Thursday, May 14, 2009

परवीन शाकिर की गली

इश्क में भी मरना इतना आसान नही
जात को रद करना, इतना आसान नहीं

मुझमें ऐसी ही खामी देखी उसने
तर्क-ए-वफा वरना इतना आसान नहीं

एक दफा तो पास-ए-मसीहा कर जाये
जख़्म का फिर भरना इतना आसान नहीं

जाने कब शोहरत का जीना ढह जाये
पांव यहां धरना इतना आसान नहीं

मरने की दहशत तो सबने देखी है
जीने से डरना इतना आसान नहीं
जात- अस्तित्व
रद्- निरस्त
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क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
जख़्म ही ये मुझ लगता नहीं भरने वाला

उसको भी हम तिरे कूचे में गुजार आये हैं
िजन्दगी में वो जो लम्हा था संवरने वाला

उसका अंदाज-ए-सुखन सबसे जुदा था
शायद बात लगती हुई, लहजा वो मुकरने वाला

दस्तरस में हैं अनासिर के इरादे किस के
सो बिखर के ही रहा कोई बिखरने वाला

इसी उम्मीद पे हर शाम बुझाये हैं चिराग
एक तारा है सर-ए-बाम उभरने वाला।

1 comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

उसका अंदाज-ए-सुखन सबसे जुदा था
शायद बात लगती हुई, लहजा वो मुकरने वाला
वाह!!!