Friday, September 25, 2009

सीढ़ी

मुझे एक सीढ़ी की तलाश है
सीढ़ी दीवार पर चढऩे के लिए नहीं
बल्कि नींव में उतरने के लिए
मैं किले को जीतना नहीं
उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूं।
- नरेश सक्सेना

7 comments:

Mithilesh dubey said...

कविता तो अच्छी है, लेकिन ऐसी चाहत क्यों।?

निर्मला कपिला said...

बिलकुल सही आज कल लोग मृगतृ्श्ना के आकाश पर विचरने के लिये अपनी जडों से कट लगे हैं। ये उन्नती किस काम की जो आदमी अपने वज़ूद को भी भूल जाये बहुत सुन्दर कविता है शुभकामनायें

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी रचना. सक्सेना जी को पढ़वाने का आभार.

ओम आर्य said...

बहुत ही सुन्दर बात कही है आपने /वक्त है जमीन से जुडने की न की हवा मे उड्ने की/चेतना को जगाती रचना/बधाई!

Vipin Behari Goyal said...

वाह क्या बात है ...इरादा तो नेक है

Batangad said...

सही लाइनें हैं

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कविता तो अच्छी है, लेकिन....

खग की भाषा खग ही जाने!