Saturday, October 31, 2009

मरने की तुम पे चाह हो

सुनना मेरी भी दास्तां, अब तो जिगर के पास हो,
तेरे लिए मैं क्या करूं, तुम भी तो इतने उदास हो.

कहते हैं रहिए खमोश ही, चैन से जीना सीखिए
चाहे शहर हो जल रहा, चाहे बगल में लाश हो।

खूं का पसीना हम करें, वो फिर जमायें महफिलें,
उनके लिए तो जाम हो, हमको तड़पती प्यास हो।

जंग के सामां बढ़ाइये, खूब कबूतर उड़ाइये,
पंखों से मौत बरसेगी, लहरेगी जलती घास हो।

हाथों से जितने जुदा रहें, उतने ख्याल ठीक हैं,
वरना बदलना चाहोगे, मंजर ये बदहवास हो।

धरती समंदर आसमां राहें, जिधर चले, खुली
गम भी मिटाने की राह है, सचमुच अगर तलाश हो।

है कम नहीं खराबियां, फिर भी सनम दुआ करो,
मरने की तुम पे चाह हो, जीने की सबकी आस हो।
- गोरख पांडे

7 comments:

ओम आर्य said...

सुनना मेरी भी दास्तां, अब तो जिगर के पास हो,
तेरे लिए मैं क्या करूं, तुम भी तो इतने उदास हो
वाह क्या बात है .............अर्ज है

जब तुम उदास,हताश और निराश होते हो

तब मै खुद पर सितम करता हूँ

तब मै जान निसार कर देता हूँ!

प्रज्ञा पांडेय said...

कहते हैं रहिए खमोश ही, चैन से जीना सीखिए
चाहे शहर हो जल रहा, चाहे बगल में लाश हो।
wah bahut sunder ....

मुनीश ( munish ) said...

Sitam !

Unknown said...

सरल शब्दों में गूढ़ अर्थ लिए इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कहते हैं रहिए खमोश ही, चैन से जीना सीखिए
चाहे शहर हो जल रहा, चाहे बगल में लाश हो।

बढ़िया है।
बधाई!

के सी said...

गोरख पाण्डेय के व्यक्तित्व में जाने क्या था कि मुझे अब इस नाम भी एक बेचैनी छुपी दिखाई देती है. खूबसूरत ग़ज़ल एक ज़िन्दगी की ग़ज़ल...

rohit said...

Gorakh Pandey ka apna alag andaz hai. yeh andaz es gazal me bhi dikhta hai.