Friday, September 11, 2009

एक आग तो बाकी है अभी

उसकी आंखों में जलन थी
हाथों में कोई पत्थर नहीं था।
सीने में हलचल थी लेकिन
कोई बैनर उसने नहीं बनाया

सिद्धांतों के बीचपलने-बढऩे के बावजूद
नहीं तैयार किया कोई मैनिफेस्टो।
दिल में था गुबार कि
धज्जियां उड़ा दे

समाज की बुराइयों की ,
तोड़ दे अव्य्वास्थों के चक्रव्यूह
तोड़ दे सारे बांध मजबूरियों के
गढ़ ही दे नई इबारत
कि जिंदगी हंसने लगे
कि अन्याय सहने वालों को नहीं
करने वालों को लगे डर

प्रतिभाओं को न देनी पड़ें
पुर्नपरीक्षाएं जाहिलों के सम्मुख
कि आसमान जरा साफ ही हो ले
या बरस ही ले जी भर के
कुछ हो तो कि सब ठीक हो जाए
या तो आ जाए तूफान कोई
या थम ही जाए सीने का तूफान
लेकिन नहीं हो रहा कुछ भी
बस कंप्यूटर पर टाइप हो रहा है

एक बायोडाटा
तैयार हो रही है फेहरिस्त
उन कामों को गिनाने की
जिनसे कई गुना बेहतर वो कर सकता है।

सारे आंदोलनों, विरोधों औरसिद्धान्तों को
लग गया पूर्ण विराम
जब हाथ में आया
एक अदद अप्वाइंटमेंट लेटर....

15 comments:

sushant jha said...

ओह... लगता है इस कविता में मेरी ही कहानी लिखी गई है।

Anonymous said...

यथार्थ हमेशा आदर्श पर भारी पड़ता है. सारे विचार, आंदोलन धरे रह जाते हैं।

समयचक्र said...

बहुत सुन्दर रचना .

Dr. Amarjeet Kaunke said...

व्यवस्था कैसे एक आदमी को जड़ कर
देती है उसकी बहुत ही सफल अभिव्यक्ति
है यह कविता....धीरे धीरे पूंजीवाद हमारा
सभी का यही हाल करने वाला है...आपकी
कविता आते वक्तों की भविष्य वाणी है....
..डॉ. अमरजीत कौंके

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बस कंप्यूटर पर टाइप हो रहा है
एक बायोडाटा
तैयार हो रही है फेहरिस्त
उन कामों को गिनाने की
जिनसे कई गुना बेहतर वो कर सकता है।

अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है।
बधाई!

विवेक said...

बहुत ही सच्ची कविता है। आईने जैसी साफ...

Unknown said...

सच कहूँ तो यह कविता , रचना पढ़कर ऊर्जावान हो गया । आगे ऐसे ही पढ़ने को मिलेगा । शुभकामनाएं

अपूर्व said...

एक पूरी पीढ़ी का यथार्थ छिपा है आपकी कविता मे..शुभकामनाएं.

Mithilesh dubey said...

क्या बात है बहुत खुब। गजब की अभिव्यक्ति दिखी आपकी इस रचना में। बधाई

संजय तिवारी said...

आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.

rohit said...

This Poem shows the reality of this era.
Bahut Sunder

Rohit Kaushik

subhash Bhadauria said...

अभी पूर्ण विराम नहीं लगा है मोहतरमा हमारी जगं अभी भी ज़ारी है.अहमदाबाद परिवार से दूर एक ऐसा गाँव में ज़लावतन हूँ. इंक्रीमेंट पाँच साल से रोके गये गुजरात हाईकोर्ट में इंक्रीमेंट और पिंसीपल के प्रमोशन की दोनो मेटर रूल्ड हुईं वोर्ड पर आने में जमाने लगेंगे.

हमारा तो मिज़ाज़ ये है साहिबा की क्या कहें.

पानी जो हमारे सर से गया,
हम भी हथियार उठायेंगे.
बोली से अगर वे न समझे,
गोली से उन्हें समझायेंगे.
ख़ैर नियुक्ति पत्र और प्रमोशन के पट्टे पालतू बनाते हैं ये सच आपने बड़े बेबाक रूप से उभारा है.
निराशा के इस दौर में कुछ संघर्ष की बात कीजिए बकौले दुष्यन्त कुमार,
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है.
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है.

सुशील कुमार जोशी said...

वाह बहुत उम्दा लेखन !

Sadhana Vaid said...

सिद्धांतों आदर्शों का जब ज़मीनी हकीकत से वास्ता पड़ता है तो उनका कैसा दयनीय हश्र होता है उसे बड़ी सशक्त अभिव्यक्ति दी है आपने ! बधाई स्वीकार करें !

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!!