते हैं. मैं पीछे खड़ी उनके खाली होने का इंतजार करती हूं. अचानक भीड़ हमें एक-दूसरे के सामने खड़ा करती है और मैं बेसाख्ता कह उठती हूं, आपको छूना चाहती हूं एक बार. वो हंसकर गले लगा लेती हैं. भींच लेती हैं अपनी बाहों में. मैं देख रही थी तुम्हें देखते हुए...उन्हें गालों को प्यार से थपथपाया. मैंने मानो सचमुच उनकी ऊर्जा को सोख लिया था. 
लखनऊ में हुए जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित चौथा फिल्म फेस्टिवल अपने सफर के 20वें पड़ाव पर था. यहां ऐसी न जाने कितनी अनुभूतियां बिखरी पड़ी थीं. तीन दिन चलने वाले इस फेस्टिवल की थीम थी फिल्म के जरिये स्त्रियों का संघर्ष. फिल्म फेस्टिवल के इस आयोजन में शिरकत करते हुए एक शब्द लगातार जेहन में कुलबुलाता रहा, रजिस्टेंस...प्रतिरोध. 
लगभग सभी फिल्मकारों ने, जनकवि रमाशंकर विद्रोही ने, भोजपुरी गीतों के साथ बलिया से आई संकल्प टीम के साथियों ने, गंगा, गोमती, ब्रहमपुत्र और जाम्बेजी नदियों की सिरे से अंत तक यात्रा करने वाले फिल्मकार और यायावर अपल में आखिर क्या ऐसा था जो उन्हें आम होते हुए भी खास बना रहा था. जीवन के प्रति नजरिया. गलत के प्रति प्रतिरोध की ताकत. ऋत्विक दा की फिल्म 'मेघे ढाका तारा' की नायिका जब यह कहती है कि उसने गलत का प्रतिरोध न करके पाप किया है तो तस्वीर साफ नजर आती है. पूरी फिल्म में उसकी खामोशी में छुपे दर्द का कारण स्पष्ट नजर आता है. अंत में वो 'मेघे ढाका तारा' होने की बजाय सूरज बनना चाहती है. यही उसके प्रतिरोध का स्वर है. 
अनुपमा श्रीनिवासन अपनी फिल्म 'आई वंडर' में सिर्फ बच्चों से बात करती हैं कि आखिर उन्हें पढऩा लगता कैसा है? वो जो पढ़ रहे हैं, उसे समझ भी रहे हैं क्या? चंद सीधे से सवालों के जरिये वे बिना किसी बैनर पोस्टर या आंदोलन के फिल्म देखने वाले के भीतर प्रतिरोध को भरती हैं कि ऐसी शिक्षा किस काम की जिसमें बच्चों का मन न लगे, पढ़ाये गये पाठ उन्हें समझ में न आयें...वे सचमुच ऐसा कुछ नहीं कहतीं लेकिन यह साफ सुनाई देता है. वसुधा जोशी की फिल्म फार माया चार पीढ़ी की महिलाओं के सामाजिक व पारिवारिक परिवेश का आंकलन करती है.
'ससुराल' मीरा नायर- देखते हुए मन चीत्कार कर उठता है कहां है रजिस्टेंस. क्यों बचपन से स्त्री के मन में प्रतिरोध को दबाना ही सिखाया जाता है. सहना उसके जीवन का गहना क्यों बन जाता है. लड़की एकदम गऊ है...क्या अर्थ है कि जिस खूंटे से बांध दो बंध जायेगी. जिस घर डोली जायेगी वहां से अर्थी निकलेगी...की कहावतें कब तक लड़कियों को सुननी पड़ेंगी. इन्हीं बातों के भीतर प्रतिरोध की आवाज है. जिसे हर स्त्री को सुनना होगा. पायल की जगह प्रतिरोध की आवाज को बांधना होगा. प्रतिरोध न करने के उस पाप से बचना होगा, जिसे नीता ने किया और जीवन भर कष्ट सहा. 
जहां भी, जब भी, जैसा भी गलत घट रहा है उसके प्रति अपने भीतर मुखर होते विरोध के बीजों को सींचना होगा. प्रतिरोध के खतरों का सामना करते हुए आगे बढऩा होगा. जफर पनाही की ईरानी फिल्म 'ऑफ साइड' में प्रतिरोध का यह स्वर किसी फूल का खिलता नजर आता है. यही सुर था इस फिल्मोत्सव का. 21 अक्टूबर से 24 अक्टूबर तक चले इस तीन दिवसीय समारोह का उद्घाटन नरेश सक्सेना जी ने अपने माउथ ऑर्गन से 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार...' बजाते हुए किया और कवि रमाशंकर विद्रोही ने समाज को यह चेतावनी देते हुए कि अब वे किसी लड़की को जलने नहीं देंगे इसे विराम दिया. 
- प्रतिभा कटियार
(प्रकाशित) 

Monday, October 31, 2011

इंतजार...



नर्म मखमली घास पर नंगे पांव धीरे-धीरे चलते हुए उन्हें घंटों बीत चुके थे. उनमें कोई संवाद नहीं हो रहा था. न बोला, न अबोला. वे अपने-अपने एकांत में थे. एक साथ. वे एक-दूसरे के बारे में जरा भी नहीं सोच रहे थे. हालांकि इस मुलाकात से पहले हर पल वे एक-दूसरे के बारे में ही सोच रहे थे. कई बार तो एक पल में कई बार तक. वे बेवजह मुस्कुराते थे. नाराज होते थे. हाथ में कोई भी काम हो, दिमाग कितने ही हिस्सों में बंटा हो वे एक-दूसरे के बारे में ही सोचा करते थे. इस मुलाकात का उन्हें बरसों से इंतजार था. मिलने के बाद भी वे चल ही रहे थे. साथ-साथ. अकेले-अकेले.
चांद उन पर चांदनी बरसा-बरसा कर थक चुका था. लेकिन उनके पैर तो मानो चलने के लिए अभिशापित थे, या कहें कि उन्हें वरदान मिला था चलने का. वे बस चलते जा रहे थे. उनके भीतर भी न जाने क्या-क्या चल रहा था. पर वे शांत थे. उद्विग्न नहीं. उनके मिलन में असीम शांति थी.
लड़का अचानक रुक गया. 'सुनो,' उसने कहा.
लड़की ने चलते-चलते ही जवाब दिया 'कहो,'
'तुम खुश हो ना?' लड़के ने पूछा. यह उनके बीच पहला संवाद था. लंबे इंतजार के बाद मुलाकात के कई घंटे बीत जाने के बाद का पहला संवाद.
लड़की ने अपनी बांहें आकाश की ओर फैलाते हुए जोर से चिल्लाकर कहा, 'बहुत..'.
लड़के ने चैन की सांस ली. वो जहां रुका था, वहीं बैठ गया. रात के अंधेरे में सफेद फूलों की चमक आसमान के तारों को मात कर रही थी. उनकी खुशबू उनके सर पर मंडरा रही थी. लड़की ने पलटकर देखा और आगे चलती गई. उसने दोबारा पलटकर नहीं देखा और आगे बढ़ती गई. उसके कदमों में अब लड़के के होने की आश्वस्ति थी. लड़के ने अपनी बाहों को मोड़कर तकिया बनाया और उसमें अपने सर को टिकाकर आसमान में टहलते चांद को देखने लगा. लड़की घास पर अपना सफर पूरा करके लौटी तो लड़के की बाहों के तकिये में अपना सर भी टिकाने की कोशिश करने लगी. लड़के ने अपनी बांह फैला दी.
उसकी बांह के तकिये पर सर टिकाते हुए लड़की ने उसकी कलाई को छुआ.
'कितनी चौड़ी कलाई है तुम्हारी...' उसने किसी बच्चे की तरह खुश होते हुए कहा.
लड़का चुप रहा.
उसने लड़के की हथेलियों में अपनी हथेली को समा जाने दिया. लड़के की लंबी उंगलियों और चौड़ी हथेली में उसकी हथेली कैसे समा गई, उसे पता ही न चला. उन एक दूसरे में समाई हथेलियों को देखते हुए लड़की ने कहा, 'आज समझ में आया कि हमारी उंगलियों के बीच खाली जगह क्यों होती है?'
लड़का जवाब जानता था फिर भी उसने पूछा 'क्यों?'
'ताकि कोई आये और उस खाली जगह को भर दे.'  दोनों मुस्कुरा दिये.
'थक गये होगे?' उसने लड़के से पूछा.
'क्यों?' लड़के को इस सवाल का सबब समझ नहीं आया.
'सदियों का सफर आसान तो न रहा होगा?' उसने मुस्कुराते हुए कहा.
'बहुत आसान था.' लड़के ने कहा. 'अगर पता हो कि कहीं कोई आपके इंतज़ार में है तो सफर की थकान जाती रहती है.'
'और अगर ये इंतजार का सफर जीवन के उस पार तक जाता हो तो?' लड़की ने पूछा.
'तो जीवन बहुत खूबसूरत हो जाता है यह सोचकर कि जिंदगी के उस पार भी कोई है जिसे आपका इंतजार है.' लड़के ने कहा.
'हम क्यों चाहते हैं कि कोई हमारा इंतजार करे?' लड़की ने मासूमियत से पूछा.
'असल में हम जब यह चाहते हैं कि कहीं कोई हमारा इंतजार करे तो असल में हम खुद किसी का इंतजार कर रहे होते हैं. उंगलियों के बीच की खाली जगह के भरे जाने का इंतजार.  इंतजार अनकहे को सुनने का और अब तक के सुने हुए को बिसरा देने का भी. एक-दूसरे के मन की धरती पर जी भरके बरसने का इंतजार और अपनी आंखों में बसे बादलों को मुक्त कर देने का इंतजार. जानती हो सारी सार्थकता इंतजार में है.'
'ओह...?' लड़की उसकी बात को ध्यान से सुन रही थी. लड़की ही नहीं प्रकृति का जर्रा-जर्रा लड़के की बात को ध्यान से सुन रहा था. रात भी अपने सफर को तय करते-करते ठहरकर सुनने लगी थी.
'फिर...?' सबने एक सुर में कहा. मानो कोई कहानी पूरी होने को है.
'इंतजार में होना प्रेम में होना है. प्रेम इंतजार के भीतर रहता है.' लड़के ने कहा.
'तो जिनका इंतजार पूरा हुआ उनके प्रेम का क्या?'  लड़की ने उंगलियों में उंगलियों को और कसते हुए पूछा. ऐसा करते वक्त उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी.
'जिनका इंतजार पूरा हुआ, उनके हिस्से का अगला इंतजार उन्हीं पूरे हुए पलों में कहीं जन्म ले रहा होता है.'
'यानी प्रेम हमेशा सफर में रहता है?' लड़की ने आगे जोड़ते हुए पूछा.
'हां, प्रेम एक नदी है, जो हमेशा बहती रहती है, और उसे समूची धरती की परिक्रमा करते हुए यह गुमान रहता है कि कहीं कोई समंदर है उसके इंतजार में. यही गुमान उस नदी का सौंदर्य है.'
कहते-कहते लड़का अचानक रुक गया.
'तुम्हें एक बात पता है?' लड़के के शब्दों का सुर अचानक धीमा पड़ गया था.
'क्या...' लड़की ने उसी बेपरवाही से पूछा.
'तुम बहुत सुंदर लग रही हो.'
'धत्त...' लड़की शरमा गई.
'पहली बार देखा है क्या?' उसने लड़के की बाहों में छुपते हुए कहा.
'हां, खुले बालों में पहली बार.'
लड़की ने अपने चेहरे को अपने लंबे बालों से ढंक लिया.
'तुम्हें पता है कितनी सदियों के इंतजार का सफर तय किया है मैंने.' लड़का अपनी बात को वापस ठिकाने पर ले आया.
लड़की ने कहा, 'हां, जानती हूं.'
'और तुम जानते हो कि तुम तक आने के लिए मुझे धरती की कितनी परिक्रमाएं करनी पड़ीं?'
'जानता हूं.' दोनों खिलखिला दिए.
रात ने अपने आंचल में उनकी खिलखिलाहटों के फूल समेट लिये. सदियों के इंतजार के विराम की यह अनूठी कथा उसके हिस्से में जो आई थी. सूरज आहिस्ता-आहिस्ता रात की ओर बढ़ रहा था. लड़की उसकी उंगलियों में अब तक उलझी हुई थी. लड़का दूर कहीं आसमान में निगाह टिकाये हुए था कि तभी पौ फटी. सूरज की पहली किरन ने धरती की तलाशी ली. धरती का वह कोना खूब महक रहा था. नर्म घास पर कुछ पैरों के निशान अब भी थे. लेकिन वहां और कोई नहीं था. हां, कुछ पंखों के फडफ़ड़ाने की आवाज जरूर सुनी थी उसने.

सुबह के हिस्से में फिर इंतजार आया था.

(प्रकाशित)

Friday, October 28, 2011

जीने की तलब, बेसबब ...


घर से निकलने के लिए किसी काम का हाथ में होना जरूरी जाने क्यों होता है? कहीं पहुंचने का सबब ला$िजम क्यों होता है? किसी से मिलने की तलब लिये बगैर भी तो घर से निकला जा सकता है, जिसमें यकीनन ऑफिस पहुंचने की भी कोई बात न ही शामिल हो. बेसबब शहर की सड़कों पर खुद को यूं ही फेंक देने का भी तो अपना एक लुत्फ होता है. बढ़ते पेट्रोल के दामों की चिंता को दरकिनार कर बस गाड़ी के एक्सीलेटर को निरंतर दबाये रखना और हवाओं से अठखेलियां करना क्या बहुत बड़ा ख्वाब है. आधी रात को शहर देखने की हसरत, नदी में झांकती ऊंघती हुई रोशनियों को देखना का आवारा मन इसका कोई कारण दे भी तो क्या दे. अभी अपनी इसी आवारगी को अंजाम देकर लौटी हूं.

रात ने बाकायदा शहर को अपनी हसीन ओढऩी में समेट रखा था. मखमली सड़कों पर खुद को बेसबब यूं ही छोड़ दिया था. न जीने की तलब, न मरने का सबब बस आवारगी... आवारगी... आवारगी...न जाने कब किसने किया होगा अवध की शामों का जिक्र यकीनन उसने भी उस रात भरपूर आवारगी की होगी. हर दूसरे कोने पर गोमती से टकराते हुए, रोशनी से नहाई सड़कों पर यूं आवारगी करते हुए महसूस हुआ कि मैं इस शहर की शहजादी हूं. कोई मुझे कहीं जाने से नहीं रोकता. कोई पूछताछ नहीं करता. कानों में जगजीत सिंह पूछ रहे थे कि 'यही होता है तो आखिर यही होता क्यों है...' मैं मुस्कुराती हूं. कोई जाकर भी कहां जाता है और कोई आकर भी कहां आता है. हर सवाल का कोई जवाब कहां होता है, और कुछ जवाब तो बेचारे सवालों का इंतजार ही करते रह जाते हैं कि कभी उनके बारे में भी कोई दरयाफ्त करेगा.

नये बने पुल के किनारे कुछ देर अकेले खड़े होना का जी चाहा. देखा, कुछ लोग पहले ही खड़े हैं थोड़ी-थोड़ी दूरी पर. कहीं कोई सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा है तो कहीं कोई नदी में अपना अक्स तलाश रहा है. ये लोग अपने एकांत को जी रहे थे शायद. कोई फोन पर भी बात करता नहीं मिला. न कोई ईयरफोन के जरिये गाने सुनता. बस हर शख्स अपने आप में गुम. उस पुल के ठीक सामने वाली सड़क पर जो पार्क है, उसमें रोशन फुहारों के बीच एक भीड़ थी. गाडिय़ां खड़ी करने की जगह भी नहीं. भीड़ से चंद कदम दूर एकांत रखा था. तनहाई भी. भीड़ का कोई चेहरा नहीं था. एकांत में डूबे इन सारे लोगों का एक सा चेहरा था. मैं खुद को कहां पाती हूं? खुद से सवाल करती हूं. दिल में बसी एक पुरानी ख़्वाहिश जागती है सड़क पर गाड़ी चलाते हुए तेज आवा$ज में गाने की. सर्द हवा की ओढऩी में खुद को छुपाते हुए मैंने सारे चेहरों पर से उनकी पहचान को पोंछ दिया. अपनी आवाज को हवाओं में उछाल दिया...'यही होता है तो आखिर यही होता क्यों है?' मैंने अपनी आवाज में उन तन्हा खड़े लोगों की तन्हाई को भी पिरोया. कुछ ही देर में मैंने तन्हाई के चूर-चूर होने की आवाज सुनी, सड़क के बीचोबीच सूरज को उगते देखा और नकली रोशनी उगलते खंभों को खामोश होते सुना.

मेरे कंधों पर बैठकर ठंड का मौसम अपने आने का ऐलान कर रहा था...मैंने उसकी आंखों में देखा और कसकर उसका हाथ पकड़ लिया...उसने पलकें झपकाकर कहा, मैं यहीं हूं एकदम तुम्हारे पास. आंखों के पास एक सर्द लकीर सी उभरी जो लगातार गाढ़ी होती गई और आवाज मद्धम...मद्धम...मद्धम...

Monday, October 24, 2011

अमावस की चमकीली भीगी सी रात....



उस रोज चांद जरा देर सा आया था. लड़की उसके इंतजार में बैठी थी. अपनी तिथियों की गणना वो बार-बार करती. कहीं कोई गड़बड़ी नहीं निकलती. फिर वो पूरे आकाश का चक्कर अपनी आंखों से लगाती और वापस लौट आती. आखिर क्यों नहीं आया आज उसका चांद. वो यूं ही हवाओं से खेलते हुए चलने को उठी. पांव बढ़ाया तो हैरत में पड़ गई. ये क्या, उसके पांव भीगे हुए से क्यों है. न$जर को थोड़ा और विस्तार दिया तो उसकी हैरत का ठिकाना न रहा. शहर की सारी सड़कें गायब हो चुकी थीं. सड़कों की जगह नदियां बह रही थीं. उसने झुककर करीब से देखा. हां, नदी ही तो थी. पानी में डाला तो पूरा हाथ भीग गया. वो फिर से उसी जगह बैठ गई. पांव को सड़क पर अरे नहीं, नदी में डालकर. रात खिसककर उसके कंधे के एकदम करीब आ बैठी थी. नदियां खूब मचल रही थीं. उनके प्रवाह में शरारत थी. उसने रात का चेहरा देखा, उससे पूछना चाहा कि यह क्या शरारत है लेकिन रात का चेहरा भी उसकी ही तरह आश्चर्य से भरा था. नदियों की ठिठोली दोनों मिलकर देखने लगीं. सड़कों पर दौडऩे वाले वाहन नाव बन चुके थे. बच्चे पानी को एक-दूसरे पर उछाल रहे थे. चारों ओर बस कलकल-कलकल का शोर था. लड़की ने देखा नदियों का पानी खूब साफ था. उसने अपनी अंजुरी में पानी को भरा और पी लिया. पानी नहीं, अमृत था वो. बहुत मीठा, बहुत स्वादिष्ट. लड़की को अपनी सदियों की प्यास उस पानी को पीकर बुझती महसूस हुई. उसने अपनी अंजुरियों में भर-भरकर ढेर सारा पानी पिया. पानी पीने से उसकी सूखी, निर्जीव हो चुकी आत्मा को जो सुख मिला, उसने उसकी आंखें नम कर दीं. उसने मन ही मन सोचा जाने किसने दुख में रोने का रिवाज बनाया है, असल रोना तो सुख में आता है.
उसका मन नदी के भीतर उतरने का हुआ. रात उसकी सहेली थी. उसने दुपट्टा खींचा और कहा, ना सखी मत जा. लड़की ने कहा, क्यों? सहेली जानती थी लड़की को तैरना नहीं आता. वो चुप रही. लड़की ने उस मौन पर अपनी मुस्कुराहट की मुहर लगा दी. वो नदी में उतर गई. उसने देखा नदी में ढेर सारे फूल उतरा रहे हैं. जो तारे आसमान से गायब थे, वे सब के सब शहर की नदियों में मस्ती कर रहे थे. वो थोड़ा और आगे गई तो एक पेड़ की डाली में अटका हुआ चांद दिखा. ओह तो ये महाशय यहां अटके हैं. लड़की ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराई. इसीलिए आज आसमान सूना है. तुम यहां क्या करने आये? लड़की ने चांद से बनावटी गुस्सा करते हुए पूछा. चांद ने सर खुजाते हुए कहा, आज अमावस की रात है ना. मेरी आसमान के दफ्तर में छुट्टी होती है. और धरती पर दीवाली. मैंने सोचा आज धरती पर चलते हैं. साथ में ये कम्बख्त तारे भी हो लिए. लेकिन देखो ना, मैं कबसे इस कनेर की डाल में अटका हूं. कोई नहीं बचाने आया. तारे सारे के सारे मटरगश्ती कर रहे हैं. कौन आयेगा तुम्हें बचाने बोलो तो?
तुम...चांद ने शरमाकर कहा.
लड़की ने उसे कनेर की डाली से अलग कर दिया. अब वो शहर की सड़कों पर नहीं... नहीं... नदी में तैरने लगा. उसके साथी तारे भी. पूरी धरती पर पानी है और उनमें चांद सितारे तैर रहे हैं. फूल तैर रहे हैं. चांद ने लड़की से पूछा, ये शहर के सारे लोग कहां गये हैं?
लड़की मुस्कुराई. तुम आराम से मटरगश्ती करो. तुम्हें आज कोई तंग नहीं करेगा. शहर के सारे लोग धर्म के कार्यों में व्यस्त हैं...
चांद मुस्कुराया, ये बहुत अच्छा हुआ.
लेकिन एक बात बताओ, ये शहर की सड़कें आज नदियां कैसे बन गईं? लड़की ने पूछा.
चांद उदास हो गया?
बताना जरूरी है? उसने पूछा.
हां, लड़की ने कड़े स्वर में कहा.
आज की रात एक स्त्री का प्रेमी उसे यह कहकर गया था कि जिस रात पूरी धरती रोशनी से नहाई होगी और आसमान चांद सितारों से भरा होगा, उस रोज वो वापस आयेगा. धरती जिस रोज रोशनी से भरती है उस रोज आसमान पर चांद नहीं खिलता. और जिस दिन आसमान पर चांद खिलता है उस रोज धरती रोशनी से नहाई नहीं होती. लड़की सदियों से उस रात का इंतजार कर रही है. हर रात धरती को दियों से भर देना चाहती है. लेकिन न वो धरती का सारा अंधेरा मिटा पाती है न आसमान पर चांद सितारे उगा पाती है. वो हर रात रोती है. तुम्हें सड़कों की जगह आज जो नदियां दिख रही हैं, वो दरअसल, उस लड़की की आंख के आंसू हैं. आज उसके इंतजार की हजारवीं रात है...
लड़की गुमसुम होकर चांद की कहानी को सुन रही थी.
लेकिन आंसू का स्वाद तो नमकीन होता है. ये पानी तो बहुत मीठा है? लड़की ने सवाल किया.
हां, क्योंकि लड़की का रोना मोहब्बत में रोना था. और मोहब्बत की मिठास से तो जहर भी अमृत हो जाता है. ये जो पानी का स्वाद है ना ये उसकी मोहब्बत का स्वाद है. मीठा, अमृत सा. लड़की की आंख नम हो गई. उसने अंजुरी में भरकर पानी को फिर से पिया. उसने महसूस किया अपनी सूखी आत्मा को हरा होते. चांद नदी में तैरते हुए अब दूर जा चुका था...

Monday, October 17, 2011

एक रोज यूं ही...


आंखों में नींद का बादल अभी अटका ही हुआ था, हालांकि धूप आंगन से होते हुए ड्राइंगरूम तक आ पहुंची थी. चिडिय़ां अपने सुबह के कलरव के बाद डालियों से चिपककर ऊंघ रही थीं और हवाओं में थोड़ा भारीपन शामिल हो चुका था. उसने घड़ी की ओर देखा तो ग्यारह बज रहे थे. ओह...इतनी देर हो गई. आजकल जिंदगी की तरह नींद का हिसाब-किताब भी बिगड़ गया है. इसके पहले कि दिन शुरू होता फोन बज उठा. 
तुम आ रही हो ना? 
कौन? वो आवाज पहचान नहीं पाई.
तुम्हें क्या हर बार बताना पड़ेगा कि कौन. नंबर सेव कब करोगी.
अब तक लड़की को आवाज पहचान में आ चुकी थी. 
कभी नहीं सेव करूंगी. लड़की ने शरारत से कहा.
तुम मर क्यों नहीं जातीं? लड़के ने झुंझलाकर कहा.
यार, किसपे मरूं? कोई मिला ही नहीं. लड़की अब पूरे शरारत के मूड में आ चुकी थी.
अरे हम क्या मर गये हैं? 
शरारत का असर लड़के पर भी होने लगा था.
तुम? अब इतने बुरे दिन भी नहीं आये मेरे. लड़की खिलखिला पड़ी.
लड़का उसके इस तरह खुलकर हंसने से खुश हो गया.
जरा धीरे हंसो. न$जर लग जायेगी. उसने टोका.
यार रोका मत करो, कभी-कभी तो हंसती हूं.
अच्छा ठीक है. हंसो और हंसते-हंसते आ जाओ.
कहां आ जाऊं? लड़की ने पूछा.
तुम भूल गईं? आज तुम्हें मेरे घर आना था. तुमने वादा किया था. 
आज क्या है? लड़की ने याद करने की कोशिश की.
आज सनडे है. और तुमने कहा था कि तुम सनडे को घर आओगी.
ऐसा वादा मैंने क्यों किया होगा भला? जरूर मैंने पी रखी होगी उस रोज. लड़की फिर हंस पड़ी. 
अब जो भी हो, वादा किया है तो निभाना पड़ेगा. लड़का वादे का सिरा पकड़े हुए फोन पर लटका हुआ था.
देखो, मैं कोई हरिशचंद्र तो हूं नहीं कि वादा कर दिया तो पूरा ही करना है. अरे मैं मुकर गई वादे से. जाओ, नहीं आती...
लड़की की आवाज में अब भी शरारत थी.
यूं मैं भी किसी को बुलाता नहीं हूं पर अब सोच रहा हूं बहुत सा खाना बन गया है वेस्ट हो जायेगा तो गरीबों को दान कर दिया जाये...
अच्छा जी, ये बात. दोनों हंस दिए.
सुनो, मैं अभी सोकर उठी हूं. और मेरा सर भी दर्द कर रहा है. मैं कैसे आऊंगी. ड्राइव करने में दिक्कत होगी. लड़की ने टालना चाहा.
तुम अगर चाहोगी तो कुछ भी मुश्किल नहीं होगा ये मैं जानता हूं.
रहने देते हैं. फिर कभी. लड़की ने कहा.
ठीक है तुम्हारी मर्जी. लड़के ने अब हथियार डाल दिए.
फोन कट गया और सन्नाटे ने खिलखिलाहटों की जगह लेनी शुरू कर दिया. 
थोड़ी देर में लड़की ने न जाने क्या सोचकर नंबर रीडायल कर दिया. 
क्या हुआ? उधर से आवाज आई.
मैं आ रही हूं. दस मिनट में निकलती हूं.
ओके. उसने कोई सवाल नहीं किया.
खुद को रास्तों में छोड़ते हुए लड़की को हमेशा अच्छा लगता था. मौसम चाहे कोई भी हो. उसने तेज धूप की चूनर ओढ़ी. मुस्कुराहट की पाजेब को जीन्स से बिना मैच किये हुए भी पहना और हाथ में घड़ी. घड़ी को पहनना उसे हमेशा ऐसा लगता था कि उसने वक्त को अपनी कलाई पर बांध लिया हो. उसकी कलाई पर बंधकर वक्त उसका हो जाता हो जैसे. शहर की सड़कों से उसकी दोस्ती पुरानी थी. पलक झपकते ही वो लड़के के पास थी.
वो यहां क्यों आई अभी तक इसका कोई जवाब नहीं था. 
लड़का उससे क्यों मिलना चाहता था, इसका उसके पास कोई जवाब नहीं था. 
उन दोनों ने सवालों से मुंह चुराया और मुस्कुराहटों से एक-दूसरे का अभिवादन किया. लड़के ने उसे गले लगाया और लड़की ने पलकें झपकायीं. 
दिन के सारे पहर उनकी बातचीत, शरारत, खिंचाई, उलाहनों में उलझे रहे. दुनिया भर के साहित्य के पन्नों से होते हुए वे एक-दूसरे से उलझे रहे. काफ्का कभी चाय की चुस्कियां लेते तो दोस्तोवस्की तकिये पर सर टिकाये होते. नेरूदा कमरे में टहल रहे होते तो रिल्के चुपचाप आकर लड़की के पास बैठ जाते.
तुम्हें पता है मेरा एक सपना था, लड़की ने कहा. उसकी आवाज कुछ नम थी. लड़का उसके चेहरे की ओर देखने लगा.
मैं हमेशा सोचती थी कि कोई होगा जिसे मुझसे बेहद प्रेम होगा, मुझे जिससे बेहद प्रेम होगा. उसे मैं अपनी पसंद की सारी कविताएं सुनाऊंगी. सारा संगीत उसके आसपास बिखेर दूंगी, उसके जीवन को रंगों से भर दूंगी और सारी रंगोलियां निखर उठेंगी. 
उसकी आवाज ही नहीं आंखें भी भीगने लगीं.
और ऐसा हो न सका...बेचारा बच गया. लड़के ने चुटकी ली.
लड़की ने उसे गुस्से से देखा. उसके गुस्से में अपनापन था.
बेचारा क्यों? लड़की ने पूछा
अरे यार, जिसको तुम इतना पकाती वो बेचारा ही होता ना...
हूं...लड़की ने मुस्कुराहट में झूठमूठ की नाराजगी का रंग घोला.
लड़की बातें करते-करते थक गई थी. लड़का उसके चेहरे पर उतरते आलस को गौर से देख रहा था. आलस उसकी आंखों में उतर रहा था और वो लगभग उनींदी हो चली थी. तुम सो लो थोड़ी देर मैं खाना बनाता हूं. लड़के ने कहा.
ठीक है...लड़की ने आंखें बंद कीं.
लड़का किचन तक जाकर लौट आया. उसे देखता रहा. लड़की ने अधखुली आंखों से पूछा क्या हुआ?
कुछ नहीं एक बात याद आ गई.
क्या..लड़की ने लापरवाही से पूछा.
कहीं पढ़ा था मैंने सौंदर्य देह में नहीं भंगिमा में होता है. 
अच्छा? लड़की अब भी आलस में रही.
तुम इस समय बहुत सुंदर लग रही हो. अगर कोई पेंटर तुम्हारी तस्वीर बनाये तो वो दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री की तस्वीर होगी. 
लड़के के स्वर में गांभीर्य था. लड़की गंभीरता को घर छोड़कर आई थी.
चलो-चलो खाना बनाओ. फ्लर्ट किसी और को करना. 
वो चला गया. लड़की की आंख से कुछ बह निकला. वो आलस नहीं था. दु:ख भी नहीं था. प्यार भी नहीं था. लड़की ने खामोशी में खुद को समेटा और अपने इर्द-गिर्द ढेर सारे पीले फूलों को खिलते देखा. खुद को उनकी खुशबू में पैबस्त होते महसूस किया. उसे लगा वो पीले फूलों की चादर में लिपटी है. लड़की ने अचानक आंखें खोल दीं. लड़का किचन में काम कर रहा था. लड़की ने किचन में जाकर नई फरमाइश की. 
मुझे चाय पीनी है.
लड़का चौंका. नींद पूरी हो गई तुम्हारी?
हां, हो गई. चाय बनाओ पहले. खाना बाद में. 
जो आज्ञा. उसने हंसकर कहा और चाय का पानी चढ़ा दिया. 
दिन ने पलकें झपकायीं तो शाम को मौका मिल गया आने का. एक पूरा दिन लड़की ने लड़के से बेवजह बात करने और झगडऩे में बिता दिया.
तुम मेरे प्रेमी नहीं हो. लड़की ने कहा.
हां, जानता हूं. 
दोस्त भी नहीं. लड़की ने फिर कहा.
हां, शायद हम दोस्त भी नहीं हैं. हम बरसों बाद मिल रहे हैं और एक-दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं जानते. जानना चाहते भी नहीं. लड़के ने लड़की की बात पर स्वीकृति की मुहर लगाई.
फिर हम एक-दूसरे के साथ क्यों हैं? 
लड़की ने पूछा.
होने और न होने के बीच एक खाली जगह होती है. हमारे जीवन में शामिल अधिकांश लोग उसी खाली जगह में रहते हैं. लेकिन वो समझ नहीं पाते और खुद को किसी न किसी दायरे में कैद करते हैं. 
पर मुझे तुमसे मिलकर अच्छा लगा. लड़की ने कहा.
इतना काफी है. ज्यादा दिमाग मत लगाओ. लड़के ने कहा.
लड़की ने कलाई पर बंधे वक्त को घूरा और गाड़ी की चाभी उठा ली.
लड़के ने उसे रोका नहीं. 
तुम्हारे लॉन में कितने सुंदर फूल खिले हैं. लड़की फूलों को देखकर मुस्कुराई.
हां. लेकिन इनमें से कोई भी फूल तुम्हारे लिए नहीं है. लड़के ने स्पष्ट किया.
क्यों? लड़की नाराज हुई. 
क्योंकि तुम न तो मेरी दोस्त हो न प्रेमिका. तो मैं तुम पर एक फूल क्यों जाया करूं. लड़का शरारत से मुस्कुराया.
अच्छा, ये बात...वो दौड़ते हुए गुलाब की क्यारी तक जा पहुंची और इसके पहले कि लड़का उस तक पहुंचकर उसे रोकता लड़की ने एक फूल तोड़ लिया...
ओह...ये तुमने क्या किया?
लड़के ने कहा.
फूल तोड़ लिया और अब बालों में लगा भी लिया. ऐ...ये देखो. उसने लड़के को चिढ़ाया.
ये तुमने अच्छा नहीं किया. लड़का गंभीर हो चला था.
क्यों? लड़की ने भी गंभीर होकर पूछा.
यार, अब तुम्हें मेरी प्रेमिका बनना होगा. वर्ना ये लाल गुलाब क्या कहेगा. इस फूल को उसकी सफलता महसूस कराने के लिए हमें प्रेम करना पड़ेगा. लड़का मुस्कुराया.
लेकिन तुम तो पहले से ही किसी के प्रेम में हो? 
तो क्या हुआ, मैं कई प्रेम एक साथ कर सकता हूं. लड़के ने घर का दरवाजा बंद करते हुए चुहल की. 
आखिर ये एक फूल की अस्मिता का सवाल है.
लड़की ने अपना पर्स उसकी पीठ पे दे मारा. बदमाश...
लड़का हंस दिया. रहने दो. तुम वहीं होने और न होने के बीच ही रहो. वर्ना कौन अपनी हड्डियां तुड़वायेगा.
सही कहा. लड़की हंस दी.
चांद ने आसमान के रजिस्टर पर अभी-अभी साइन किये थे. वो इन दोनों को देख रहा था.
दोनों ने विदा ली. न अगली मुलाकात का वादा, न बेचैनी, न कोई असहजता. बस एक खिलखिलाता हुआ दिन आसानी से गु$जर गया. 
उन दोनों ने एक-दूसरे की ओर पीठ करते हुए खुद से कहा, हां ये प्रेम नहीं है. दोस्ती भी नहीं. पर जो भी है अच्छा है. बालों में टंके फूल की खुशबू में खुद को जज्ब करते हुए लड़की लौट रही थी अपने ही पास.

('द पायनियर' में 23 अक्टूबर को प्रकाशित)

Wednesday, October 12, 2011

वो शहर उसकी आवाज में बसता है...




कभी सोचा था कि रेत के समंदर में खुद को छुपा दूँगी और सैकड़ों रतजगों से मुक्त हो जाऊंगी. कुछ आवाजें थीं जो सहराओं को चीरते हुए आयीं थीं और रूह को अपने साथ उड़ा ले गयीं थीं. चाँद आसमान की देहरी पर होता था और शाम हथेली पर खिलखिला रही होती थी, ठीक उस वक़्त कोई हवा का झोंका आता और अपने साथ उड़ा ले जाता. मन के वो सारे कोने महकने लगते, जो सदियों से कैद पड़े थे. वो आवाज किसी साज सी थी. फ़ोन के उस पार एक संसार उगने लगा. उस संसार में मै भी उगने लगी. ये उगना असल में अपने ही भीतर जन्म लेना था. सदियों से भटकती रूह की आवाज को सुनना था. उस पार जो आवाज थी उसमे प्यार था, इस पार जो आवाज थी उसमे ऐतबार था. कहीं कोई बाँहों का हार नहीं, जिन्दगी के किसी मोड़ पर मिलने का वादा भी नहीं, कोई उम्मीद भी नहीं बस निश्चल, निर्मल, कामना रहित प्रेम. जो शिराओं में दौड़ता फिरता था, जिसके होने से जिन्दगी में रंग भरने लगे थे.


वो आवाज एक खुशबू थी, फूलों की चादर, रेत का समन्दर. उस आवाज में एक घर बनने लगा. उसमे ख्वाब अंगड़ाई लेने लगे. कभी जंगल, कभी बस्ती, कभी पर्वत, कभी समंदर में डूबती उस आवाज में न जाने कैसी ताजगी थी, न जाने कैसा सम्मोहन कि मन खिंचने लगा था. जाने क्यों रेत के सहरा में मुक्ति की कामना जगती दिखी थी. एक रोज वो आवाज टूट गयी. उस आवाज का जादू गुम हो गया. उस आवाज का टूटना मेरा भी टूटना था. मेरे घर का टूटना था. अजीब सी आकुलता थी, आँख भरी भरी सी रहने लगी. हम अब मौन में रहने लगे. शब्दों में ख़ामोशी को और ख़ामोशी को शब्दों में गढ़ने लगे. हम एक- दुसरे से झूठ बोलने लगे. भीतर-भीतर रोते हुए हम मुस्कुराने लगे. लेकिन उस आवाज का टूटना इस समूची स्रष्टि में बसी खूबसूरती का टूटना था. दरकना था उस विश्वास का जो एक से दूसरे तक होते हुए पूरे ब्रह्मांड में सच्चाई पर यकीन को संप्रेषित करता था.


राजस्थान के किसी गाँव में उस आवाज को ढूंढकर गले से लगाना था. उसे बताना था कि तुम महज एक आवाज नहीं पूरी स्रष्टि के लिए भरोसा हो. रेत के उन टीलों पर भले ही हमने धूप को आँचल में न समेटा हो लेकिन उस आवाज को अपने आँचल में समेटा ज़रूर था. हम एक दूसरे के पीछे भागते फिरते थे. सारा दिन हम ठिठोलियों में खोये रहते और सारी रात अपनी आवाज को छुपकर रख देते तकिये नीचे और बस रोते रहते. चाँद हमारे कमरे की ताका झांकी करता तो हम पर्दा गिराकर उसे बाहर का रास्ता दिखाते.


सवाल राजस्थान का नहीं था, सवाल किसी व्यक्ति का नहीं था, सवाल किसी एक आवाज का भी नहीं था सवाल था विश्वास के टूटने का. इस दुनिया में कुछ भी टूटे लेकिन विश्वास नहीं ही टूटना चाहिए. हमने न जाने क्या क्या कहा, क्या क्या सुना लेकिन राजस्थान का एक कोना हमारी आँखों की बदलियों के बरसने से भीगा ज़रूर. हमारी खिलखिलाहटों से महका ज़रूर. हमने हाथ में हाथ लिया और हथेलियों को कस लिया. उँगलियों में उँगलियों को फंसाकर जोर से दबाया. जी भर के गले लगे, जी भर के रोये, और शायद कुछ टूटने से बचा लिया. जो टूट चूका था उसके टुकड़े चुने और रेत की चादर उठाकर उसके भीतर उन टुकड़ों को सुला दिया.


तभी दशमी का चाँद खिला. नगाड़ों को गूँज उठी, मेहँदी की खुशबू आई, राजस्थानी खाने की महक छाई, ऊँट ने अपनी गर्दन हिलाई और हमने अपनी उदासियों को हथेलियों में भरकर हवाओं में बिखेर दिया. अंजुली में आत्मविश्वास भरा. कोरों पर उभर आई किसी याद को पीछे धकेला और मन को प्रेम से भर जाने दिया. न हवा महल, न आमेर का किला, न चोखी धाडी, सारा सुख सिमटकर रह गया जवाहर कला केंद्र में मिले दोस्तों में और न्यू संग्नेरी के उस घर में जहाँ हम असल में एक-दूसरे को एक दूसरे में खोज रहे थे...रेत के जिस समन्दर में हमेशा के लिए सो जाना था, वहां रात रात भर जागते ही रहे...बाजरे की रोटी, लहसुन की चटनी दाल बाटी चूरमा, कढ़ी, गट्टे की सब्जी, प्याज की कचौरी, मिर्ची बड़ा सब एक तरफ रह गए बस एक आइसक्रीम को मिलकर खाना, आधी रात को सड़कों पर खाक छानते हुए ऊंघते हुए शहर को देखना और हथेलियों में हथेलियों का घंटो फंसाए रहना याद रह गया...कौन कहता है राजस्थान में पानी की कमी है. वहां के लोगों के दिलों में प्रेम की नदी बहती है और उनकी आँखों में नमी रहती है. मैंने भी कुछ मोती चुराए हैं...कुछ नयी यादें बनायीं हैं. वो शहर उसकी आँखों में दीखता है, उन आँखों का भूगोल के नक़्शे में कोई जिक्र नहीं है...


Tuesday, October 11, 2011

उस आवाज के सजदे में झुकी झुकी है नज़र...


- प्रतिभा कटियार 
जिस मुलाकात का आगाज़ आवाज से शुरू हुआ हो, वो मुलाकात हमेशा ताजा रहती है. जगजीत सिंह ऐसी ही आवाज हैं (मैं उन्हें थे नहीं कहूँगी क्योंकि उनकी आवाज हमेशा हमेशा हमारे पास रहेगी). मेरी उम्र कोई सत्रह अठारह वर्ष की रही होगी. वो हमारे शहर में मेहमान थे. ताज होटल के कॉरिडोर में मीडिया उन्हें घेरने की कोशिश में था और मैं उस घेरे के बीच से निकल भागी थी. उन्हें देखा तो, देखती रह गयी. मानो कोई ख्वाब देखा हो रु-ब-रु. उन्होंने खुद पास बुलाया, 'किसे ढूंढ रही हो..?' उन्होंने पूछा. मेरी आवाज़ गले में अटकी थी. वो मुस्कुराये और सर पर हाथ फिरा दिया. वो ख्वाब सच में जी उठा. वो खूबसूरत दिन मेरी स्म्रतियों की गुल्लक में जमा हो गया.
इसके बाद मीडिया के लिए इंटरविव लेने के लिए तो कभी अपनी गुल्लक को भरने के लिए मुलकातें होती रहीं. रात-रात भर उनकी आवाज के साए में बैठने की हसरत इतनी बड़ी होती थी कि घर जल्दी लौटने की सारी हिदायतें न जाने कहाँ गुम हो जाती थीं. 

मैंने हमेशा उनमें एक प्यार भरा इन्सान देखा. उनकी आवाज़ में ये मिठास दरअसल उसी नेकी के सोते से फूटती थी. फोर्मल इंटरवीय के बाद हमारी जो बात होती थी दरअसल वही खास होती थी. अपने कमरे में बिखरे हुए सामान के बीच कभी कुरता, कभी, घडी तलाशते हुए उन्हें फ़िक्र रहती कि मैं चाय क्यों नहीं पी रही हूँ. वो अपने साथी कलाकारों का परिचय ज़रूर करते थे. जो साथी दूसरे कमरों में होते थे उन्हें बुलवाकर मिलवाते. उनकी खासियत से परिचय कराते. एक रोज बातों बातों में दर्द कि वो गांठ भी खुली थी जो दिल के किसी गहरे कोने में उन्होंने छुपा रखी थी. काश कि जिन्दगी का पहिया एक बार लौटा लेने कि इज़ाज़त होती या बीते हुए लम्हों में से कोई एक चुन पाने की...इसके बाद एक गहरी ख़ामोशी हमारे बीच पसर गयी थी जिसे उन्होंने अपने एक पंजाबी टप्पा गुनगुनाते हुए तोडा था.

हाल ही में निदा फाजली साब लखनऊ में थे. उनसे लम्बी बातचीत हुई थी कविता, नई कविता और कविता की समझ को लेकर. इस बीच जगजीत सिंह का जिक्र भी आया. निदा साब मुस्कुराये, मेरी गजलों को तो जगजीत ने मकबूल किया, वरना मुझे इतने लोग नहीं जानते. कई लोग ऐसे मिलते हैं जो मेरी गजलों को जगजीत की आवाज़ की मार्फ़त जानते हैं. मैं कहता हूँ जगजीत से यार तुने मेरी गजलें हड़प लीं लेकिन सच तो ये है कि उसने मेरी गजलों को उन दिलों में पैबस्त किया जो शायद किताबों या मुशायरों की दुनिया से दूर रहते हैं. उस खूबसूरत सी मुलाकात में जगजीत सिंह चुपचाप शामिल हो गए थे और शरारत से मुस्कुरा रहे थे. 
मेरी जब भी किसी शायर से (चाहे वो बशीर साब हों, जावेद साब या गुलज़ार साब ) बात की या मुलाकात की हर मुलाकात में, हर बात में वो शामिल रहे. और पूरी शिद्दत से शामिल रहे. मानो जगजीत जी के जिक्र के बगैर हर मुलाकात, हर बात अधूरी ही थी. गुलज़ार साब ने मिर्जा ग़ालिब धारावाहिक बनाकर ग़ालिब को हमारे दिलों में रोप दिया. बिना जगजीत सिंह की आवाज के ये कैसे मुमकिन होता भला. नसीर साब भी मिर्ज़ा ग़ालिब को अपने अलग से दर्ज अनुभवों में शामिल करते हैं बज़रिये जगजीत सिंह. 

जगजीत सिंह की आवाज़ की उंगली पकड़कर न जाने कितने लोगों ने गजल की दुनिया में प्रवेश किया. जिन लोगों के लिए गजल किसी कठिन पहेली सी हुआ करती थी वो 'कल चौदहवी की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा' पर झूमने लगे. स्टेज पर वो इतने कमाल के फनकार होते थे कि मजाल है सुनने वाले जरा हिल भी जाये.  'सब जीता किये मुझसे मैं हरदम ही हारा...तुम हार के दिल अपना मेरी जीत अमर कर दो...' इस जीत को अमर करने के दरम्यान इतनी खूबसूरत हरकतें होती थीं कि हम कैसेट में सुने गानों को भूल जाते थे.  उनसे बातचीत के दौरान मैंने कभी दर्द के सुर नहीं छेड़े लेकिन एक बार भीगी आँखों से देखते हुए उन्होंने कहा था 'कभी चित्रा को लेकर आऊँगा तो लखनऊ घुमाओगी न उसे?' मैं उनके इस सवाल का जवाब अपनी भीगी आँखों से ही दे पाई थी. ये ज़र्रानवाज़ी ही तो थी, इसका जवाब कोई क्या दे. उनकी ऐसी  तमाम बातें पहले  से जीते हुए दिल को बार-बार जीत लेती थीं. वो दिन नहीं आया जब वो चित्रा जी को लेकर आते और मैं उन्हें घुमा पाती हालाँकि उनके दिल में, उनकी नम आँखों में चित्रा जी मुझे हमेशा ही नज़र आयीं.    

एक रोज मैंने उनसे पूछा था कि 'आपको पता भी है लोग क्या कहते हैं.' उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा 'क्या कहते हैं?' 'यही कि जगजीत सिंह को गुस्सा बहुत आता है.' मैंने कहा. 'अच्छा? ये तो बहुत अच्छी बात है न? वरना लोग यही कहते रहते कि जगजीत को गाना ही आता है, बस.' ऐसे खुशमिजाज़ कि हर सवाल औंधे मुह गिर पड़े. 
 उन्हें घोड़ों का बहुत शौक था. रेसकोर्स उनकी पसंदीदा जगह हुआ करती थी वक़्त बिताने के लिए. चित्रा जी के लिए रसोई में कुछ बनाना कभी, तो कभी चुटकुलों की महफ़िल सजाना. ध्रुपद और ठुमरी हो या पंजाबी टप्पे वो लोगों के दिलों में उतर जाना और अपना स्थायी निवास बनाना जानते थे. लारा लप्पा...लारा लप्पा हो या चरखा मेरा रंगला...या फिर हे राम..हे राम...तू ही माता तू ही पिता है..तू ही राधा का श्याम हे राम हे राम...जगजीत सिंह हर किसी के दिल के भीतर जाने के सारे चोर दरवाजों से वाकिफ थे. यही वजह है कि उनके जाने की खबर से हर दिल भर आया है, हर आँख नम है. बेहद हंसमुख, जिन्दगी से भरपूर, खुशियाँ बिखेरने वाले जगजीत सिंह ने अपने सीने के दर्द को चुपके चुपके जिया. ब्रेन हेमब्रेज  को भी शायद उन्होंने अपनी गायकी का कायल कर लिया और वो उन्हें छोड़कर नहीं अपने साथ लेकर गया. दुनिया भर में उनके चाहने वालों की नम आँखें आज इस आवाज़ के सजदे में हैं...

(प्रभात खबर के सम्पादकीय पेज पर ११ अक्टूबर को प्रकाशित )