Thursday, February 19, 2009

खराशें के बहाने....


मैं कोई समीछ्क नही, न ही थियेटर एक्सपर्ट हूँ फ़िर भी जीवन की दूसरी कलात्मक विधाओं की तरह नाटकों में भी मेरी थोडी बहुत रूचि है। पिचले दिनों एक नाटक देखा खराशें। गुलज़ार साहब की पोएट्री और कहानियो को आपस में जोड़कर इस नाटक को सलीम आरिफ ने निर्देशित किया। नाटक में अगर सच कहें तो मज़ा नहीं आया। मंच पर अतुल कुलकर्णी और यशपाल शर्मा की उपस्थिति और लुबना सलीम की बढ़िया acting के बावजूद पूरा नाटक टूटा-टूटा, बिखरा-बिखरा सा लगा। मुझे ऐसा तब लगा, जब मंच पर बोले जा रहे samwad और कवितायें मुझे pahle से shabd dar shab yaad थे। यानी जिनके लिए इस दुनिया में जाने का पहला मौका था, उनकी मुश्किलसमझी जा सकती है। कविताओं पर natak नई बात नहीं है। दिअरी, कविता, लेटर्स, कहानिया ये सब नाटकों का हिस्सा होते हैं। ऐसे नाटकों में itani शिद्दत होती है की वे दर्शकों को दोनों हाथों से पकड़ लेते है। उनका दिल, दिमाग स्टेज से जुड़ जाता है। नाटक में एक रिदम का होना बेहद जरूरी है। वो रिदम जो पल भर को भी खंडित न हो। अगर वो एक पल भी दर्शकों को मिल गया तो नाटक और दर्शक के बीच गैप बनाना शुरू हो जाता है लाय टूट जाती है। फ़िर दर्शकों को खुजली होने लगती है। जाहिर है यह खुजली नाटक को डिस्टर्ब करती है।यह बात सही है की पूरा दोष नाटक पर नहीं थोपा जा सकता न ही दर्शकों पर। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है की नाटक की औडिएंस को भी थोड़ा अपडेट होने की जरूरत है। आमतौर पर बड़े natak एक खास किस्म के एलिट क्लास की औडिएंस के सामने जा खड़े होते हैं( कम से कम लखनऊ में ).नाटक की असल में समझने वाले और उसे एन्जॉय करने वाले अक्सर auditoriaym के bahar खड़ा नजर आता है। एक खिसियाहट दोनों तरफ़ है। नाटक करने वालोंमें भी और देखने वालों में भी। बहरहाल, अच्छी बल्कि बहुत बात यह है की भले ही गडबडियां हुईं, नाटक ने अपना इम्पेक्ट उतना नहीं chhoda. इन दिनों नाटकों को लेकर अजीब सा फैशन उभरने लगा है की natakon ke बारे में बात बौधिक जुगाली करने के काफी काम आता है। फैशन हो या kuch aur लेकिन अच्छी बात यह है की नाटकों का युग लौट रहा है। फिलहाल, इस नाटक में सबसे बढ़िया लगी मंच सज्जा जो बेहद saada होते हुए भी अपना पूरा प्रभाव छोड़ रही थी। मंच पर लगी पेंटिंग्स उस दौर को बयाँ कर रही thi जिस दौर की थीम नाटक की थी। यह नाटक बटवारे के बाद दिलों पर पड़ी ख़राशों को बयां करता है। समय भले ही बदल गया लेकिन हालत अब तक वैसे ही है, वही भय, खौफ, जखम...सब kuch॥


एक अच्छा नाटक बनते बनते रह सा गया...


1 comment:

मनोज द्विवेदी said...

APKI LEKHANI SE BAHUT KUCHH SIKHANE KO MIL RAHA HAI...