Sunday, January 25, 2009

एक मुलाकात ख़ुद से



रोज सबेरे धरती के एक छोर से सूरज उगता है और रोज ही शाम को किसी नदी, पोखर, समंदर में गिरकर बुझ जाता है। रोज ही हवाएं चलती हैं, जिस्म को छूते हुए निकल जाती हैं. रोज हमारी जिंदगी में अनगिनत अजनबी चेहरे आते हैं, जिन पर हमारा ध्यान तक नहीं जाता. रोज ही बहुत कुछ होता है जो बेहद कॉमन सा होता है. हमारा बोलना, काम करना, सोचना, आगे बढ़ना और अगले दिन की तैयारी करते हुए आज के दिन को गुड बॉय कहना. अचानक इस कॉमन सी लाइफ का हर लम्हा महकने लगता है. अचानक एक दिन हमारा एनर्जी लेवल बढ़ जाता है. अचानक दिन सुनहरे हो उठते हैं. अचानक हम खुद को आम से खास होता हुआ महसूस करने लगते हैं. अचानक हवाओं को मुट्ठियों में भींच लेने का, सूरज को आंखों में कैद कर लेने का हौसला हमारे भीतर जन्म लेने लगता है. अचानक ढेरों फूल हमारे भीतर खिलने लगते हैं. कैसे होने लगता है यह सब? दरअसल, ये सारे चेंजेस होने लगते हैं हमारी खुद से मुलाकात होने के बाद. खुद से मुलाकात यानी अपने बारे में कुछ जानना, समझना और खुद पर बिलीव करना. दौड़भाग में हम खुद को ही इस कदर इग्नोर करने लगते हैं कि अपने ही लिए अजनबी हो जाते हैं. हमें ध्यान ही नहीं रहता कि हमारे अंदर कितनी संभावनायें हैं. द मोमेंट वी बिलीव इन अवरसेल्फ, वी बिकम लिटिल डिफरेंट. हमारा सोचना, हमारा काम करना, हमारी जिंदगी का पूरा ऩजरिया बदल जाता है. आम होने से खास होने तक का रास्ता इस बिलीव से होकर ही तो गुजरता है. पर हममें से बहुत कम लोग इस बात को जान या समझ पाते हैं. वक्त ही नहीं मिलता. हमसे, हमारी मुलाकात करवाने का क्रेडिट जिन चीजों के हिस्से जाता है, वे भी कम दिलचस्प नहीं हैं. कभी किसी की टूटती हुई उम्मीदों को सहेजते हुए हम चुपके से खुद की उम्मीदों को भी सहेज लेते हैं. किसी के आंसुओं को पोंछते हुए हम खुद अपना दर्द भी कम कर ही लेते हैं. दूसरों से बात करते समय हम खुद से भी बात करते हैं. यानी जो हमें लगता है हम दूसरों के लिए कर रहे हैं दरअसल, वह हम अपने लिए कर रहे होते हैं. अच्छा या बुरा, गलत या सही. यही है हमारी खुद से मुलाकात, बस इतना सा है जिंदगी का फलसफा. लेकिन यहीं, ठीक इसी जगह पर ़जरा सा ब्रेक लेने की जरूरत है. ये सेल्फ बिलीव कहीं ओवर कॉन्फिडेंस न बन जाये यह ध्यान रखना कम जरूरी नहीं है. ़जरा सी लापरवाही डेंजरस हो सकती है. हम सब जानते हैं कि जो पेड़ फलों से जितना लदा होता है, उतना ही झुकता चला जाता है. लता मंगेशकर हों, भीमसेन जोशी, पं. हरि प्रसाद चौरसिया या कोई और सेलिब्रिटी, ये सब अपनी हर परफॉर्मेस से पहले अब तक नर्वस होते हैं. उनका यह नर्वस होना उन्हें परफेक्ट होने के गुमान से बचाता है और हर पल कुछ नया करने को उकसाता है. अपने ऊपर विश्वास करने के साथ ही अपनी जिंदगी में अपने सपनों को भी जगह देना कम जरूरी नहीं है. सपने, जो आंख खुलने पर आंखों से गिरकर टूटते नहीं. सपने जो हमारी स्ट्रेंथ बन जाते हैं, सपने जो हर पल हमारे साथ चलते हैं. हमारे आम से काम को खास बनाते हैं. अपने सपनों की उंगली थामकर अपने सेल्फ बिलीव के साथ कदम बढ़ाते ही दुनिया सचमुच बदलने लगती है. चांद फिर आसमान में चमकने वाला दूर का राही नहीं, हमसफर सा लगने लगता है. हमारे और हमारे सपनों के बीच के फासले घटने लगते हैं. जिंदगी सचमुच खूबसूरत होने लगती है, महकने लगती है. रोजमर्रा की कॉमन सी जिंदगी ही दरअसल सबसे खास होती है. बस, हमें इसकी अहमियत को रिकॅग्नाइज करने की देर है. विश्व का बेस्ट लिटरेचर, ब्लॉक बस्टर फिल्में, ढेरों कैनवास आम जिंदगी की खुशबू से ही तो महक रहे हैं. आइये, इस आम जिंदगी की अहमियत को पहचानें और बना लें इसे सचमुच खास.

3 comments:

Anonymous said...

अक्सर
मीठी होती है.
कुछ यादें,
सपनो भरी रातें,
या फ़िर कुछ लोगो कि बातें
जैसे कि आप .....
जज्बाती सिलसिला जारी रहे....

Mukul said...

जिन्दगी रोज नए रंग दिखाती है
कभी हंसती तो कभी रुलाती है
लेकिन फ़िर भी जिन्दगी है तो खूबसूरत
इसकी खूबसूरती तब बढ़ जाती है
जब ऐसे लेख पढने को मिलते हैं
उम्मीद है जिन्दगी को करीब से देखने का
सिलसिला चलता रहेगा

विजय तिवारी " किसलय " said...

प्रतिभा जी
आत्मावलोकन से बड़ी और कोई चीज
नहीं होती जिन्दगी आसान हो जाती है, ख़ुद
से मुलाक़ात करके तो देखे कोई. सच कहा आपने
- विजय