Thursday, February 25, 2010

ये क्या गड़बड़झाला है...


ज्योति नंदा
'माय नेम इज खान' के रिलीज़ के एक हफ्ते बाद दर्शकों की प्रतिक्रिया स्वरुप एक अखबार में ३ स्टार दिए गए, जबकि पूरे मीडिया फिल्म आलोचकों ने इसे 5 या 4 स्टार से अलंकृत किया था. एक आम दर्शक की भाँति ही मुझे भी समझ में नहीं आया कि ऐसा इस फिल्म में क्या नवीन और अद्भुत है,जो अब से पहले कभी नहीं कहा और दिखाया गया. यदि इस फिल्म से अमेरिकी परिवेश और नज़रिया हटा दिया जाय तो यह एक औसत दर्जे की फिल्म है.

आम आदमी द्वारा आतंकवाद की पीड़ा को भोगे जाने पर हिंदी सिनेमा में ढेरों कहानियां बनायीं हैं,जो माय नेम इज खान से कहीं बेहतर और सशक्त हैं. अच्छा इन्सान बुरा इन्सान, बुरे पर अच्छे की जीत, नेकी बदी हमारी संस्कृति में यह बातें मिटटी की खुशबू की तरह घुली हुई हैं. 1947 से हम यही कहते चले आ रहे हैं.ज्यादा पीछे जाने की जरुरत नहीं है. पिछले साल आई अ वेडनेसडे कहीं ज्यादा सशक्त फिल्म है, जो बयां करती है हर उस इन्सान के दर्द को जो किसी भी मज़हब का है और बन रहा है शिकार कुछ बुरे लोगो के वहशीपन का.

नंदिता दास के निर्देशन में बनी फिल्म फिराक इस लिहाज़ से बेहतरीन फिल्म है, जो डील करती है गुजरात में हुए दंगो के बाद के बदले हुए सामजिक ताने-बाने से.इसमें एक माँ है, जो सबकी नज़र से बचा कर दंगों में अनाथ हुए मुस्लिम बच्चे को अपने घर में पनाह देती है. मध्यम वर्गीय दंपत्ति हैं-बिलकुल रिजवान खान और मंदिरा की तरह जो कभी अपनी पहचान छुपाते नज़र आते है तो कभी हालात से लड़ने की हिम्मत जुटाते हुए दिखते हैं.

रिजवान खान कहता है कि सिर्फ उसके नाम की वजह से उससे नफरत मत करो.यह सन्देश अमेरिका के लिए ही हो सकता है.जो 9/11 के बाद इतनी नफरत उगल रहा है कि पूरी दुनिया इसमें जल रही है. हमारे लिए मुसलमानों से नफरत कर पाना इतना आसान और सीधा नहीं है.हम शताब्दियों से मिलजुल कर रहे हैं. आज भी दिवाली और ईद एक ही महीने में मानते है. 1992 के मुंबई धमाके से दहल गयी दुनिया लेकिन तारीख नहीं बदली. तारीख तब इतिहास बनी जब अमेरिका ने आतंकवाद का स्वाद चखा.अमेरिका के नजरिये से आहत खान सच्चाई का रास्ता नहीं छोड़ता. तूफ़ान में फंसे अमेरिकियों की मदद करने पहुँच जाता है.भारत में जब जब साम्प्रदायिकता की आग भड़की है, तब तब मानवीय संवेदनाओं को जगाने और झकझोरने वाले कितने उदाहरण मिलते हैं, जो कितनी भी नफरत हो अच्छे का साथ नहीं छोड़ते. हम ऐसे किस्सों से रोज़ दो चार होते है.खान कुछ भी अनूठा नहीं करता. कहने का अर्थ यह नहीं कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए. किसी फिल्म में ऐसे मोड़ परिस्थितियां पहली बार नहीं है.यह एक घिसीपिटी सिचुएशन है.

किसी एक का नजरिया पूरी दुनिया की सोच कैसे बन सकती है.उसे अन्तरराष्ट्रीय नजरिया और फिल्म भी करार दिया गया है.अन्तरराष्ट्रीय होने का पैमाना यही रह गया है.अमेरिका में जाकर फिल्म बनाएं, उनके राष्ट्रपति की तारीफ़ कीजिये.जबकि सही मायनों में 9/11 के बाद कोई फिल्म इस्लाम को सही ढंग से समझने की कोशिश करती है तो वह है पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए.खान अपने धर्म को गलत अर्थो में समझने पर एक दृश्य में बयां करता है.खुदा के लिए न सिर्फ अमेरिकी ज्यादतियों को दर्शाती है बल्कि पढ़े लिख मुस्लिम नौजवानों को किस तरह बहकाया जाता है, इस पर भी रौशनी डालती है.खान की भाभी अपमानित होने पर कहती है कि हिजाब उसका वजूद है. इस संवाद का क्या मतलब है. इस्लाम में हिजाब ही औरत का वजूद है. जबकि खुदा के लिए की नायिका अपने हक के लिए पूरे कट्टरपंथी समाज से लड़ जाती है.कानूनी लड़ाई में हदीस की आयतों का एक ज़हीन मौलाना द्वारा सही इन्टरपिटेशन कर झूठे बदनियतों को मुंहतोड़ जवाब देती है.

माय नेम इज खान देखने के बाद ज़हन में रह जाता है एक माँ का दर्द और औटिस्टिक खान की मासूमियत.जो अपनी इमानदारी से कभी हंसाता है रुलाता और अचंभित भी करता है,जो खुद इन सारे भावों को व्यक्त नहीं कर पाता.और यही रोमांटिसिज्म शायद शाहरुख़ खान के फैन को भाता है. लेकिन इस बार मीडिया भी शाहरुख़ के मोहपाश में बंधा नज़र आता है.

9 comments:

Ajayendra Rajan said...

hum poora ittefaq rakhte hai is soch se...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बढ़िया आलेख!

अनिल कान्त said...

sahi kaha...

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

दिगम्बर नासवा said...

अच्छी प्रतिकिरया है आपकी ... सच है फिल्म कोई ख़ास नही है ...

Mukul said...

शब्द भले ही आपके हों पर विचार मेरे ही हैं मैं करण जौहर से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं कर सकता

Udan Tashtari said...

नाम इतना सुना है कि एक बार तो देख ही लेंगे.

प्रज्ञा पांडेय said...

aaj kal bekaar filmon ko bhi 3 star dene ka ajib chalan hai ..

Amit Kumar Jaiswal said...

SACH KAHA AAPNE...