Sunday, October 4, 2009

आवाज़ का पैरहन

यहां...यहां...यहां...यहां भी नहीं है. वहां भी नहीं है...आखिर कहां रख दी. ऐसा तो कभी नहीं हुआ. कबसे ढूंढ-ढूंढ कर परेशान हूं. कम्बख्त मिल ही नहीं रही. मां हमेशा कहती रहीं, तुम लापरवाह हो बहुत. अपने $जेवर यूं फेंक देती हो. कहीं भी पड़े रहते हैं. गुम हो जायेंगे कभी सारे के सारे. मां की डांट के चलते ज़ेवर संभालना तो नहीं सीखा हां यह $जरूर सीखा कि कीमती चीजों को यूं ही इधर-उधर नहीं छोड़ दिया जाता, संभालकर रखा जाता है. ज़ेवर मेरे लिए कीमती थे ही नहीं, सो उन्हें संभालने की आदत नहीं ही पड़ी. लेकिन एक आवा$ज थी बेशकीमती. उसे ही संभालती फिरती थी।
जबसे वो आवा$ज जिं़दगी में दाखिल हुई कीमती चीजें क्या होती हैं यह अहसास हुआ. मां की सारी नसीहतों को सिरे सहेजना शुरू किया. उस आवा$ज को हमेशा अपने दामन में समेटकर रखा. कभी आंखों में बसाया उसे तो कभी कानों में पहन लिया. कभी माथे पर सूरज की तरह उग आती थी वो, तो कभी ओढऩी बनकर समेट लेती थी पूरा का पूरा वजूद अपने भीतर. वक्त मुश्किल हो तो कंधे पर हाथ सा महसूस होता था उसका. कभी खिलखिलाहटों में भरपूर साथ भी दिया. अकेली नहीं हुई कभी भी, जबसे उसका साथ मिला. कोई किसे ढूंढे, कहां रखे. रूठती भी वो थी और मनाती भी।

हां, यह ठीक है कि उस आवा$ज के चंद वक्$फे ही हिस्से में आये थे, तो क्या हुआ? इस बात की कोई शिकायत तो नहीं थी. सोचा था उन चंद वक्फ़ों को बो दूंगी. उग आयेंगी खूब सारी आवाजें. आवा$जें....मीठी...मीठी...मीठी...कोलाहल नहीं, आवा$ज. वो आवा$ज जिसमें रूह को विस्तार मिले. जिसे कमर में बांध लो तो आत्मविश्वास से भर जाये मन. पांव की पा$जेब बने कभी, तो कभी पवन बन उड़ा ही जाये अपने संग. आवा$जों की इस भीड़ में ऐसी कीमती आवा$जों का मिलना कितना मुश्किल है... तभी तो सारे ताले-चाभी निकाल लिये थे. कभी आंचल में बांधकर रखती तो कभी तकिये के नीचे छुपाकर. उसे सहेजकर रखने में कोई चूक नहीं की. कभी भी नहीं. लेकिन आज न जाने कैसा मनहूस सा दिन है. सुबह से ढूंढ रही हूं, मिल ही नहीं रही. घर का कोना-कोना तलाश लिया. मन की सारी पर्तें झाड़कर देख लीं. आंचल के सारे सिरे तलाश लिये. तकिये के नीचे...वहां तो सबसे पहले देखा था. क्या कहूं... क्या हुआ. आवा$जों की गुमशुदगी की तो रिपोर्ट भी नहीं लिखवाई जा सकती. थक-हार कर बैठी हूं, निराश...बेहाल......$िजंदगी से बे$जार... $िजंभी तो उसी आवा$ज में रख दी थी. क्या करूं...क्या कहूं...कहां ढूंढूं...?
न कोई रूप उस आवा$ज का...न चेहरा कोई...कैसे कोई और ढूंढ पायेगा।

5 comments:

विवेक said...

कितना सच कहा...आवाजों की गुमशुदगी की रिपोर्ट भी तो नहीं लिखाई जा सकती...आवाजें तो बस रिहा कराई जा सकती हैं...मन की कोठरियों से...कुछ ऐसा ही काम कर रहे हैं आपके ये शब्द...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी यह पोस्ट अभिनव और अद्भुत रही !

rohit said...

Bahut Khoob. chamtkrit karti hai aapki yeh aawaz.

Rohit Kaushik

सुशीला पुरी said...

''आवाजों की गुमशुदी '' बेहद तकलीफदेह है ..........जीवन बिना आवाज के तो सोच भी नही सकते ......संवादहीनता की इस भयावह दुनिया में रह पाना बहुत मुश्किल है ......हम मनुष्य मौन रह कर जी नही सकते ,हमे अपनी आवाजों को सहेजना ही पडेगा
और उसकी चाभियों के लिए ऐसी जगह खोजनी पड़ेगी जहाँ से जब चाहें तब खोल सके सन्नाटों के ताले .

सविता मिश्रा 'अक्षजा' said...

बहुत ही सुन्दर अदभुत रचना .............