Friday, June 5, 2009

ये ख्वाब हमने ही आंखों में सजाया होगा.


कौन....
कौन आया था यहां?
तुम बताओ...?
चलो तुम ही बताओ?
कोई तो बताओ, कौन आया था यहां?
सुबह-सुबह आंख खुलने के बाद जैसे ही आंगन में पांव रखा तब से यही सवाल करती फिर रही हूं सबसे।
कारण...?
कारण बताती हूं...कारण तो बताना ही होगा ना?
आंख खुलते ही देखती क्या हूं पूरा घर पौधों से भरा हुआ है. पांव रखने की जगह तक नहीं. छोटे-बड़े पौधे...पौधे ही पौधे...इतने सारे पौधे, एक साथ घर में? हड़बड़ा ही गयी मैं? घरवालों से, पड़ोसियों से सबसे पूछ आई. कुछ पता नहीं चला कि कहां से आये पौधे. थक गई पूछ-पूछकर।
बैठी जो हारकर, तो पौधों पर नजर पड़ी. कितने खूबसूरत थे सारे के सारे. किसी में पहला कल्ला फूट रहा था. किसी में बीज ने अभी-अभी अंगड़ाई ली थी. कहीं दो पत्तियां मुस्कुरा रही थीं. कुछ जरा ज्यादा ही शान से खड़े थे. उनकी शाखों पर फूल जो खिल चुके थे. ध्यान दिया तो सारे ही मेरी पसंद के पौधे थे. कभी कोई पसंद आया था, कभी कोई।
गुस्सा अब उड़ चुका था. मुस्कुराहट काबिज थी, यह सोचकर कि ये सारे मेरे हैं. सारे के सारे मेरे हैं. अब दूसरा सवाल. कहां लगाऊं इन्हें?
कैसे संभालूं इन्हें कि सूख न जाये एक भी. हर शाख, हर पत्ती, हर गुल को बचाने की फिक्र. जितनी क्यारियां थीं, सबको दुरुस्त किया...जितने गमले थे, सबको सहेजा. पौधे रोपे....उनमें पानी डाला. बहुत सारे पौधे अब भी बचे थे. कहां ले जाऊं उन्हें।
तभी कुछ बच्चे आ खड़े हुए...पौधों को हसरत से देखने लगे. उनकी आंखें पौधे मांग रही थीं. लेकिन मेरा मन कौन सा कम बच्चा था. जोर से बोला, नहीं एक भी नहीं देना है. सब मेरे हैं. दोनों हाथों से पौधों को सहेज लेना चाहा.लेकिन कोई चारा नहीं था. धूप फैल रही थी. साथ ही चिंता भी कि कैसे संभालूं इन प्यारे, नाजु़क पौधों को. हार गई आखिर. अधिकार छोडऩा ही उचित लगा।
बच्चों को प्यार से देखा. सारे बच्चों को एक-एक पौधा दिया।
यह गिफ्ट है मेरा।
खूब अच्छे से परवरिश करना।
देखो सूखे ना।
आसान नहीं है पौधों की परवरिश करना. समझे!
सुबह-शाम पानी देना.
ज्यादा धूप नहीं, ज्यादा छांव नहीं, ज्यादा पानी भी नहीं।
सब कुछ संतुलित।
मैं देखने आऊंगी... बच्चे पौधे लेकर चले गये।
मैंने राहत की सांस ली कि चलो पौधों की जान तो बची. अपने पौधों को प्यार से देखा मैंने. अचानक मेरे घर में इतनी हरियाली आ गई कि संभाली ही नहीं गई मुझसे. बांटनी पड़ी।
कुछ दिनों बाद जब मैंने बच्चों के घर का रुख किया कि पौधों की खैरियत ली जाये. वहां जाकर देखा कि उनके पौधे पूरी शान से बढ़ रहे थे. मेरे पौधों से भी ज्यादा तंदुरुस्त थे. बच्चे और पौधे दोनों मुस्कुराते मिले. दिल में कहीं जलन सी हुई. पानी तो मैंने भी दिया था समय से. पूरा ख्याल भी रखा, फिर क्यों मेरे पौधे ठहर से गये हैं वहीं. कुछ तो सूख भी रहे हैं लगता है।
दरअसल, ये पौधे नहीं ख्वाब थे सारे के सारे. मेरे ख्वाब. अपने मन का अंागन जब छोटा पड़ा, तो उन ख्वाबों को आजाद किया कि जाओ उन आंखों में सजो, जहां परवरिश मिल सके. ख्वाबों की परवरिश आसान नहीं होती. जो ख्वाब आजाद हुए वे बच गये...जो रह गये वो जूझ रहे हैं मेरे साथ।
कहीं से दो बूंद आंसू उधार मिलें, तो शायद इनकी नमी लौटा सकूं...बचा ही लूं इन्हें...

10 comments:

Science Bloggers Association said...

आइए हम सब, कुछ पल अपनी धरती माँ के लिए निकालें।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

अनिल कान्त said...

ek achchhi post

humein ped paudhe lagane hi honge

Anonymous said...

आंख आज फिर नम है लगता है कोई ख्वाब टूटा है। दर्द तो होगा ही। कोशश कीजिए कि यह दर्द और किसी को न हो
आमीन

Drmanojgautammanu said...

प्रतिभा जी
पर्यावरण दिवस पर आपकी यह बहुत ही सुन्दर रचना है । धन्यबाद

अजय कुमार झा said...

प्रतिभा जी, मैं भी यही चाहता हूँ की पर्यावरण दिवस पर और कुछ भी करें न करें..पेड़ पौधों की सुध लें..नए पौधे लगायें और उन्हें अगले साल फिर देख कर गर्व करें....सभी ऐसा करें..तो क्या बात हो..आपने बहुत ही सुन्दर लिखा है.....

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया पोस्ट लिखी है।

Abhishek Ojha said...

इस पोस्ट में आये पौधे, बच्चे और ख्वाब तीनों एक जैसे ही तो हैं ! तीनो का ख्याल रखना है ये भविष्य हैं.

के सी said...

पोस्ट पढ़ रहा था पर्यावरण दिवस के सन्दर्भ में किन्तु पिछली पोस्ट की हरियाली का असर अभी बाकी था तो प्रकृति से असीम लगाव का एक ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ जैसे कोई अपने दोस्त के कुछ करने की कोशिश करे.

subhash Bhadauria said...

प्रतिभाजी बेहतरीन कविता.
आज शाम ही अहमदाबाद आना हुआ.राज्य की शिक्षा कमिश्नर ने काबलियत देखकर 140 किमी.गांव में इंचार्ज प्रिंसीपल बनाकर पटका हैं जहां इंटरनेट बहूत दूर की बातें हैं. गज़लें सब छूटती सी जा रहीं हैं.
आपकी कविता दिल को छू गयी.अब ये सवाल नहीं पूछूँगा कि ये किस की है? कहीं आपको ग़ालिब का ये शेर याद न आ जाये.
नुक्ताची है ग़में दिल उसको सुनाये न बने.

बस दिल को छू लेने वाली कविता हैं प्रतीक और बिम्ब इतने टटके हैं कि क्या कहें कहने रम्ज़ों में बहुत गहरी गुफ़्तगू हो रही है मोहतरमा.
ज़्यादा क्या कहूँ.
दिल की बस्ती में अब आश का जुगनू भी नहीं.
इतना रोया हूँ कि अब आँख में आँसू भी नहीं.
सो आपकी इल्तिज़ा कैसे पूर करें.
रकीबों से फुर्सत मिले तो कभी गरीबखाने का भी रुख
करे आमीन.

Pratibha Katiyar said...

हरियाली तो बचानी ही है मन की भी और धरा की भी. मुझे खुशी है कि बात को मैंने जिस रूप में कहा, उसे उसी रूप में ग्रहण भी किया गया. यह भी एक उपलब्धि ही है. सभी का ह्रदय से आभार!