Monday, August 17, 2009

सदी का सबसे बड़ा आदमी-2

- काशीनाथ सिंह
ऐसे लोग जिनकी तादाद बेहिसाब थी-खिड़की के नीचे मेला जैसा हुए घूमते-घामते रहते और एक-दूसरे से जानना चाहते कि उन्हें भला गालियों से इतनी मुहब्बत क्यों है? उनके भव्य और दिव्य चेहरे पर बुर्राक मूंछें कितनी फबती हैं? हमारी इतनी मिन्नत के बावजूद सरकार दर्शन देने कभी नीचे क्यों नहीं उतरते? क्या वे सचमुच चलने-फिरने लायक नहीं हैं?

कोई तो मिलता, जिसने उन्हें खिड़की के सिवा भी कहीं देखा होता? लेकिन यह पक्का जान लो कि इतना रोबीला और खुर्राट मर्द कहीं ढूंढे न मिलेगा। जरा घनघनाती बुलंद आवाज तो सुनो, ऐ साले, हरामखोर, चिरकुट! मगर लोगों के न चाहते हुए भी, जब शौक साहब की निशानेबाजी अपने शबाब पर थी, वह दिन आ गया जिसे कभी नहीं आना चाहिए था और जिसके बारे में किसी ने सोचा तक न था। एक मरियल सा सींकिया नौजवान, जो महीनों से गली में आ रहा था और कुर्ता और धोती लेते लोगों को देखा करता था। एक रोज एक घिनौनी हरकत कर बैठा। उसने ऐसे शख्श को, जिस पर पान की पीक बस गिरने-गिरने को थी, जाने किधर से दौड़कर धक्का मार दिया, वह आदमी लुढ़कता हुआ दूर जा गिरा और पीक मोरी के पानी में छपाक करके रह गई। उस वक्त भीड़ ने उसे सिर्फ बेइज्जत करके छोड़ दिया। लेकिन उसी नौजवान ने, जब यही हरकत अगले दिन भी की और किसी दूसरे आदमी के साथ, तो भीड़ का गुस्सा बढ़ गया. वह बर्दाश्त न कर सकी. उसने उसे दस पांच हाथ मारे और समझाया कि सब्र से काम लो, इतने लोग महीनों से लटके हुए हैं, मगर अब तक बारी नहीं आई और तू आनन-फानन में हथिया लेना चाहता है. उसने जैसे ही कुछ बोलने की कोशिश की कि भीड़ दोबारा उस पर टूट पड़ी.

छोड़ दो उसे। खिड़की से शौक साहब ने ललकार कर कहा, पहले इसी हरामजादे को कुर्ता धोती ले जाने दे! ...चल बे सामने आ.जब सामने आया...तो शौक साहब ने उसका पूरा-पूरा जायजा लिया. उसकी कद काठी का, हाथ-पांव का. सब कुछ ठीक-ठाक था. उमर का अंदा$जा नहीं लग पा रहा था, क्योंकि मूंछें तो पूरी तरह आ गई थीं, लेकिन दाढ़ी के बाल सिर्फ ठोढ़ी पर ही थे. चपटी और गांठ जैसी नाक के बावजूद वह आकर्षक था. जरा सी खटकने वाली बात महज यह थी कि उसकी आंखें ठंडी थीं, उनमें किसी तरह की भूख या लालच नहीं थी.अगर उसके कपड़े गंदे होते तो शौक साहब ने उसे भगा दिया होग, क्योंकि चिथड़े और मटमैले कपड़ों पर थूकने से उन्हें घिन आती थी और लोग इसे जानते भी थे.

हां, तो आ सामने। उन्होंने आसन बदला।और फिर उन्होंने उसे नचाना शुरू कर दिया। भीड़ ने यही देखा कि शौक साहब उसे नचा-नचाकर मार रहे हैं। उधर थूक ही नहीं रहे हैं, जिधर वह उछलकर खड़ा हो रहा है। अगर वे उसे कपड़े देना चाहते, तो जाने कब थूककर विदा कर दिया होता, लेकिन वे अभी बच्चू को पढ़ा रहे हैं, हां चल वे।शौक साहब को म$जा आ गया। एक मुद्दत लंबे इंत$जार के बाद उन्हें कोई मर्द का बच्चा मिला था, जिसने अपनी चुस्ती और चालाकी से उनकी निशानेबाजी को चुनौती दी थी।

शाम के वक्त जब नौजवान ने अपने कपड़े ठीक किए, माथे का पसीना पोंछा और हांफते हुए खिड़की की ओर अपना सिर उठाया, तो उसके छरहरे बदन का जायजा लेते हुए शौक साहब ने ऐलान किया, देख, मर्द की जबान एक। न इस खिड़की से मैं हटूंगा और न सड़क से तू. चाहे रात हो, चाहे दिन. न कोई खाएगा, न पियेगा, न आराम करेगा. अगर अब सिवा मेरे घोड़ों में जो तुझे पसंद आए, ले जा. उसे तांगे में जोत, चाहे बेंच खा. जैसी तेरी मर्जी.भीड़ ने जय-जयकार किया और कहा कि सरकार इस बददिमाग लौंडे पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो रहे हैं.मुझे कुछ नहीं चाहिए. नौजवान ने पांव बदलकर खड़े होते हुए कहा.अच्छा तो यह मजाल. शौक साहब ने निशाना साधा.पहली बार गली में दरवाजे, खिड़की, छत, बारजे, पेड़ पर बैठे या खड़े सारे आलम ने पहली बार इस सवाल-जवाब से महसूस किया कि यह कोई खेल-तमाशा नहीं, कुछ दूसरी ही बात है, क्योंकि यह लौंडा न गालियां दे रहा है, न रो रहा है, सिर्फ अपना बचाव कर रहा है, जबकि सरकार सचमुच ईमानदारी से सच्चे दिल से उस पर थूकना चाहते हैं. फिर भी उसे यह खल रहा था कि इस ससुरे को कपड़े-लत्ते और अब तो घोड़ा भी लेकर किनारे होना चाहिए और दूसरों को मौका देना चाहिए. इतने लोग अपना काम-धंधा छोड़कर इतनी देर से, इतने दिन से खड़े हैं, कुछ तो सोचना चाहिए.नौजवान कायदे से पीक के दायरे में ही था. उसके बाहर नहीं और इजाजत भी यही थी, तय हुआ था कि थूके जाने के वक्त बाहर से कोई भी इशारा नहीं करेगा और इसका भी सख्ती से पालन हो रहा था. शौक साहब उसके गाफिल होने या झपकी लेने या थकने का इंत$जार करते और औचक हमला बोल देते.

नौजवान का पूर्वानुमान अद्भाुत था. वह बाएं या दाएं घूमते-घूमते उछलकर आगे या पीछे खड़ा हो जाता. कभी-कभी तो बेमतलब घंटे भर पीक की प्रतीक्षा करनी पड़ती, लेकिन मौके के समय सहसा झुककर या उछलकर अपने चौकन्नेपन का सबूत दे देता.यह सारा कुछ जितना उबाऊ और बोर था, उतना ही तनावपूर्ण भी, लेकिन वाह रे शौक साहब! वे ऊपर अपनी खिड़की के पास, बैठे-बैठे खा भी सकते थे, पी भी सकते थे. सो भी सकते थे. नीचे से कौन देखता है? और देखना भी चाहे तो किसे दिखाई पड़ेगा? लेकिन नहीं, नियम तो नियम राजा हो या रंक, वे सुस्त पडऩे लगे और इधर सुबह होने लगी. छोकरे! उन्होंने सूरज उगते-उगते अगला ऐलान किया, हालांकि आवाज थोड़ी मद्धिम और कमजोर थी. मैं तेरी हिम्मत और दिलेरी से खुश हूं. चाहता तो यही था कि तू राजी खुशी अपने घर जा, बीवी बच्चों से, मां-बाप से मिल. उन्हें घोड़ा दिखा, उनके साथ जश्न मना, लेकिन लगता है, तुझे मंजूर नहीं. अच्छा जा, अगर आज भी बच गया तो नौलखा हाथी तेरा. फीलवानी कर, चाहे बेचकर अपनी और अपनी दस पीढिय़ों की किस्मत बना.नौजवान लड़खड़ा रहा था, जैसे होश में न हो. उसने अपनी बेकाबू होती जुबान में कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए.फिर साले, किसलिए मर रहा है? भीड़ गालियां देती हुई उसे पीटने के लिए लपकी, लेकिन पहले से ही उसके सिर पर उसकी रक्षा में शौक साहब के नौकरों-चौकरों की तनी हुई लाठियां देखीं, तो आश्वस्त होकर अपनी जगह खड़ी हो गई.खबरदार, शौक साहब ने ऊपर डपटकर सबको हटाया और खिड़की से होठों को बंदूक की नली बनाकर सधी हुई पीक मारी.नौजवान उछला, खड़ा होते-होते गिरा, मगर बच गया.शौक साहब झुंझला उठे. उनका चेहरा तमतमा उठा. नथुने फड़कने लगे. उनका गोरा-चिट्टा रंग तांबे जैसा हो गया. हमेशा मुस्कुराते रहने वाले दयालु सरकार का यह भयानक रूप किसी ने देखा नहीं था. इसके बाद ही उन्होंने अविराम निर्णायक युद्ध की घोषणा कर दी.
क्रमश:

2 comments:

सुशीला पुरी said...

कमाल है प्रतिभा ! आपने कक्का की कहानी को ही छाप दिया !!!!!!!! हार्दिक बधाई .

Anonymous said...

काशी नाथ सिंह। इस नाम में ही बनारस बसता है। ऐसा कहानी पढ कर ऐसा लग रहा है कि मैं बनारस की गलियों में घूम रहा हूं। वही मस्त लोग और वही मस्त अंदाज। कहानी के लिए शुक्रिया