Monday, June 22, 2009

ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है

िजंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा।


तू मिला है तो एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है,


इक $जरा सा $गमे दौरा का भी है ह$क है जिस पर
मैंने वो सांस भी तेरे लिए रख छोड़ी है


तुझ पे हो जाऊंगा कुर्बान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...


अपने जज़्बात में नग़्मात रचाने के लिए
मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे,


मैं तस्सवुर भी जुदाई का भला कैसे करूं
मैंने $िकस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे,


प्यार का बनके निगहेबान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...

तेरी हर चाप से जलते हैं ख्य़ालों में चिरा$ग
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये

तुझको छू लूं तो फिर ऐ जाने तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी खुश्बू आये

तू बहारों का है उन्वान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...

10 comments:

ओम आर्य said...

बहुत बहुत सुन्दर ..............

ताऊ रामपुरिया said...

ये तो मेहंदी हसन साहब की गाई हुई नायाब गजल है उसका आदियो लगा देते तो आनंद और कई गुना बढ जाता. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

रंजना said...

मेंहदी हसन साहब ने क्या खूब गाया है इस ग़ज़ल को .....सचमुच लाजवाब है. इसे पढ़ते ही कानो में वे स्वर गूंजने लगे...

सदा said...

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति, आभार ।

Udan Tashtari said...

इस गज़ल को क़तील शिफ़ाई साहब ने लिखा है, उनका नाम तो लगा ही दिजिये और मेंहदी हसन साहब की आवाज तो इसे पढ़ते खुद ब खुद कान में गुँजने लगती है.

बहुत आभार इसे प्रस्तुत करने का. वैसे कोशिश करिये कि अगर शायर का नाम न भी मालूम हो और रचना आपकी न हो, तो यह जरुर लिख दें कि शायर का नाम ज्ञात नहीं.

एक सलाह मात्र है, कृप्या अन्यथा न लिजियेगा.

Pratibha Katiyar said...

यह गज़ल इतनी मकबूल है कि इसके गायक और शायर दोनों से ही कोई नावाकिफ हो ऐसा मैं नहीं मानती. इसीलिए किसी का कोई नाम नहीं दिया. हां, ऑडियो लगाना चाहती थी लेकिन अभी यह सीखा नहीं है. कभी-कभी खूब सुने हुए को पढऩा भी सुख देता है और सुनने की प्यास को जगा देता है. पसंद करने के लिए आप सभी का आभार!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

क़तील शिफ़ाई साहब की ये ग़ज़ल
बहुत उम्दा है।
मुबारकवाद।

P.N. Subramanian said...

यह ग़ज़ल हमें भी भाति है. यहाँ प्रस्तुत करने का आभार

के सी said...

1993 में आकाशवाणी में नौकरी ज्वाइन की तब यही ग़ज़ल सुनते हुए दो बरस बिताये थे. आज आपने उन कमसिन दिन की याद दिला दी है. बहुत खूबसूरत पसंद है आपकी और अब सोचता हूँ कुछ लोग मिलते जुलते होते होंगे.

Anil Pusadkar said...

बहुत बढिया।