Thursday, January 14, 2010

एक दुःख पुकारता है..

दबे पांव आता है दु:ख। बेहद खामोशी के साथ. हर पल, हर क्षण दु:ख से झरती है एक उम्मीद, उस दु:ख से पार निकल पाने की. ऐसे वक्त में जब दु:ख स्थाई हो चले हों. जब दुखों ने मुस्कुराहटों तक को न बख्शा हो और वहां भी बना लिया हो ठिकाना, तब बुद्ध याद आते हैं. बार-बार याद आते हैं. बुद्ध को याद करते हुए आलोक श्रीवास्तव की कविताएं पढऩा दु:ख के सुख को महसूस करने जैसा भी है. उनका नया संग्रह दु:ख का देश और बुद्ध बस आने को है. इसी संग्रह से आइये पढ़ते हैं कुछ कविताएं...
एक दु:ख पुकारता है
ये करुणा
आवा$ज देती है
एक दु:ख पुकारता है...
लहरों में सिर्फ दीप नहीं
जल में घुले आंसू भी हैं
इतिहास की बहती सरिता के तट पर
उन्हें किसी ने निहारा था
वह कह सकता था...
मैं लौटूंगा
जब भी धर्म की हानि होगी
मैं मुक्त करूंगा तुम्हें
पर उसने कहा
दु:ख से निष्कृति
दुख से भागने से नहीं है
उसने कहा...
अपना दीपक आप बनो
तप और ज्ञान नहीं
बहुत सारी रातों में रोने के बाद
वह अच्छी तरह जानता था
आंसुओं के बारे में।
उसकी डबडबाई आंखें
अब भी दिखती हैं
इतिहासों के पार...
कहां से आता है यह दु:ख
हजार-हजार पंखों पर सवार
चेतना को ग्रसता
छा जाता जीवन पर
इंसान जान भी नहीं पाता
स्रोत दु:ख के
थकता-टूटता हारता
फिर भी पूजता, नवाता
शीष दु:ख के ही निर्माताओं के सम्मुख
कैसी है यह दु:ख की कारा
लोहे से मजबूत
पर शक्तिहीन सूखी टहनी सी....

7 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

अच्‍छी कविता।

Arshad Ali said...

"एक दुःख पुकारता है"

बहुत सुन्दर रचना
पुस्तक का इंतजार रहेगा .

अमिताभ श्रीवास्तव said...

pratiksha he us pustak ki jisame dukh pukaar rahaa ho../

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छी रचना!
सुन्दर भाव!

Himanshu Pandey said...

बेचैनी से जोह रहा हूँ किताब को !
कविता का आभार ।

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर रचना

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर रचना