Saturday, November 21, 2009

चुप का पहाड़

पार किए
विन्ध्य से लेकर हिमालय तक
न जाने कितने पहाड़,
पार की गंगा से वोल्गा
और टेम्स तक
न जाने कितनी नदियां.
बड़ी आसानी से
पार हो गए सारे बीहड़ जंगल,
मिले न जाने कितने मरुस्थल भी
राह में
लेकिन कर लिए पार वे भी
प्यार से...
बस एक चुप ही
नहीं हो पा रही है पार...

Saturday, November 14, 2009

समंदर ने मुझे प्यासा ही रखा...

कहते हैं कि अगर जिंदगी का एक सुर भी ठीक तरह से लग जाए तो जिंदगी महक उठती है. एक बूंद अमृत अगर सच्चे सुर का पीने को मिल जाए तो उसके बाद बाकी कुछ नहीं रह जाता. और अगर एक शाम ऐसी बीते जहां सुरों का पूरा काफिला हो तो सोचिए स्थिति क्या होगी. गूंगे का गुड़ वाली कहावत याद आती है...बेचारा स्वाद ले तो सकता है लेकिन उसे बयान नहीं कर सकता।

कल की शाम ऐसी ही खुशनुमा शाम थी. जो सुर सम्राज्ञी गिरिजा देवी के सानिध्य में बीती. यूं उनसे मिलना हर बार ही अनूठा अनुभव होता है. और इस बार तो हम जल्दी ही मिले थे. तकरीबन महीने भर के अंदर ही. लेकिन इस बार उन्होंने एक जुल्म किया...जुल्म ऐसा लगा कि बढ़ा के प्यास मेरी उसने हाथ छोड़ दिया...वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह...शाम से उनके गले की मिश्री के कानों में घुलने का इंत$जार था. यह सिलसिला शुरू हुआ काफी देर बाद...राग केदार में ख्याल की रचना जोगिया मन भावे... और चांदनी रात मोहे ना सोहावे...के साथ ही समां बंध गया।
बाहर का खुशगवार मौसम...हल्की बंूदाबांदी...गोमती का किनारा और...इसी बीच शुरू हुई ठुमरी...
संवरिया को देखे बिना नाहीं चैन...
सुरों को दुलराना, सहेजना, उन्हें छेडऩा...उनके साथ शरारत करना...कभी-कभी छोड़ देना विचरने के लिए...न जाने कितने निराले अंदाज सभागार में बिखर रहे थे।
संवरिया को देखे बिना नहीं चैन...
दिन नहीं चैन...
रैन नहीं निंदिया...
का से कहूं जी के बैन...
संवरिया को देखे बिना नहीं चैन...
ठुमरी का रस कानों में घुल ही रहा था कि झूला शुरू हो गया...
आज दोऊ झूला झूले...
श्यामा...श्याम...
रत्नजडि़त को बनो है हिन्दोलवा
पवन चलत पुरवाई रे...
आज दोऊ झूला झूले...
श्यामा झूले...
श्याम झुलाएं...
सुंदर कदम्ब की छाईं रे...
बीच-बीच में उनके ठेठ बनारसी अंदा$ज में बतियाने का क्रम भी जारी रहता है. वो हर तरह से सभागार में बैठे हर व्यक्ति पर अपनी पकड़ का कसाव बढ़ाती जाती हैं. सुरों की प्यास बढ़ाती जाती हैं. वे कहती हैं कि मैं हूं 81 साल की लेकिन जब मैं मंच पर आती हूं मैं 18 की हो जाती हूं. इस बतकही में श्रोताओं को उलझाकर वे शुरू करती हैं दादरा...
तोहे लेके संवरिया....
निकल चलिबे...
निकल चलिबे...
निकल चलिबे...
ढाल तलवरिया कमर कस लेइबे...
कमर कस लेइबे...
कमर कस लेइबे...
ढाल तलवरिया...
बदनामी न सहिबे....
निकल चलिबे...
सभागार के बाहर ठंडी हवाओं के बीच रिमझिम फुहारों ने सुंदर समां सजा रखा था और अंदर सुरों की अमृत वर्षा ने लोगों की रूह को भिगो रखा था. सुरों की प्यास अपने चरम पर थी कि गिरिजा जी ने अनुमति मांग ली...ये क्या...यह सिलसिला इतनी जल्दी थमेगा किसी ने सोचा नहीं था. लेकिन आज उनका मूड इतना ही गाने का था. तमाम मनुहार, इसरार सब बेकार...मैंने वहां मौजूद लोगों के चेहरे पर कुछ मिले-जुले से भाव देखे. सुख के भी, अतृप्ति के भी. मानो समंदर में उतरने के बावजूद प्यास न बुझी हो...

Tuesday, November 10, 2009

एक मौसम खिल रहा है..

एक मौसम आसमान से उतर रहा था। एक मौसम शाखों पर खिल रहा था। एक मौसम पहाड़ों से उतर रहा था। एक मौसम रास्तों से गुजर रहा थाएक मौसम शानों पर बैठ चुका था कबका। एक मौसम आंखों में उतर रहा था आहिस्ता-आहिस्ता।
एक मौसम दहलीज पर बैठा था अनमना सा, एक मौसम साथ चल रहा था हर पल। न धूप... न छांव...न बूंदें... न ओस...न बसंत...न शरद बस एक याद ही है जो हर मौसम में ढल रही हैऔर लोग कह रहे हैं कि मौसम बदल रहे हैं...