Sunday, September 19, 2010

मुख्तसर सी बात है...

कुछ चीजों से कितना भी पीछा छुड़ाओ, वे बाज नहीं आतीं. हरगिज नहीं. इन दिनों मौसम भी ऐसी ही हेठी पर उतर आया है. वक्त अपनी हेठी पर है कोई मौका नहीं देता, मौसम के करीब जाने का. और मौसम अपनी हेठी पर कि पास आने से बाज आने को तैयार ही नहीं. निकलती हूं घर से तो किसी नये-नये से प्रेमी की तरह मुस्कुराता सा बाहर खड़ा रहता है. बरबस, मन मुस्कुरा उठता है. खुद को उसके हवाले करने के सिवा कोई चारा भी तो नहीं. घर से दफ्तर के रास्तों में ही अक्सर मौसम से मुलाकात होती है. कितनी ही बार दिल चाहा है कि काश, रास्ते थोड़े और लंबे हो जाते. इन्हीं रास्तों में मन के भी कितने मौसम खुले पड़े हैं. इन्हीं रास्तों में  अक्सर अपने जीवन के सही सुरों की तलाश की. मन कैसा भी हो, किसी को उसके बारे में पता हो या न पता हो, इन रास्तों को सब पता है. कितने आंसू, कितनी बेचैनियां, कितना गुस्सा, ख्वाब कितने, ख्याल कितने, बेवजह की मुस्कुराहटें कितनी सब राज पता है इन रास्तों को. इन दिनों मेरे रास्तों में मौसम बिछा मिलता है. भीगा-भीगा सा मौसम. मैं कहती हूं, जल्दी में हूं, बाद में मिलती हूं तुमसे. ये मानता ही नहीं. हेठी पर उतर आता है. कभी झीनी फुहार बनकर झरने लगता है, तो कभी ठंडी हवाएं भीतर तक समाती चली जाती हैं. धुला-धुला सा जहां, धुली-धुली सी सड़कें, खिले-खिले से चेहरे. सोचती हूं कितने दिन हुए खुद से मिले हुए. कितने दिन हुए अपनी दुनिया में आए हुए. कितने दिनों से खुद को खुद से बचा रही हूं,आसपास के मौसम से बचा रही हूं. लेकिन कुछ चीजों पर सचमुच कोई अख्तियार नहीं होता. आज बेहद खूबसूरत भीगे-भीगे से मौसम में खुद को नहाया हुआ पाती हूं तो सोचती हूं कितना अच्छा है कि कुछ चीजों पर अख्तियार नहीं होता...

Saturday, September 18, 2010

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर


वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे

ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे

सुना है उसको मोहब्बत दुआयें देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला न करे

ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा न करे.

- क़तील शिफ़ाई

Wednesday, September 15, 2010

कुदरत का ऐलान

तुम्हें कौन सा मौसम पसंद है. लड़के ने पूछा? लड़की मुस्कुराई.
शरद. उसने कहा.
तुम्हें कौन सा फूल पसंद है?
गुलाब. लड़की ने कहा.
तुम्हें चिडिय़ा कौन सी पसंद है?
गौरेया.
प्रकृति में सबसे सुंदर तुम्हें क्या लगता है?
सूरज. लड़की ने मुस्कुरा कर कहा.
लड़की की आंखों में चमत्कार गई थी. उसकी आंखों में सूरज उग आया. उसने
अपनी हथेलियों को कटोरी की तरह बना लिया. उस कटोरी में उसने धूप भरने की कोशिश की. एक अंजुरी धूप, जिसमें वह नहा लेना चाहती थी. उसने अपने हथेलियों में भरी धूप को अपने सर पर उड़ेल लिया. लड़की ने शरारत से
पलकें झपकायीं तो लड़का हंस दिया.
उसे लड़की का यह रूप बहुत पसंद है. ऐसे समय में लड़की अपने भीतर होती है.
उसका संपूर्ण सौंदर्य छलक रहा होता है. भीतर का सौंदर्य बाहर के सौंदर्य से
होड़ लेता है. और दोनों मिलकर सारे जहां की खूबसूरती पर भारी पड़ते हैं.
लड़के के पास हमेशा सवालों का पूरा बीहड़ होता है. हमेशा. लड़की को उस बीहड़ से गुजरना कभी बुरा नहीं लगता. लड़का जवाबों से ज्यादा तल्लीन अपने सवालों में था. वो लड़की के बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था. उसे पता था कि किसी को चाहने के लिए उसके बारे में सब कुछ जान लेना अच्छा उपाय है. यह जानना किस तरह का हो यह उसे पता नहीं था. यूं उसे लड़की से बात करना ही
बहुत पसंद था. सो उनकी मुलाकातों में अक्सर सवालों के ऐसे ही गुच्छे उगते थे.
जवाबों के भी. लड़की को लगता कि कोई अंताक्षरी चल रही है. अगर लड़का कभी सवाल न पूछे तो लड़की उदास हो जाती थी. उसे लड़के के सवालों में आनन्द आता था. इसी बहाने वो खुद को भी जान पाती थी. कई सवालों का जवाब देते हुए उसे पहली बार अपने ही बारे में पता चला. जैसे उसके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश क्या है? जिस रोज लड़के ने पूछा था यह सवाल लड़की उलझ सी गई थी. लड़का इस उम्मीद से था कि वो उसका नाम लेगी. लेकिन लड़की चुप रही. उसने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं. उसकी ख्वाहिशें छोटी-छोटी होती थीं. तितली पकडऩा, फूलों से बातें करना, मां के गले से लिपट जाना, पापा की पसंद का खाना बनाना. जीवन की ख़्वाहिश? ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं था उसने. कितने दिनों तक वो इस सवाल में उलझी रही थी.
ऐसे ही सवालों का चक्रव्यूह रचते हुए एक बार लड़के ने पूछा रंग कौन सा पसंद है तुम्हें?
लड़की खामोश रही.
लड़के ने फिर पूछा. तुमने बताया नहीं. तुम्हें कौन सा रंग पसंद है.
लड़की का चेहरा लाल हो उठा. सुर्ख गुलाब की तरह. उसकी आंखों के आगे न जाने कितने गुलाब खिल उठे, न जाने कितने गुलमोहर, न जाने कितने पलाश. लड़की का चेहरे पर ढेर सारे रंग आये-गये. लेकिन लाल रंग स्थायी रूप से टिक गया.
लड़की ने शरमाते हुए कहा धीरे से कहा- लाल.
अचानक लड़की घबरा उठी, नहीं-नहीं लाल नहीं.
नहीं...नहीं लाल तो बिल्कुल नहीं.
सूरज भी नहीं. शरद भी नहीं, लाल गुलाब भी नहीं. कुछ भी नहीं. लाल नहीं. नहीं,
नहीं, नहीं...
लड़की के चेहरे पर अचानक घबराहट तारी हो गई थी. उसकी आवाज कांपने लगी. उसे न$जर आने लगीं लाल खून में सनी लाशें, बिलखते बच्चे. लाल जोड़े में सजी दु:खी, आंसू बहाती औरतें, जिन्हें अर्थी में ही उस घर से निकलने की ताकीदें मिल रही थीं. उसे ध्यान आया
कि राजा ने लाल रंग के खिलाफ तो फरमान जारी किया है. जिसे पसंद होगा लाल रंग वो राजा का दुश्मन होगा. लड़की फरमान से डर गयी थी. उसने घबराते हुए कहा, लाल रंग नहीं. लाल ओढऩी भी नहीं, लाल सिंदूर भी नहीं, लाल बिंदी भी नहीं.
लड़का समझ नहीं पा रहा था कि लड़की को क्या हुआ अचानक. अच्छी खासी तो खिलखिला रही थी. अब इस कदर परेशान हो रही है. आखिर लाल रंग पसंद करने में बुराई क्या है. इतना डरने की क्या बात है. लड़के ने उसे बहुत संभालना चाहा लेकिन वह बहुत घबराई हुई थी. लाल नहीं...लाल नहीं...कहते हुए वह भाग गई
वहां से.
लड़का समझ गया. उदास हो गया. उसके बस में भी तो नहीं था, लड़की के मन से डर को निकाल फेंकना. वह लौट गया अपने घर. उसकी कोरें गीली हो उठीं. उसने गलत सवाल किया ही क्यों? उसे अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था.
अगले दिन लड़के की आंख खुली तो उसके घर के सामने लगा गुलमोहर लाल फूलों से लदा हुआ था. जमीन पर भी इतने फूल गिरे थे कि धरती पूरी लाल हो गयी थी. उगते हुए सूरज का रंग भी लाल ही था. लड़का हैरान था. आखिर माजरा क्या है, वो समझ नहीं पा रहा था. वो घर से बाहर निकला तो उसे महसूस हुआ कि सारा शहर लाल रंग के फूलों से पट गया है. उसे एक कोने से ढेर सारी दुल्हनों का झुंड आता दिखा. उनकी आंखों में संकोच के लाल रंग की जगह आत्मविश्वास के
तेज की लाली थी. उसे लगा कुदरत ने किसी जंग का ऐलान कर दिया है. लड़का मुस्कुरा उठा. तभी उसने देखा सामने से लड़की मुस्कुराती हुई तेज कदमों से चलते हुए आ रही है उसके पास. उसने लाल रंग की ओढऩी पहनी हुई थी. लाल बिंदिया भी थी उसके माथे पर. मानो उसने पूरा सूरज उगा लिया हो. लड़का उसे खुश देखकर बहुत खुश हुआ. लड़की ने उसके करीब आकर कहा, मुझे पसंद है रंग लाल. सुना तुमने लाल. यह कहने में अब मुझे किसी का डर नहीं.
अगले दिन अखबारों में खबर थी कि जाने कौन सा हुआ चमत्कार बीती रात कि गल गई जेलों की सलाखें सारी. राजा का फरमान कहीं कोने में दुबका पड़ा था.
सपना ही सही लेकिन आंख खुलने पर लड़की अपने इस सपने को लेकर बड़ी खुश थी.

Monday, September 6, 2010

सुख हमेशा चेतना से बाहर रहता है


हर पुस्तक अपने ही जीवन से एक चोरी की घटना है. जितना अधिक पढ़ोगे उतनी ही कम होगी स्वयं जीने की इच्छा और सामर्थ्य है. यह बात भयानक है. पुस्तकें एक तरह की मृत्यु होती हैं. जो बहुत पढ़ चुका है, वह सुखी नहीं रह सकता. क्योंकि सुख हमेशा चेतना से बाहर रहता है, सुख केवल अज्ञानता है. मैं अकेली खो जाती हूं, केवल पुस्तकों में, पुस्तकों पर...लोगों की अपेक्षा पुस्तकों से बहुत कुछ मिला है. मैं विचारों में सब कुछ अनुभव कर चुकी हूं, सब कुछ ले चुकी हूं. मेरी कल्पना हमेशा आगे-आगे चलती है. मैं अनखिले फूलों को खिला देख सकती हूं. मैं भद्दे तरीके से सुकुमार वस्तुओं से पेश आती हूं और ऐसा मैं अपनी इच्छा से नहीं करती, किये बिना रह भी नहीं सकती. इसका अर्थ यह हुआ कि मैं सुखी नहीं रह सकती...

- मारीना की डायरी से

Sunday, September 5, 2010

थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे


बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे,

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे

अपनी तरह सभी को भी किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे

गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वह डाली हरी रहे.

- निदा फाजली