Wednesday, June 30, 2010

अमलताश होती लड़की की कथा


अरे..अरे..अरे...इतनी तेज सीढिय़ां मत चढ़ो, गिर जाओगी.रुक जाओ...रुक जाओ...अरे रुको भी.
लड़का पीछे से चिल्लाता रहा. लेकिन लड़की के कान आज मानो सुनने के लिए थे ही नहीं. सिर्फ बालियां पहनने के लिए थे. गोल-गोल प्यारी सी बालियां. जिनमें एक छोटा सा लाल रंग का मोती भी लगा हुआ था. सुंदर सा, लटकता हुआ. जितनी तेज लड़की चलती, दौड़ती या मुड़ती वो नन्हा सा लाल मोती मानो नृत्य करने लगता. मगन हो जाता. लड़की इस सबसे बेफिकर.
अरे, सुनो तो. लड़का फिर चिल्लाया. लड़की बस ठिठकी जरा सी. पलटकर देखा उसने और मुस्कुरा दी. फिर चल पड़ी आगे को. लड़का झुंझला गया. लड़की झट से पहुंच गई छत पर और दूर लगे अमलताश की कुछ डालियां जो छत पर झुक आई थीं उनके फूलों को तोडऩे की कोशिश करने लगी. लड़का उसके साये का पीछा करते-करते वहां आया. वो गुस्से में था.
ये फूल कहीं भागे जा रहे थे क्या? जरा धीरे नहीं चला जाता तुमसे? गिर जातीं तो?
लड़की हंसी. नहीं, धीरे नहीं चला जाता मुझसे. बहुत तेज चलना चाहती हूं. इतनी तेज, इतनी तेज, इतनी तेज कि लोगों को लगे कि मैं उड़ रही हूं. काश! मेरे पांव पंख बन जाते.
लड़के ने उसकी आंखों में आकाश उतरते देखा. वो आकाश जिसमें वो उड़ रही है.
अच्छा छोड़ो ये सब. मेरी मदद करो फूल तोडऩे में. लड़के ने कोशिश की. हाथ बढ़ाये...डाल ऊपर थी काफी. उसने एक छोटी सी कूद भी लगाई लेकिन नहीं पहुंच पाया.
अरे यार, नहीं पहुंच पा रहा हूं. लड़का झुंझलाया. लड़की दूर बैठकर लड़के को देख रही थी.
कोशिश करो. को.....शि....श. लड़की ने मुस्कुराते हुए कहा.
लड़का फिर कोशिश में जुट गया. बहुत कोशिश की लेकिन नहीं पहुंच पाया.
मैं वादा करता हूं, कल ढेर सारे फूल ला दूंगा. इससे अच्छे फूल. गुलाब, जलवेरा... अभी रहने देते हैं. नहीं पहुंच पा रहा हूं. सच्ची. लड़का हताश हो रहा था.
अच्छा रहने दो. लड़की ने शांत स्वर में कहा. लड़का खुश हो गया.
यहां आओ, लड़की ने बुलाया.
तुम यहां बैठो आराम से. अब मुझे देखना.
वो झट से बाउंड्री पर चढ़ गयी. बाउंड्री पर संभल-संभलकर चलते हुए वो किनारे पहुंची. वहां से उसने एक बड़ी से डंडी में फंसाकर अमलताश की पूरी बड़ी सी डाल नीचे झुका ली. हाथ में डाल पकड़े-पकड़े हुए ही वह नीचे कूद गई. लड़की की आंखों में न जाने कितने जुगनुओं की चमक थी और उसके शरीर में बिजली सी फुर्ती भी थी. लड़का हैरान.
तुम क्या हो?
लड़के ने हैरत से कहा. तुम्हें डर नहीं लगता. गिर जातीं तो?
तीसरे माले की बाउंड्री से लपक कर अमलताश तोडऩे वाली तुम अकेली ही होगी. लड़के ने झुंझलाते हुए कहा.
हां, हूं तो मैं अकेली ही. अब यहां आओ.
लड़की ने लड़के को डाल पकड़ा दी. और खुद चुन-चुनकर फूल तोडऩे लगी. देखो, ज्यादा मत झुकाना. डाल टूटनी नहीं चाहिए. लड़की ने ताकीद की.
उसने कई सारे गुच्छे डाल से उतार लिए. अब छोड़ दो. उसने लड़के को आदेश दिया और उन गुच्छों को संभालने लगा. अचानक उसे कुछ याद आया. अरे, रुको-रुको. मैं छोड़ूंगी डाल. उसने लड़के के हाथ से डाल ले ली और बेहद इत्मीनान से धीरे-धीरे डाल को छोड़ दिया. जब डाल ऊपर गयी तो ढेर सारे फूल झड़े और लड़की फूलों से नहा गयी. लड़का मुग्ध होकर उसे देखता रहा.
देखा...ये सुख बाजार से खरीदे हजारों रुपये के फूलों में भी क्या मिलता भला? लड़की ने फूलों के बीचोबीच खड़े होकर कहा.
नहीं...लड़का अब भी उसे मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था.
लड़की के दुपट्टे में सिमटे हुए फूल अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे. अब लड़की इत्मीनान से बैठ गई. अमलताश की एक डाल को उसने अपने जूड़े में लगा लिया. दूसरी डाल को मोड़कर उसने कंगन बनाया. दाहिने हाथ, फिर बायें हाथ में. फिर बड़ा कंगन गुलबंद बना. अब हार की बारी थी. छोटा हार, फिर बड़ा हार. करधनी, पायल एक-एक कर पूरा श्रृंगार होने लगा. कुछ ही पलों में लड़की अमलताश का पेड़ बन गई. वो धीरे-धीरे उठी. गोल गोल घूमने लगी. कथक की मुद्रायें हौले-हौले आकार लेने लगीं. अप्रतिम न$जारा लड़के की आंखों के सामने था. वो लड़की नृत्य कर रही थी या अमलताश का पेड़? लग रहा था अमलताश के पेड़ ने लड़की की देह में जन्म लिया था.
अगर तुम न होते तो मैं इतनी खुश कभी न होती...लड़की भाव-विभोर होने लगी. उसकी आंखें भर आयीं. उसने लड़के के कंधे पर सर टिकाकर कहा, मेरे जीवन के सारे सुख तुमसे हैं, सिर्फ तुमसे. लड़की की आवाज गीली होने लगी थी. ये लड़कियां जब खुश होती हैं तो रोने क्यों लगती हैं लड़के ने मन ही मन सोचा लेकिन खामोश रहा. वो अपने कंधे पर अमलताश को महसूस कर रहा था.
मेरा जीवन एक उजाड़ बियाबान ही तो था. तुमने ही तो इसे नया रंग-रूप दिया. लड़की फफक पड़ी. लड़का शांत रहा. वो अब जान चुका था कि लड़की जब भी, जो भी करती है बहुत करती है. अब उसे खुलकर रो लेने देना ही बेहतर है. उसने उसे चुप कराने की कोशिश नहीं की.
शाम ने दिन से हाथ छुड़ा लिया था. रात उन दोनों के सर पर मंडरा रही थी. लड़की रोये जा रही थी. तुम्हें याद है, जब तुम आये थे मिलने पहली बार. कितनी नर्वस थी मैं. इतनी कि वो सब कहा जो कहना नहीं चाहती थी. वो सब किया जो करना नहीं चाहती थी. कितनी नर्वस थी मैं. होता कोई और तो न जाने क्या का क्या समझ लेता. मैं मूढ़मति जाने किस दुनिया में थी. तुम गये तो होश आया. होश आया तो लगा कि तुम नहीं गये चले गये सुख भी सारे. लड़की की आंखों में अतीत तैर रहा था. उसने अतीत को खींचकर वर्तमान में मिला लिया था.
उसकी आंखों में छलके आंसुओं को भी मानो उसके अतीत को जानने की इच्छा जाग उठी थी. वे टुकुर-टुकुर लड़की का मुंह देख रहे थे. लेकिन तुमने ऐसा कुछ भी नहीं किया. तुममें....हां सिर्फ तुममें ही तो थी ये ताकत कि जो कहा जा रहा है, उसे न समझे बल्कि जो कहने की इच्छा है उसे समझ ले. मेरे शब्दों में कहां उलझे थे तुम. अपने होने का अहसास कभी भी तुमने कम नहीं होने दिया. कभी भी नहीं.
कैसे किया तुमने ऐसा...?
लड़की अचानक प्रश्न बन गई. लड़का इसके लिए तैयार नहीं था.
जानती हूं तुमने जानकर कुछ नहीं किया. तुम हो ही ऐसे. प्यारे से. है ना? लड़की ने पलकें झपकायीं. लड़के को लगा उसके बारे में नहीं किसी और के बारे में बात हो रही है.
यार, तुम लड़कियों की एक आदत बहुत खराब होती है. जिसे चाहती हो उसे देवता बनाकर रख देती हो. ऐसा तो कुछ नहीं किया मैंने.
हां, ठीक कह रहे हो तुम. हम लड़कियां ऐसी ही होती हैं. जिसे प्यार करती हैं उसे जी-जान से प्यार करती हैं. और जो कोई हमारी भावनाओं को वैसा का वैसा समझ ले तो कहना ही क्या. उसे तो प्यार का देवता ही बना देते हैं. अब ये हमारी गलती है, तो है. लड़की ने मुस्कुराकर अपने कान पकड़ लिये. लड़के की आंखें भर आयीं. तुम ऐसा मत किया करो. मुझे अच्छा नहीं लगता. कभी-कभी डर लगता है. लगता है कि तुम मुझे कुछ ज्यादा ही अच्छा समझ रही हो.
ऐसा नहीं है. लड़की ने आत्मविश्वास से कहा. ऐसा बिल्कुल नहीं है. तुम अच्छे हो इसलिए हम तुम्हें प्यार करते हैं ये तुमसे किसने कहा. तुम सच्चे हो इसलिए हम तुमसे प्यार करते हैं. प्यार के लिए किसी का बहुत अच्छा होना जरूरी नहीं होता, जरूरी होता है जो जैसा है उसे उसके स्वाभाविक रूप में पसंद करना. जैसा तुमने मुझे किया. वरना क्या था मुझमें?
लड़की के चेहरे के भाव बदलने लगे. ऐसा नहीं है. क्या नहीं है तुममें. जो तुम्हें प्यार न करेगा वो निरा मूढ़ होगा. ऐसा नहीं है...लड़की की आंखें छलक उठीं.
मुझे कोई प्यार नहीं करता. कोई भी नहीं. कहते सब हैं कि वो मुझे प्यार करते हैं लेकिन मैं जानती हूं कि मुझे कोई प्यार नहीं करता. तुम करते हो. वर्ना मेरी तमाम बेवकूफियों के बावजूद तुम भला क्यों प्यार करते मुझे. और तुम कोई सवाल भी नहीं करते मुझसे. विश्वास करते हो. कोई पुरुष स्त्री पर इतना विश्वास करे कि कभी कुछ पूछताछ ही न करे, उसकी हर बेवकूफी का कारण खुद ही समझ ले और उन बेवकूफियों को भी प्यार करे, ये आसान नहीं. तुम खास हो. बहुत खास. लड़की ने आंखें मूंद लीं. वो लड़के की उपस्थिति को अपने भीतर महसूस करने लगी. बेहद करीब.
प्यार की उस रात में हजारों तारे खिलने लगे आसमान पर. हवाओं में संगीत गूंजने लगा. लड़की की मुस्कुराहट पूरी फिजां में तैरने लगी. दुनिया भर का दुख, पीड़ा, संत्रास उसकी मुस्कुराहट में पनाह लेने लगे. धीरे-धीरे लड़की ने आंखें खोलीं...वहां कोई नहीं था... दूर-दूर तक कोई नहीं...

Thursday, June 24, 2010

ये ज़िन्दगी उसी की है, जो किसी का हो गया...



आओ तुम्हें आज तुम्हारी पसंद का गाना सुनाती हूं...मैंने मुस्कुरा कर जब मां से कहा तो वो चौंक गईं. मेरी पसंद?
उनका वो अचकचाया चेहरा देखकर मन भीतर तक कचोट गया. उन्हें यह बात इतनी अजीब क्यों लगी कि उनकी पसंद भी कुछ हो सकती है. हमारा परिवार ठीकठाक आधुनिक विचारों का ठीहा है. कहीं किसी पर कोई जोर-जबर नहीं. मां भी पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा हैं. विदेश यात्राएं भी कर चुकी हैं लेकिन सोचती हूं तो सचमुच सब कुछ उनके जीवन में बस वैसे आया, जैसा बाकियों ने निर्धारित किया. यह हिंदुस्तानी स्त्रियों की नियति है. खाने से लेकर पहनने तक दूसरों की पसंद को अपनाने में ही उन्हें सुख मिलता है. इस सुख में वे खुद को खोती जाती हैं अपनी पसंद भी, नापसंद भी.उन्हें इस नियति से भी तो मुक्त होना है.

आज मां की पसंद का ये गाना यहां लगा रही हूं. ये गाना जब मैं छ: बरस की थी, तब वे हारमोनियम पर बजाती थींं. साथ में गाती भी थीं. जब भी ये गाना सुनती हूं, वक्त के उसी हिस्से में पहुंच जाती हूं जहां मां गाने में डूबी हुई हैं. एक कमरे का वो छोटा सा साधनहीन लेकिन प्यारा सा घर. इस गाने को यहां देते हुए मन कुछ गीला सा है कि हमारे होते हुए भी मां को यह क्यों कहना पड़ा कि मेरी पसंद?
फिलहाल उनकी पसंद का ये गाना...
(ये तुम्हारे लिए माँ !)

Tuesday, June 22, 2010

कौमी एकता और तवायफ


वो तवायफ
कई मर्दों को पहचानती है
शायद इसीलिये
दुनिया को ज्यादा जानती है
उसके कमरे में
हर म$जहब के भगवान की एक-एक तस्वीर
लटकी है
ये तस्वीरें
लीडरों की तकरीरों की तरह नुमाइशी नहीं
उसका दरवाजा
रात गए तक
हिंदू
मुस्लिम
सिक्ख
ईसाई
हर $जात के आदमी के लिए
खुला रहता है
खुदा जाने
उसके कमरे की सी कुशादगी
मस्जिद और मंदिर के आंगनों में कब पैदा होगी...
-निदा फाजली
(कुशादगी- विस्तार)


Sunday, June 20, 2010

कितने शहर, कितनी बार- ममता कालिया

शहर कब किसके हुए हैं, शहरयार तक के नहीं. तभी न उनके दिल से निकली थी यह नज़्म इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है? उन्हें क्या पता हर शहर में हर शख्स परेशान सा ही रहता आया है. कितने वक्त में कोई शहर हमारा बन पाता है. हम अपने बंजारे मन से पूछते हैं. यह मन तो मानो उतावला हुआ पड़ा है कि कब हम इस पर अपनी गठरी लादें और दौड़ पड़ें. लेकिन हम मन को अपनी मजबूरियां समझाते रहे, खुक्ख् पड़ी बैंक की पासबुक दिखाते रहे और धीरज धरवाते रहे. लेखन जगत की च्यूंइगगम और चॉकलेट उसे चटाते रहे. आज फलां जगह की मुख्य अतिथिगीरी.
शहर के लिए किसी का रहना जरूरी नहीं होता. ये तो लोग होते हैं जो उससे नाता जोड़ते हैं. कुछ लोग तो अपने नाम के साथ उसे नत्थी कर लेते हैं जैसे वसीम बरेलवी, मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आजमी. कुछ लोग नत्थी नहीं करते, फिर भी उनके साथ शहर की शोहरत चिपक जाती है जैसे म$जाज के साथ लखनऊ, गालिब के साथ दिल्ली, राही मासूम रजा के साथ अलीगढ़ कमलेश्वर के साथ मैनपुरी, राजेन्द्र यादव के साथ आगरा. रहे हैं ये सब और शहरों में भी लेकिन वह एक शहर इनका अता-पता बन गया. शहर वालों को भी इनके किस्से कहानी सुनाने में मजा आने लगा, शहर के कुछ अड्डे इनके नाम से सरनाम हुए, साल दर साल इनके हवाले से न जाने कितने सच झूठ तमाम हुए.हमने चाहा था इलाहाबाद हमें चंदन पानी, मोती धागा, सोना सुहागा जैसा अपना ले, आखिर हम तीस साल यहां रह लिये, अट्ठाइस साल नौकरी कर ली, यहां की हवाएं, सर्दी गर्मी झेल ली.
एक शाम विश्वविद्यालय के खुले मंच पर फैज, फिराक और महादेवी वर्मा को इकट्ठे देखा और सुना. तीनों ही साहित्यकार लेकिन हर एक का अंदाजेबयां और. फैज की शान में रात को विभूति राय के घर पर दावत हुई. जब वे कमरे में दाखिल हुए उन्हीं की कविताओं का हमारा रेकॉर्ड स्टीरियो पर बज रहा था. वे पहले हैरान हुए, फिर खुश हुए और एलपी के कवर पर उर्दू में लिख दिया ममता को मोहब्बत के साथ. इस मौके पर हिन्दी उर्दू लेखकों का भाईचारा भी न$जर आता रहा. सभी युवतर लिखने वाले जश्न में आए हुए थे. डा. अकील रिजवी के नेतृत्व में अली अहमद फातमी, असरार गांधी, काजमी जी, ताहिरा परवीन, आतिया निशात, गजाल जैगम, शाइस्ता फाखरी थे तो शम्सुर्रहमान फारुखी जैसे पायेदार और गंभीर आलोचक की भी उस शाम की सभा में शिरकत थी.
हिन्दी उर्दू अदब के इस तरह के संगम इलाहाबाद की खासियत तब से रहे जब प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकें यहां होती थीं. जियाउल हक और प्रकाश चंद्र गुप्त इन बैठकों के शक्तिपीठ थे और कोई भी रचनाकार तब तक मुकम्मल नहीं माना जाता जब तक दोनों जुबानों से उसे सनद न मिले. पता नहीं तब भी हिन्दी वालों को क्या मेरी तरह यह अफसोस हुआ होगा कि उन्होंने उर्दू पढऩी-लिखनी क्यों नहीं सीखी. कितना अजीब है कि सभी उर्दू भाषी अदीब हिन्दी जानते हैं लेकिन सभी हिन्दी भाषी उर्दू की मामूली जानकारी भी नहीं रखते. एक अकेले रघुपति सहाय फिराक हिन्दी भाषी अदीबों की यह कमी पूरी करने के लिए नाकाफी थे.
फिराक साहब के क्या कहने. उनकी विनोदप्रियता के किस्से तो जग जाहिर हैं. एक बार फिराक साहब के घर चोर घुस आया. फिराक साहब को रात में ठीक से नींद नहीं आती थी. आहट से वे जाग गये. चोर इसके लिए तैयार नहीं था. उसने अपने साफे से चाकू निकाल कर फिराक के आगे घुमाया. फिराक बोले, तुम चोरी करने आये हो या कत्ल करने. पहले मेरी बात सुन लो.चोर ने कहा, फालतू बात नहीं, माल कहां रखा है?फिराक बोले, पहले चक्कू तो हटाओ, तभी तो बताऊंगा. फिर उन्होंने अपने नौकर पन्ना को आवाज दी... अरे भई पन्ना उठो, देखो मेहमान आये हैं, चाय वाय बनाओ.पन्ना नींद में बड़बड़ाता हुआ उठा, ये न सोते हैं न सोने देते हैं.चोर अब तक काफी शर्मिन्दा हो चुका था. घर में एक की जगह दो आदमियों को देख उसका हौसला भी पस्त हो गया. वह जाने को हुआ तो फिराक ने कहा, दिन निकल जाए तब जाना.चोर आया था पिछवाड़े से लेकिन फिराक साहब ने उसे सामने के दरवाजे से रवाना किया यह कहते हुए कि अब जान पहचान हो गयी है भई आते जाते रहा करो.

Thursday, June 17, 2010

यह जो बनारस है


काशीनाथ सिंह
जाने क्यों कभी-कभी लगता है कि बनारस अब बूढ़ा और जर्जर हो रहा है. हो सकता है यह मेरे अपने बूढ़े होते जाने की छाया हो जो उस पर मुझे दिखाई पड़ती हो, लेकिन यह सच है कि उसके बदन पर फालतू की चर्बी बढ़ती जा रही है. पेट आगे निकल आया है. गोश्त हड्डियां छोड़ रहा है. चमड़ी पर जगह-जगह पपड़ी पडऩे लगी हैं. अपनी झुर्रियों और दाग-धब्बों को छिपाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी भी करवा रहा है समय-समय पर, लेकिन उससे क्या? उमर तो उमर छिपाई नहीं जा सकती.
वह बूढ़ा हुआ है अचानक इन्हीं चालीस-पैंतालिस सालों के अंदर. उसके कंधे पर आज भी चादर पड़ी हुई है. गंगा की चादर, जो कभी निर्मल, धवल और झलमल लहराती रहती है, कंधों पर आज मटमैली और धूमिल हो चुकी है. उसकी आंखों के आगे धुंध है, और वह जिए जा रहा है. अपने शानदार इतिहास की स्मृतियों में, अतीत की यादों के भरोसे जो उसे ऊर्जा और गर्व से भर रही है.
मैं आया था बनारस आजादी के पांच साल बाद. बनारस तब अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक गरिमा में जगर-मगर था. जवान और अल्हड़ व मस्त. प्रेमचंद, प्रसाद और आचार्य शुक्ल गुजर चुके थे लेकिन उनकी पदचाप हर चौराहे और गली नुक्कड़ पर थी. नगर के उत्तरी सिरे पर नागरी प्रचारिणी सभा और दक्षिणी छोर पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का हिन्दी विभाग बीच में चाय-पान, सब्जी की दुकानें, कहीं भी, किसी भी वक्त आपको ऐसा परिचित-अपरिचित युवक मिल सकता था जिसकी जेब में कविता या कहानी हो. माहौल ही ऐसा था. गले में गीत लिए घूमने वाले तो अनगिनत थे. हर हफ्ते कहीं न कहीं रचना पाठ व कविता पाठ भी हो सकता था और कहानी पाठ भी. मोहल्ला स्तर की संस्थाओं की भरमार थी. हैदराबाद से कल्पना, दिल्ली से आलोचना, इलाहाबाद से कहानी या नई कविता किसी एक के यहां पहुंचती थी और दूसरे दिन सड़क पर गूंजने लगती थी. बीए करते-करते हिन्दी का ऐसा कोई बड़ा लेखक कवि मसलन पन्त, महादेवी, यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, शमशेर, नागार्जुन नहीं था जो देखने-सुनने से बचा हो. बाहर के किसी भी लेखक का बनारस के संपर्क में होना कबीर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रसाद, प्रेमचन्द और शुक्ल जी की परंपराओं से जुडऩे या उनसे अलग रास्ता तलाशने जैसा था उन दिनों.
ऐसे ही सघन और हरे-भरे माहौल में पहले-बढ़े और तैयार हुए थे नामवर सिंह, बच्चन सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, शिवप्रसाद सिंह, रादशरश मिश्र, केदारनाथ सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, विद्यासागर नौटियाल, रमाकान्त, कृष्णबिहारी मिश्र, विजयमोहन सिंह और भी जाने कितने कवि, कथाकार, आलोचक. उन्हीं दिनों कवि त्रिलोचन, शंभुनाथ सिंह और आलोचक चन्द्रबली सिंह भी सक्रिय थे और नए के लिए संरक्षण और प्रोत्साहन का काम कर रहे थे. सच कहिए तो धूमिल ही नहीं, बनारस में साठ की पीढ़ी भी इसी माहौल का विस्तार और विकास थी. एक समूचे परिदृश्य में उर्दू के शायर न$जीर बनारसी को न$जरअंदाज नहीं किया जा सकता जो न$जर अकबराबादी की विरासत लिए हिन्दी वालों के साथ बड़ी मुस्तैदी से चलते रहे. ये वे दिन थे जब बनारस सचमुच भारतीय संस्कृति ही नहीं, साहित्य की भी राजधानी था.
हालात बदलने शुरू हुए. 1960 के बाद से. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उसी साल चंडीगढ़ चले गए. फिर तो जैसे जाने वालों का सिलसिला ही शुरू हो गया. कोई पडरौना गया, कोई आरा, कोई अहमदाबाद, कोई दिल्ली, कोई लखनऊ, कोई शिमला, कोई कहीं और. एक दिन नामवरजी भी दिल्ली चले गये. रही-सही कसर त्रिलोचन ने पूरी कर दी. दिल्ली, भोपाल, सागर. इतना ही रहा होता तो गनीमत थी, लेकिन लोगों की प्राथमिकताएं भी बदलनी आरम्भ हो गईं. जो नागरी प्रचारिणी सभा स्वाधीनता आन्दोलन में हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित संस्था के रूप में जानी जाती थी, वह बैंकों और दुकानों काकटरा होकर रह गईं. ऐसे ही पता कीजिए ज्ञानवापी पर कि प्रेमचंद गृह कहां था? गिरजाघर चौमुंहानी के पास कभी सरस्वती प्रेस था. प्रेस भी और साथ में रिहाइशी विशाल भवन भी, जिसमें प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी रहा करती थीं. उन दिनों अमृतराय और हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक भी ठहरा करते थे. प्रगतिशील लेखक संघ और साहित्यिक संघ की गोष्ठियां भी नहीं हुआ करती थीं. आज वहां किसी निदान केन्द्र का बोर्ड है. इसी तरह आचार्य रामचंद्र शुक्ल का आवास तबेला और शोध संस्थान बन चुका है. जो विवाह-मंडप, शादी-विवाह और भाड़े पर आयोजनों-समारोहों के काम आता है. पता नहीं, आधुनिक युग के जन्मदाता भारतेन्दु और प्रसाद जी के ठिकानों के क्या हाल हैं? ज्यादा नहीं, ये बीस-तीस वर्षों के अंदर हुए बदलाव हैं जिनका रफ स्केच है यह टिप्पणी. हां, राजधानी आज भी है यह नगर, लेकिन कला और संस्कृति की नहीं, धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों की. इस पर कोई गर्व करना चाहे तो कर सकता है. मित्रो, बनारस गंगा भी है और गलियां भी. किसी एक का नाम नहीं है बनारस और यह सच है कि गंगा का रास्ता गलियों से होकर जाता है. गलियां टेढ़ी-मेढ़ी, उल्टी-सीधी, एक-दूसरे को काटती हुई, एक-दूसरी में गुम होती हुई. कभी खुली, कभी बंद. न हवा, न रोशनी. न आकाश, न तारे. चक्करदार, तंग और संकरी. इनका काम ही है भटकाना, गति को मद्धिम कर देना, रोक देना.
मुल्ला, पंडित, पुरोहित, मौलवी-क्या थे कबीर के लिए? किनके खिलाफ लुकाठा लेकर खड़े हुए थे वे? यही गलियां. जिनसे तंग आकर तुलसी ने कहा था-मांग के खइबो, मसीत पे सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ. भारतेन्दु, प्रेमचंद, प्रसाद, द्विवेदी- ऐसा कौन है जिसे तंगमिजाज, संकीर्ण, दकियानूस, चक्करदार पथरीली गलियों ने भटकाने और भरमाने की कोशिश न की हो. लेकिन यह भी सच है कि गलियां वहीं हैं जहां गंगा है. जहां गंगा नहीं, वहां गलियां नहीं. गंगा का मतलब है अप्रतिम गति, सतत प्रवाह, कलकल-उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा का मतलब है अप्रतिहत गति, सतत प्रवाह, कलकल-उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा, आवेग, प्रकाश, अछोर, अनन्त विस्तार. तट पर खड़े हो जाइये और आंखें खोलिए, तो हो सकता है कि वह दिखाई पड़े जो नंगी आंखों से कभी न दिखा हो. गंगा दृश्य भी है और दृष्टि भी-बशर्ते आंखे हों. और आंखें हों भी, तो मायोपिक न हों. मायोपिक होंगी तो सिर्फ तट के किनारे मचलती-उछलती सिधरी मछलियां ही देख सकेंगी. पार की हरियाली, बगुले और बादलों में छिपा सूरज नहीं. गलियां और उनके आजू-बाजू की दीवारें आंखों को मायोपिक बनाती हैं. तो मित्रो! बूढ़ा किसी जमाने का अक्खड़ और फक्कड़ बूढ़ा-बैठा है शिवाला घाट पर. बगल में देखता है-चेतसिंह का किला किसी ताज या ओबेरॉय ग्रुप का होटल हो चुका है. धरोहर के रखोरखाव के नाम पर फाइव स्टार होटल. गंगा स्विमिंग पूल में बदल चुकी है और घाट की सीढिय़ों पर लेटे नंगे-अधनंगे विदेशी पर्यटक धूप सेवन कर रहे हैं. बूढ़ा बैठा है और सामने ताकता है धुंध में. नहीं समझ पाता कि यह धुंध दृष्टि की है या दृश्य की. लेकिन सामने धुंध है. निचाट उजाड़, जिसमें कभी-कभी पानी की पतली सी चमक कौंध उठती है. यह भी उसकी समझ नहीं आता कि यह गंगा की ही कोई धारा है या वरुणा? या गंगा ही सिकुड़कर वरुणा हो गई है? इस उजाड़ में घाट पर बैठे बूढ़े को जो चीज जिलाए जा रही है वह है, कहीं दूर से आती हुई धुन, बल्कि धुनें, कभी शहनाई की, कभी ठुमरी की, कभी तबले की. प्रार्थना कीजिए उसका यह भ्रम बना रहे कि ये धुनें राजा चेतसिंह घाट के होटल के डाइनिंग हाल से नहीं आ रही हैं.
(बनास से)

Saturday, June 12, 2010

दु:ख का जायका

मेरे लोगो!
दु:ख से समझौता न करना
वरना दु:ख भी कड़वाहटों की तरह तुम्हारे $जायके का हिस्सा बन जायेगा
तुम दु:ख के बारे में $गौर करना...
उसकी माहीयत जानना, उसकी तुम ड्राइंग करना
और सर जोड़कर उस तस्वीर से बातें करना
गली के बाहर मैदानों में, खेतों में,
घर की छतों के ऊपर
हर तरफ बातें करना, दु:ख की, आनेवाले सुख की
मेरे लोगो!
दु:ख को जब पहचानोगे तो उसका कर्ज उतारोगे
इक-इक पैसा जमा करना सुख की ख़ातिर
हथियार बनाना, ज़ेहनों में, तस्वीरों में तहरीरों में
फिर दु:ख के आगे डट जाना
और ऐसी दीवार बनना जिसकी तैयारी में का$फी दिन लगे हों
का$फी लोग लगे हों
सारी खूबियां उस दीवार में हो, सब सैलाबों के आगे डट जाने की
मेरे अच्छे लोगो!
क्या तुमने सोचा है के: दीवारें भी नंगी हो जाती हैं कुछ ईंटों के गिर जाने से
तुम सोच-समझ के अपने संगी साथी बनाना
ईंटों को गिरने न देना
धीमी आंच में धीमे-धीमे बातें करना दु:ख की,
सुख की तुममें जो सबसे अच्छी बात करेगा
वही तुम्हारा साथी होगा-वही तुम्हारा सूरज होगा
मेरे लोगो!
दु:ख के दिनों में सूरज के रस्ते पर चलना
उसके डूबने-उभरने के मं$जर पर $गौर करना
मेरे लोगो!
झील की मानिंद चुप न रहना
बातें करना, चलते रहना, दरिया की रवानी बनना
मेरे लोगो!
दु:ख से कभी समझौता मत करना, हंसते रहना
दु:ख के घोड़े की लगामों को पकड़ कर हवा से बातें करना
ऊंचा उडऩा.
- शाईस्ता हबीब

सुनो प्रेम बतियां...


जिस भावना को अभिव्यक्त करने में हमेशा, दुनिया की हर भाषा के शब्द पंगु हो गये वो भावना है प्रेम. फिर भी सबसे ज्यादा लिखत-पढ़त प्रेम पर ही हुई. इसी लिखत-पढ़त में से दुनिया के महान लोगों के प्रेम के बारे में व्यक्त किये गये विचारों को संकलित किया गया है एक पुस्तक में. पुस्तक का नाम है प्रेम. संवाद प्रकाशन से आई इस पुस्तक से गुजरना भी एक अनुभव है. प्रेम की इन परिभाषाओं का अनुवाद और संकलन किया है अशोक कुमार पाण्डेय जी ने.
आइये देखते हैं कुछ टुकड़े-


प्यार दीवानावार चाहे जाने की दीवानावार चाहत है- मार्क ट्वेन

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मैंने सौंप दिया खुद को उसे
और ग्रहण किया कीमत की तरह
इस तरह प्रमाणित हुआ
जीवन का पवित्र समझौता-एमिली डिकिंसन

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पुरुष जानते हैं कि स्त्रियां उन पर भारी पड़ती हैं. इसलिए वे सबसे ज्यादा कमजोर या सबसे ज्यादा अज्ञानी का चुनाव करते हैं. अगर वे ऐसा न सोचते तो उन्हें यह भ्रम न होता कि स्त्रियों को इतनी जानकारी न हो जाए, जितनी उन्हें खुद है- डॉ. जॉनसन


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पहला प्यार केवल थोड़ी सी मूर्खता और ढेर सारी उत्सुकता होता है- जॉर्ज बर्नाड शॉ

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अपरिपक्व प्रेम कहता है, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं क्योंकि मुझे तुम्हारी जरूरत है. परिपक्व प्रेम कहता है, मुझे तुम्हारी जरूरत है क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूं-एरिक फ्राम


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जब प्यार पागलपन नहीं, तो यह प्यार ही नहीं- पेड्रो केल्ड्रान डे ला बर्का

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प्रेम हमेशा ज्ञान की शुरुआत होता है जैसे आग रोशनी की-थॉमस कार्लाइल

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पुरुष का प्यार उसकी जिंदगी की एक छोटी सी चीज होता है पर औरत के लिए यह उसका संपूर्ण अस्तित्व- लॉर्ड बॉयरन

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एक आदमी वहां नहीं, जहां वह है बल्कि वहां है जहां वह प्यार करता है- अज्ञात

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अगर प्यार न हो ते धरती मकबरे जैसी हो जायेगी- रॉबर्ट ब्राउनिंग

Friday, June 11, 2010

हाय मैंने गहने क्यों पहने

सीरियलों के संसार में से लापतागंज के अलावा न आना इस देश मेरी लाडो ही मेरे हिस्से आता है. कारण ये भी हैं कि घर पहुंचने पर इन्हीं का वक्त होता है और ये ऑटोमेटिक रुटीन का हिस्सा बन चले हैं. लाडो तो खैर लाडो है, उसे अम्मा जी के देश में न आने की सख्त ताकीद है. फिर भी कुछ लाडो आ ही जाती हैं. किसी को घर की नौकरानी बनना पड़ता है तो किसी को डाकू. अम्मा जी दांव पर दांव फेंकती रहीं अपनी डाकू बेटी को प्यार के जाल में फंसाने के. आखिर उसे गहने, जेवर, लाड़, प्यार के जाल में फंसाकर पुलिस के हवाले कर दिया.

मुझे सचमुच हंसी आ रही थी. सीरियल तो खैर सीरियल ही है, उसका क्या लेकिन असल जिंदगी में भी तो यही होता है. गहना, जेवर, सुंदरता के कसीदे, अदाएं, नाज, नखरे ये सब स्त्रियों की दुनिया की चीजें बना दी गईं. इसके पहले कि तुम्हारी आंख देखे आसमान तुम्हारी आंख में प्यार का काजल लगा देते हैं. इसके पहले कि उठे गर्दन लो भारी सा हार लटका लो गले में. इसके पहले कि हाथ मजबूती से पकड़ें अपने जीवन की बागडोर उन्हें चूडिय़ों से भर दो, चूडिय़ां भी किसी के नाम की. पायल की रुनझुन में खोई रहो तुम और तुम्हारी चाल पर लगी ही रहे हमारी लगाम. सर से पांव तक गहने ही गहने, वाह क्या कहने? अब तो तुम बहुत कीमती हो, घर में रहो, कोई चुरा न ले जाए तुम्हें. यही तो होता रहा है सदियों से. सो सीरियल में भी डाकू अंबा ने जैसे ही गहने पहने वो फंस गयी जाल में. चूडिय़ों भरे हाथ हथकड़ी से सज गये. उसके मन में उस वक्त यही तो आया होगा कि हाय मैंने गहने क्यों पहने?

गहनों के इस सच को समझना होगा. असल गहना है ज्ञान, समझ, विवेक, हिम्मत, काबिलियत, जिसे कोई बर्दाश्त नहीं कर पाता, क्यों भला?

Thursday, June 3, 2010

हमारी सांसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है..

आज अपने ब्लॉग पर पहला ऑडियो दे रही हूँ.
इस सुरीले आगाज़ के लिए नूरजहाँ की आवाज से
बेहतर भला क्या होगा...


हमारी सांसों में आज तक वो
हिना की खुशबू महक रही है..
लबों पे नगमे मचल रहे हैं...
नज़र से मस्ती छलक रही है
हमारी सांसों में आज तक वो
हिना की खुशबू महक रही है...

वो मेरे नजदीक आते-आते
हया से एक दिन सिमट गए थे
मेरे ख्यालों में आज तक वो
बदन की डाली लचक रही है..
हमारी सांसों में आज तक वो...

सदा जो दिल से निकल रही है
वो शेरो नगमों में ढल रही है
कि दिल के आँगन में जैसे कोई
गजल की झांझर झनक रही है..
हमारी सांसों में आज तक वो...

तड़प मेरे बेकरार दिल की
कभी तो उनपे असर करेगी...
कभी तो वो भी जलेंगे इसमें
जो आग दिल में दहक रही है
हमारी सांसों में आज तक वो...

Tuesday, June 1, 2010

क़ातिल को दुआ दी जाये

जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये

तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की
इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाये

दिल का वो हाल हुआ ऐ ग़म-ए-दौराँ के तले
जैसे इक लाश चट्टानों में दबा दी जाये

हम ने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाये


हम को गुज़री हुई सदियाँ तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लवें
शर्त ये है के उन्हें ख़ूब हवा दी जाये

हम से पूछो ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आह छुपा दी जाये.

- जाँ निसार अख़्तर