Thursday, May 28, 2009

कबीर के करीब- ३

कबीर गर्व न कीजिए ऊंचा देख आवास
काल परौ भुंई लेटना ऊपर जमसी घास।

ज्यों नैनों में पुतली त्यों मालिक घट माहिं
मूरख लोग न जानहिं बाहिर ढूंढन जाहिं।

जब तू आया जगत में लोग हंसे तू रोए
ऐसी करनी न करी पाछे हंसे सब कोए।

पहले अगन बिरह की पाछे प्रेम की प्यास
कहे कबीर तब जाणिए नाम मिलन की आस।

कबीर यहु घर प्रेम का खाला का घर नाहिं
सीस उतारै हाथि करिसो पैसे घर माहिं।

माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख माहिं
मनुआ तो चहुं दिश फिरे यह तो सिमरन नाहिं।

कबीर माला काठ की कहि समझावे तोहि
मन न फिरावै आपणां कहा फिरावे मोहि।

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहिं
सब अंधियारा मिटि गया जब दीपक देख्या माहिं।

6 comments:

admin said...

एम0ए0 में कबीर मेंरे विशेष कवि रहे हैं। अच्छा लगा उनके चुनिंदा दोहों को फिर से पढना।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

अनिल कान्त said...

कबीर जी के दोहों को पढ़कर अच्छा लगा

Udan Tashtari said...

आभार प्रस्तुति का.

संगीता पुरी said...

सुंदर दोहे .. अच्‍छा लगा .. धन्‍यवाद।

अखिलेश्‍वर पांडेय said...

कबीर यहु घर प्रेम का खाला का घर नाहिं
सीस उतारै हाथि करिसो पैसे घर माहिं।

इस एक पंक्ति पर तो सारे प्रेमी न्‍यौछावर हो जाएं... पूरी सीरिज पढी जा रही है। जारी रखिये...

जयंत - समर शेष said...

Kabir Ji was one of the greatest Bhaarat had.

Thanks for his "dohas".

~Jayant